सोमवार, 21 दिसंबर 2009

विनय का विस्फोट...

[कलम की जुबान से...]

आज चिंतन के क्षणों में
डूबता है एक सूरज
व्यक्ति का विक्षोभ लेकर
और अन्तर की मनोरम घाटियों में
एक स्वर ही गूंजता है
आस्था के अर्थ का विस्फोट लेकर ;
किंतु जीवन थम गया है--
अवरोध ही अवरोध अब तो शेष है ।

विषमताओं के भयंकर काल के सम्मुख
प्रणय की मत करो चर्चा
लो, समय का एक सूरज डूबता है ।
निःशब्द-सा गूंजा गगन में
एक अभिनव हास लेकर
मृत्तिका का घोर गर्जन
यवनिका अब गिर रही है ।

काल के फंदे जकड़ते जा रहे हैं
और कोई पास बैठा
क्षीण-से स्वर में पुकारे जा रहा है,
सड़कें गूंगी व्यथा दुहरा रही हैं;
खाली-खुली हथेलियों का दर्द फिर भी
कितनों को छीलता है ?

कश-म-कश की ज़िन्दगी से ऊबकर
कुछ शब्द कोरे जी लुभाना चाहते हैं :
चाकू, छुरा, पिस्तौल,
विश्वविद्यालय की तीन टांगवाली कुर्सियां--
'बंदी' के आक्रोश-भरे नारे उभर आते हैं,
ज़िन्दगी हडतालों के दोराहे पर
खड़ी होकर उसांसें लेती है;
चायघर में कुछ फिल्मी गीतों का
कुछ गालियों का
कुछ शोर-शराबे का
मिला-जुला अजीब-सा स्वर
पिघले शीशे की तरह कानों में उतर जाता है,
सिगरेट के धुंए की तरह अस्तित्व सुलग जाता है !

सच मेरे मित्र !
सारे अहसास गूंगे हो जाते हैं
जब मैं टूटती उँगलियों से
कलम को जबान देना चाहता हूँ !!

रविवार, 13 दिसंबर 2009

ये सफर मेरा गुनहगार है....

रेत ही रेत है, गर्दो-गुबार है,
आज रंजो-गम से रोती बहार है।

गुमशुदा हुए ख्वाबों की खैर हो,
तंगनज़री से ये दिल बेकरार है।

दोस्त पूछने लगे खैरियत मेरी,
मुझे मेरी खैरियत का इंतजार है।

छोड़ने को साथ साया बेसब्र हो उठा,
मेरे हमसफ़र से मेरा इतना करार है!

अंधी-तूफाँ ने कर लीं हर चंद कोशिशें,
ताक़त मगर वजूद की बेशुमार है !

तुम्हें मिल भी जाए मांगी हुई मुराद,
मेरा सफर तो मेरा ही गुनहगार है !!

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

बर्फीली घाटियों का क्लेश...

[ताड़-पत्र से ली गई एक और पुरानी कविता]


मैं विवश हूँ सोचने पर
मान्यताओं और आस्थाओं का ज्वार
कब और क्यों
भावनाओं के तट से टकराता है,
एक साथ कई शून्य
कब मस्तिष्क में उभर आते हैं,
अशांति के गीत गाते हैं !

जख्मों की मरहम-पट्टी कर लो
शायद ज़िन्दगी फिर से बुलाने
आ गई है,
शब्द सारे शून्य में यूँ मत उतारो
भावनाओं का महासागर खड़ा है,
एक अन्तिम अस्त्र का विश्वास क्या है ?

रात्रि की निस्तब्ध काली यातनाओं का
करो मत ज़िक्र,
मित्र मेरे मान जाओ--
वह आघात ऐसा है
जो हृदय में सीधे उतरना चाहता है,
अवरोध तुम्हारा सरल है,
यह नहीं है बूँद अमृत की
अपमान का अमृत गरल है !

लेकिन,
मैं तुम्हें कैसे बताऊँ
आज का आदमी बहुत बंधा है,
विषमताओं के भयंकर
काल के सम्मुख खड़ा है;
दृष्टियों का दोष ही अब शेष है;
पर नियति की क्रूरता का क्या ठिकाना

यह बर्फीली घाटियों का क्लेश है !!

[पूज्य बच्चनजी को उनके १०२ वें जन्म-वर्ष पर सप्रणाम--आनंद !]

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[छठी और अन्तिम किस्त]

बेनीपुरीजी से जब कुछ पूछने, जानने और सीखने की योग्यता हुई, तब उन्होंने जीवन-जगत से छुट्टी पा ली थी। पूज्य पितामह के एकमात्र चित्र की जो चर्चा मैंने पहले की है, उसका पूरा विवरण भी मैंने उंनकी इसी संस्मरणात्मक पुस्तक में पढ़ा था, फिर पिताजी से पूछ-पूछकर सम्पूर्ण इति-वृत्त जाना था। संभवतः १९२९-३० में, इलाहबाद में बेनीपुरीजी ने किस तरह मेरे कठोर सिद्धांतवादी और अपनी मान्यताओं पर दृढ़ रहनेवाले पितामह को अपने वाक्-चातुर्य से एक चित्र खिंचवाने के लिए विवश कर दिया था।
बेनीपुरीजी ने अपने दीर्घ जीवन में साहित्य और राजनीति--दोनों दिशाओं में बहुत काम किया था। वह लोकनारायण जयप्रकाश नारायण के बहुत निकट और अंतरग रहे। उन्होंने हिन्दी गद्य को नए आयाम दिए, नई ऊँचाइयाँ दीं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन प्रकाशन किया, जिनमें 'बालक', 'युवक', 'जनता' और 'योगी' बहुचर्चित पत्रिकाएं रहीं। अपने हिंदीसेवी मित्र गंगाशरण सिंह के साथ मिलकर उन्होंने 'युवक' का सम्पादन किया था और माखनलाल चतुर्वेदी के आग्रह पर दैनिक पत्र 'कर्मवीर' से भी जुड़े थे। उनके ललित निबंध ऐसे थे कि उन्हें हिन्दी साहित्याकाश का चितेरा शैलीकार कहा गया। उन्हें भाषा पर असाधारण अधिकार था। वह शब्दों की पहचान रखनेवाले अनूठे शिल्पी थे।
मेरे पिताजी से उनकी युवावस्था की मित्रता थी। उम्र में बेनीपुरीजी ५ वर्ष बड़े थे, लेकिन मित्रता 'तुम-ताम' की थी। सन १९३४ में मेरे पितामह की मृत्यु के बाद पिताजी आजन्म-सेवित इलाहाबाद छोड़कर पटना आ बसे थे। सन १९३९ में पिताजी ने अज्ञेयजी के साथ मिलकर 'आरती' मासिक का सम्पादन-प्रकाशन किया था। 'आरती' के बारे में प्रसिद्ध कवि मोहनलाल महतो 'वियोगी' जी ने सन १९४० के एक पत्र में पिताजी को लिखा था--''भाई ! 'आरती' आयी। प्रकाशमान है। एक 'युवक' था, जिससे बड़ी उम्मीदें थीं, वह असमय ही काल-कवलित हो गया ! जैसी हरि-इच्छा ! बेटा न सही, बेटी ही सही। बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे !... और तुम--क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें ? इस जन्म में तो गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने !''
वक्त का कितना लंबा और बड़ा टुकड़ा हाथ से फिसल गया है, मौसम ने कितनी बार और कैसे-कैसे रंग बदले है कि अब बहुत पीछे तक साफ-साफ़ दीखता भी नहीं। लेकिन इतना तय है कि आज वे सारे मित्र देवलोक में निवास करते हैं, वे वहाँ भी मिलकर किसी नई कार्य-योजना में ही लगे होंगे। कौन जानता है, वे सभी कब अपना समय वहाँ पूरा करके पुनः भारत-भूमि का स्पर्श करेंगे और देश के वन्दन में सम्मिलित स्वर में गायेंगे... । जब ऐसा होगा, तब मैं जाने कहाँ होउंगा ! लेकिन मन में कामना जागती है.... और चाहता हूँ कि वे सभी जब भारत और भारती के वंदन में, समवेत स्वर में गायें, मैं भी वहीँ कहीं आसपास होऊं....!!

बुधवार, 18 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[पांचवीं किस्त]

दिन एक-सा नहीं रहता, मौसम एक-सा नहीं रहता; वह रंग बदलता रहता है। वे बौराए दिन भी बीत गए। सन १९६५ में मेरी माताजी विद्यालय निरीक्षिका के पद पर नियुक्त होकर हम बच्चों के साथ रांची चली गईं । आकाशवाणी की सेवा से बंधे पिताजी पटना में ही रहे। श्रीकृष्ण नगर में तिनका-तिनका जोड़कर जो नीड़ बना था, वह बिखर गया। मनन-रतन और छोटन--मेरे मित्र मुझसे बिछड़ गए--नशेमन उजड़ गया। बेनीपुरीजी भी पटना में अधिक समय तक नहीं रह पाते थे। वह कभी मुजफ्फरपुर तो कभी बेनीपुर चले जाते थे। सन १९६८ में एक दिन अचानक उनके देहावसान का दुखद समाचार हमें अखबारों से मिला। अपने समय में देश की तरुणाई को आवाज़ देनेवाला, शीतल छाया प्रदान करनेवाला विशाल बरगद धराशायी हो गया था....
राँची में दो साल कार्यरत रहने के बाद घर के समीप आने की लालसा से मेरी माताजी ने स्थानान्तरण की मांग की थी। उन्हें सोनपुर (पटना की गंगा के पार का एक शहर) स्थानांतरित कर दिया गया। वहां कुछ महीने ही बीते होंगे कि सन १९६८ के अन्तिम महीने में हृदयाघात से अचानक माताजी का भी निधन हो गया। माता के लोकान्तरण से आहात पूरा परिवार एक बार फिर पटना में एकत्रित हुआ; लेकिन मातृ-विहीन बच्चों को लेकर पिताजी श्रीकृष्ण नगर में न रह सके और पटनासिटी में मेरी ननिहाल में रहने लगे। तब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था। मेरी अधकचरी कविताई तो आठवीं कक्षा से ही शुरू हो गई थी, लेकिन ग्यारहवीं तक आते-आते रुचियाँ परिष्कृत होने लगी थीं। युवा होते आम पर बौर आने लगे थे....
बाद के दिनों में मैंने बेनीपुरी साहित्य पढ़ा। उन पर लिखा पिताजी का संस्मरण पढ़ा। लेकिन बेनीपुरीजी के संस्मरणों का संग्रह (वे दिन...) पढ़कर मैं अवसन्न रह गया। कैसे संघर्षों के तपते रेगिस्तान को उन्होंने अपनी छाती के बल रेंगकर पार किया था ! अपनी माताजी के निधन का जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला वृत्तान्त बेनीपुरीजी ने शब्दों में बांधा है, उसे पढ़कर मैं अन्दर तक हिल गया था। मैंने भी मातृ-वियोग का आघात ताज़ा-ताज़ा सहा था, आहत था, मर्म-विद्ध था। ऐसे में बेनीपुरीजी का वह दस्तावेज़ मेरे कलेजे की हड्डियाँ मरोड़ता था !.... रूढ़िवादी मान्यताओं और लोकाचारों की दुहाई देकर उनकी माता के शव-दाह के पूर्व किए गए अमानवीय कृत्यों का मार्मिक वृत्तान्त तो पाषाण को भी पिघला देनेवाला था। सच कहूँ तो बेनीपुरीजी की मातृ-विछोह की पीड़ा के सम्मुख मुझे मेरी पीड़ा छोटी जान पड़ी थी। और शोक-शमन के लिए वह मेरा संबल भी बनी थी कभी.... उस दस्तावेज़ को मैंने उन दिनों बार-बार पढ़ा था और मेरी आँखें बार-बार भर आती थीं। अंपनी बाल्य-काल की शैतानियों को याद करके मेरा मन क्षोभ से भर उठता था... और एक पश्चाताप मेरी अंतरात्मा पर छा जाता था दीर्घ-काल के लिए....
[क्रमशः]

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[चौथी किस्त]

सन १९६६ तक श्रीकृष्ण नगर में हमारा रहना हुआ और बेनीपुरीजी के परिवार से मेरी निकटता बढती गई। भाभी बहुत स्नेही, मुखर और सुदर्शना थीं। घर-भर को साफ़-सुथरा और व्यवस्थित रखना पसंद था उन्हें; लेकिन पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं तो साहित्यकार के घर का भूषण होती हैं और जाने क्यों उन्हें अव्यवस्थित रहना ही प्रिय होता है; उनकी व्यवस्था में मेरी माता अपने घर में और भाभी बेनीपुरीजी के घर में परेशानहाल रहती थीं। दोनों घरों में कागज़-पत्तरों, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के अंबार को लेकर महीने-दो महीने में एक बार तो अवश्य ही विवाद हो जाता था; जिसे देखकर उस कच्ची उम्र में मुझे न मालूम क्यों बड़ा मज़ा आता था। आए दिन दोनों घरों की दहलीज़ पर रद्दीवाला आ बैठता और उसकी तौल पर निगाह रखने के लिए मुझे नियुक्त किया जाता। एक बार तो रद्दी के साथ बेनीपुरीजी की किसी पाण्डुलिपि का थोड़ा-सा अंश भी कांटे पर चढ़ गया था, जिसकी मैंने रक्षा की थी। बेनीपुरीजी ने उस दिन मेरी प्रशंसा की थी और घरवालों को डांट पिलाई थी। उन्होंने कहा था--''आनंद लेखक का बेटा है, रद्दी और महत्त्व के लेखन का फर्क न जानेगा ? पता नहीं कैसे तुम्हीं लोग ये अन्तर नहीं समझ पाते... ।'' मैं गर्वोन्नत हुआ उनके पूरे घर में पदाघात करता रहा उस दिन देर तक...
दोनों घरों का एक-सा हाल था। साहित्यिकों-मुलाकातियों की आवभगत में चाय की केतली चूल्हे पर ही चढ़ी रहती थी। वह युग 'प्लास्टिक पैक तैयार नाश्ते' का युग नहीं था। विशिष्ट अतिथियों के जलपान के लिए घर में ही सारी तैयारी की जाती थी। बेनीपुरीजी के घर में मेरी कई ऐसी शामें भी गुजरीं, जब अतिथियों के लिए तैयार किया गया नाश्ता हम बच्चों को भी दिया गया। उनके घर के चूरा-मटर का स्वाद आज ४४-४५ वर्षों बाद भी मेरी जिह्वा भूल नहीं सकी है। मनन-रतन से मिलने मैं जब भी उनके घर जाता, बेनीपुरीजी ज्यादातर मुझे तीन मुद्राओं में ही दीखते--कुछ लिखते हुए, कुछ पढ़ते हुए और अधलेटे-सोये हुए।
एक शाम अजीब वाकया हुआ। हम उत्साही किशोरों की टोली बेनीपुरीजी के घर के सामनेवाले मैदान में क्रिकेट के लिए एकत्रित हुई। बल्ला-विकेट, गेंद-दस्ताना मनन-रतन के घर में था। उसे लाने के लिए मनन के साथ मैं भी उसके घर गया। सारा सामान तो बाहरवाले कमरे में ही मिल गया, लेकिन गेंद उस कमरे में थी जिसमे बेनीपुरीजी थे। मनन कमरे की चौखट पर पहुंचकर ठिठक गए, इशारे से मुझे पास बुलाया और बहुत धीमी आवाज़ में बोले--''सामनेवाली अलमारी में गेंद है। तुम उसे ले आओ। बाबा मुझे देख लेंगे तो कोई-न-कोई काम बता देंगे।'' मैंने दबे पाँव बेनीपुरीजी के कमरे में प्रवेश किया और बिना उनकी तरफ़ देखे आलमारी तक पहुँच गया। आलमारी बेनीपुरीजी के सिरहाने थी। गेंद उठाकर जब मैं लौटने को तत्पर हुआ, तो उनपर दृष्टि पड़ी। वह बाएं करवट ऊँची तकिया पर लेटे थे। कमरे की खिडकियों पर परदा पड़ा था, फिर भी कमरे में मद्धम प्रकाश था और उनके खर्राटों की धीमी आवाज़ गूँज रही थी। मैं दो कदम आगे बढ़ा ही था कि बेनीपुरीजी की ओर एक बार फिर दृष्टिपात करके आश्चर्य से अवाक् रह गया ! उनके दायें हाथ में कलम थी और बिस्तर पर पड़े पैड पर वह कुछ लिखते-से दिखे। मैं हतप्रभ था। गहरी नींद में खर्राटे भरता कोई व्यक्ति भला लिख कैसे सकता है ! यह तो असंभव है। मैंने अपनी पलकें झपका कर सुनिश्चित किया कि मैं जो देख रहा हूँ, वह स्वप्न नहीं, सत्य है। हाँ, वह मेरी आंखों का देखा अपूर्व सत्य था। मन में आया कि उनके समीप जाकर देखूं कि वह क्या लिख रहे हैं; लेकिन मेरा सहमा हुआ किशोर मन इतना सहस नहीं जुटा सका। मैं कमरे से बाहर निकल आया। मैंने मनन को यह बात बताई तो वह बोला--''अरे, बाबा तो दिन-रात लिखते ही रहते हैं... ।'' उसके लिए यह वाकया कुछ खास, कुछ नया नहीं था। लेकिन मेरे मन पर बेनीपुरीजी की निद्रानिमग्नावस्था में लेखन करती अद्भुत मुद्रा यथावत अंकित है। मैं भूल नहीं पाता उस असंभव का बेनीपुरीजी के हाथो सम्भव होना।
हिन्दी-साहित्य-मन्दिर का वह पुजारी जो जीवन-भर 'भारती' की पूजा-अर्चना में भासमान दीपक जलाता रहा, वह आज असहाय, लाचार, अशक्त, निरुपाय और हतचेत होकर भी इसी चेष्टा में निमग्न है। वह आज शय्याबद्ध होकर भी साहित्य-मन्दिर के द्वार पर पूजन के लिए उपस्थित है.... ।
[क्रमशः]

सोमवार, 16 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[तीसरी किस्त]

पटना के श्रीकृष्ण नगर के २३ संख्यक मकान में हमारा निवास था और बेनीपुरीजी का भरा-पूरा परिवार १०८ संख्यक मकान में रहता था। इन दोनों संख्याओं के बीच की दूरी चाहे जितनी हो, मेरे और उनके घर का फासला महज डेढ़ बांस का था। बेनीपुरीजी के पौत्रों की मित्रता के कारण उनके घर में मेरा नित्य का आना-जाना था। सबसे बड़े भाई लालन बेनीपुरी उन दिनों कालेज में पढ़ते थे और यदा-कदा हमारे क्रिकेट के खेल में शरीक हो जाते थे। मनन-रतन हमउम्र थे, छोटन थोड़े छोटे; किंतु इन तीनों भाइयों से मेरा मित्रवत व्यवहार था। कंचे से लेकर क्रिकेट तक जितने खेल हो सकते हैं, सबों में हम समान रूप से सम्मिलित होते थे। कतिपय देसी खेलों में भी उनका साथ-संग होता; जैसे--डोलापाती, कबड्डी, चोर-सिपाही, आइस-बाईस, लाली, बम्पास्तिक और दौड़ की स्पर्धा ! इन खेलों का मैदान बेनीपुरीजी के घर के सामने ही था। हमारे कई खेल वह अपने घर के अहाते में बैठकर चुपचाप देखते रहते थे।
बेनीपुरीजी के बारे में जिस रात मुझे पिताजी ने समझाया था, उसके दूसरे दिन जब मैं स्कूल से लौटा, तो घर में पुस्तकों-कापियों का बैग पटककर मैं पुनः बाहर जाने लगा। माताजी ने पीछे से आवाज़ दी--''खेलने जा रहे हो क्या ? कुछ खाकर तो जाओ।'' 'अभी आया' कहता हुआ मैं सीधे बेनीपुरीजी के घर गया। वहां तो मेरा निर्बाध प्रवेश था। मैं बेनीपुरीजी के कमरे में जा पहुँचा। वह पलंग पर अधलेटे थे। मैंने चरण-स्पर्श कर प्रणाम निवेदित किया, जैसे मैं अपने अपराधों की क्षमा-याचना कर रहा होऊं । बेनीपुरीजी ने इतना-भर पूछा--'कौन ?'
'आनंद' कहता हुआ मैं कमरे से बाहर आया और बेनीपुरीजी के एकमात्र (संभवतः) सुपुत्र देवेन्द्र बेनीपुरीजी के पास पहुँच गया और बोला--''बाबूजी ने कहा है कि आप मेरे बड़े भाई हैं, आज से मैं आपको 'भइया' कहूँगा।'' देवेन्द्र भइया को श्रवण-कष्ट था। मुझे लगा, उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी; लिहाज़ा मैं तीर की तरह उनकी पत्नी और मनन-रतन की मम्मी जी के पास पहुँचा और बोला, जैसे घोषणा कर रहा होऊं--''आज से मैं आपको 'भाभी' कहूँगा। बाबूजी ने कल ही बताया है कि आप मेरी भाभी लगेंगी। '' अचानक मेरा यह प्रलाप सुनकर भाभी क्षण-भर को संभ्रम में ठिठकी रहीं; किंतु शीघ्र ही अभिप्राय समझकर बोलीं--''चाचाजी ने ठीक ही बताया है तुम्हें। तुम्हीं तो 'अंकल-आंटी' कहते रहे हो।'' उनके घर से बाहर आकर मैंने मनन-रतन-छोटन के बीच भी उच्च स्वर में घोषणा की--''याद रखना, मैं तुम्हारा चाचा हूँ।'' मेरे तीनों मित्र पलकें झपकाते रहे, और मैं गर्व-स्फीत हुआ शाम का नाश्ता करने कि लिए अपने घर कि ओर चल पड़ा...
[क्रमशः]

रविवार, 15 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

[दूसरी किस्त]

बेनीपुरीजी के घर से जाने के बाद मैं अपनी उद्दंडता में उनके हकलाकर और अटक-अटककर बोलने की नक़ल उतारता। अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर परिहास करता। मेरी माताजी के कानों में मेरे अभिनय और परिहास के स्वर पड़ते, तो वह आकर वर्जना दे जातीं; लेकिन जैसे ही वह आंखों से ओझल होतीं, मैं अपनी कारगुजारियों से बाज़ न आता। एक-आध महीने में ही बेनीपुरीजी के बारे में मेरा आकलन इतना परिपक्व हो गया था कि बगल के कमरे में पढ़ने के लिए बलात् बैठाया गया मैं भविष्यवाणियाँ किया करता कि बेनीपुरीजी अमुक प्रश्न का कोई उत्तर न देंगे; अमुक का इतने क्षणों के बाद यह उत्तर देंगे और जब शब्दों के थोड़े अन्तर से उनके मुख से वही उत्तर निकलता, तो हमारी हँसी रोके न रुकती।

बहरहाल, बेनीपुरीजी के 'केरिकेचर' करती मेरी अभिनय-प्रतिभा निखरती गई और मेरी शोखियाँ-शैतानियाँ परवान चढ़ती गईं । लेकिन, एक-न-एक दिन इसकी अनुगूंज तो पिताजी तक पहुंचनी ही थी। उन्होंने माताजी से पूछकर सारा मर्म जान लिया और मुझे बुलाकर पास बिठाया तथा प्यार से समझाया--''तुम जिनकी नकल उतारकर हँसी करते रहते हो, जानते भी हो, वह कौन हैं ? वह उम्र में मुझसे भी बड़े हैं, विद्वान् लेखक हैं और मेरे बहुत पुराने मित्र हैं। वह मेरे मित्र हैं तो तुम्हारे क्या हुए ?''

मैंने छूटते ही कहा--''चाचाजी !''

पिताजी बोले--''तब कहो, चाचाजी की कोई खिल्ली उड़ाता है ? मज़ाक बनाता है ? सभी उनका सम्मान करते हैं, उन्हें पूज्य मानते हैं, उनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं।''

मेरी चपलता काम आयी, मैंने कहा--''जब वह आते हैं, मैं भी तो पैर छू कर उन्हें प्रणाम करता हूँ।''

पिताजी ने कहा--''लेकिन पीठ पीछे तुम उनका उपहास भी तो करते हो ! यह तो अच्छी बात नहीं है।''

थोडी देर चुप रहकर पिताजी ने मेरे पूज्य पितामह (साहित्याचार्य पंडित चंद्रशेखर शास्त्री) के चित्र की ओर इशारा करते हुए कहा--''अपने बाबा का यह जो एकमात्र चित्र तुम देख रहे हो, बहुत पहले यह चित्र बेनीपुरीजी ने ही खींचा था, जब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। बेनीपुरीजी न होते, तो तुम अपने बाबा का चित्र भी कैसे देख पाते ? बोलो तो ?''

बात मेरे किशोर-मन में कहीं गहरे बैठ गई; लेकिन मेरे फितूरी दिमाग ने हठ न छोड़ा--''लेकिन वह इतना हकलाते और बोलते-बोलते चुप क्यों हो जाते हैं ?''

अब पिताजी की मुख-मुद्रा गंभीर हो गई, बोले--''वह तो अपने समय के बहुत स्पष्ट वक्ता थे। उच्च स्वर में बोलते थे और जो बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। अब तो बीमारी ने उन्हें ऐसा बना दिया है।''

मैंने पूछा--''क्या बीमारी है उन्हें ?''

पिताजी ने कहा--''पक्षाघात से अभी-अभी उबरे हैं वह।''

मेरा अगला सवाल था--''यह पक्षाघात क्या होता है ?''

पिताजी ने समझाया--''फालिज जानते हो ?--लकवा ?'' मेरे इनकार करने पर वह फिर बोले--''यह हवा की चोट से उत्पन्न हुआ एक प्रकार का शारीरिक विकार है।''

''हवा चोट कैसे करती है... बाबूजी ?'' मेरे प्रश्नों का अंत नहीं था कहीं ! लेकिन मेरे इस प्रश्न से पिताजी के चहरे की गंभीर वक्र रेखाएं शिथिल हुईं । वह हलके-से मुस्कुराए और बोले--''तुम अभी इतना ही समझ लो कि वह बीमारी से उठकर खड़े तो हो गए हैं; लेकिन पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुए हैं।''

पिताजी की बातें सुनकर मेरा मन ग्लानि और क्षोभ से भर उठा। पिताजी के पास से हटा, तो एक संकल्प मन में दृढ़ हो चुका था--बेनीपुरीजी पूज्य हैं, उनका मुझे आदर करना है, आशीष लेना है, उपहास नहीं करना है कभी... ।

[क्रमशः]

शनिवार, 14 नवंबर 2009

साहित्याकाश के शब्द-शिल्पी : बेनीपुरी

'बौर नया आया अमिया पर,
विशाल बरगद सूख गया...!

वे अजीब बौराए दिन थे। मौसम भी बौराया-सा था... । शहतूत में रस और आम में नया बौर आ गया था... और फालसे का रंग चटख सुर्ख हुआ जाता था। महुआ टपकने को और कपास की फलियाँ चटखने को तैयार थीं... सब पर एक अजीब नशा तारी था। और मैं...? मेरी न पूछिये... ! सन १९६३-६४ का साल और मैं छठी कक्षा का उद्दंड छात्र ! पटना के श्रीकृष्ण नगर की चौहद्दी के बाहर भी मेरी ख्याति थी। कॉलेज में पढ़नेवाले लड़कों की टोली भी मुझ किशोर से डरती थी, परहेज करती थी। सारा मोहल्ला जानता था कि इस सिरफिरे को छेड़ना किसी शामत को दावत देना है। स्कूली पढ़ाई में कभी अनुत्तीर्ण नहीं हुआ; लेकिन ग्यारहवीं कक्षा तक पिताजी ने कम-से-कम बारह स्कूल तो बदलवाए ही होंगे। हर विद्यालय के हिन्दी और गणित शिक्षक से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी; या तो उन्हें मुझसे या मुझे उनसे जल्दी ही ढेरों शिकायतें हो जाती थीं। कभी शिक्षक महोदय की साइकिल का टायर, ट्यूब सहित मुंह खोले पड़ा रहता था और विद्यालय की छुट्टी के बाद जब वह अपनी साइकिल उठाते तो अपना सिर पीटते और दूसरे दिन प्राचार्य के कार्यालय से मेरी पुकार हो जाती। मैं कहता--''मैंने ऐसा कुछ किया ही नहीं।'' शिक्षक कहते--''ऐसा करनेवाला दूसरा कोई छात्र पूरे स्कूल में है ही नहीं।'' अजब मुसीबत के दिन थे वे ! लेकिन, मैं जाने किस सनसनाते घोडे पर सवार रहता हरदम ! स्कूल में खटापटी हो गई तो मैं किसी आम या इमली के पेड़ पर जा चढ़ता या किसी अमरुद के बगीचे की शरण ले लेता। दिन आराम से गुज़र जाता और शाम होने के पहले मैं घर पहुँच जाता बेधड़क ! कहना न होगा, मैं भी बौराया-सा था उन दिनों !
उन्हीं गर्म दिनों की बात है। शाम होते-न-होते पिताजी की पुरानी बेबी ऑस्टिन कार शोर-शराबे के साथ गैरेज में आ लगती और वह दफ्तर के कपड़े बादल भी न पाते कि एक वयोवृद्ध सज्जन छड़ी टेकते हुए मेरे घर आ जाते और बैठक में पड़ी किसी कुर्सी पर बैठ जाते--मुमूर्शुवत ! बोलते कुछ नहीं ! लम्बा कद, गह्नुआ रंग, भरी-पूरी देह, आंखों पर चश्मा, श्वेत परिधान--धोती-कुर्ता ! पिताजी कपड़े बदलकर बैठक में आते और पूछते, ''कैसे हो भाई ?'' वह कोई उत्तर न देते, टुकुर-टुकुर देखते रहते पिताजी कि ओर निरीह भावः से; जैसे दम साध रहे हों। थोडी देर बाद पिताजी फिर पूछते--''चाय पियोगे ?'' वह फिर भी कुछ न कहते। सिर्फ़ अपने बांये हाथ को हवा में लहरा देते और कलाई को विपरीत दिशा में मोड़ते हुए अपनी लम्बी उँगलियों को हवा में काँपने के लिए छोड़ देते; जैसे कह रहे हों--'पी लूँगा' या नहीं भी पियूँगा तो क्या फर्क पड़ेगा ?' थोडी देर में चाय आ जाती। पिताजी चाय पी लेते, फिर पान बनाकर खाने लगते और अचानक कहते--''भाई, तुमने चाय तो पी ही नहीं, वह ठंडी हुई जाती है... ।'' तब वह हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाते--''प्याली संभलेगी नहीं मुझसे, गिलास मंगवा दो।'' इस एक वाक्य को बोलने में भी उन्हें दो-तीन मिनट लग जाते। कई बार ऐसा भी होता कि वह क्या कहना चाह रहे थे, यही भूल जाते। फिर एक लंबे विराम के बाद वाक्य वहीँ से शुरू करते, जहाँ से उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया था। सप्ताह में तीन-चार बार सुबह अथवा शाम वह मेरे घर आ जाते और घंटे भर बैठे रहते। कभी जल्दी ही ऊब जाते और पितजी से कहते, ''किसी को कहो कि मुझे सड़क पार करा दे, मैं अब जाना चाहता हूँ।'' सड़क पार कराने कि जिम्मेदारी हमेशा मुझे ही सौपी जाती थी; क्योंकि मैं घर का बड़ा बेटा था।
मैं खूब पहचानता था उन्हें। वह मेरे बाल-सखा मनन, रतन और छोटन के पितामह थे। यह तो कुछ समय बाद पता चला कि वह साहित्य-जगत के अनूठे रचनाकार, शब्द-शिल्पी रामवृक्ष बेनीपुरीजी थे।
[क्रमशः]

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कुछ तल्ख़ अहसास...

[सन बहत्तर की डायरी से तिहत्तर की कविता]

तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पड़ा है ।
काले झंडे,
विरोध व्यक्त करता जनाक्रोश,
प्रचार-प्रपत्र,
नारेबाजी में झुलसता माहौल;
लेकिन एक और सच्चाई
यहाँ छूट रही है--
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है--
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है,
सचमुच...
सचमुच अहसास ही मर गया है !

मेरे जवान बेटे की
एक्सीडेंट में टूटी टाँगें,
खून और मांस के लोथडे
सबकुछ एकदम नंगा
देख लेने के बाद भी
पूरी निश्चिन्तता से मेरा
यह कह उठाना--
'अस्पताल कितनी दूर है ?'
इस बात का सुबूत है कि
अहसास मर गया है
और जब अहसास मर जाता है
तो कहने को कुछ शेष नहीं रहता ।
हाँ, तल्खियों से भरा एक जुलूस
फिर भी गतिशील रहता है !

मैं उस बदनसीब कि ज़िन्दगी से
ये कविता शुरू करना चाहता था;
क्योकि जड़ता ही मेरा अहसास है
और मुझे ये पूरा विश्वास है
कि विवशताओं कि सुरसा से बचता हुआ
त्रिकोण में फंसा मेरा काला चेहरा
मेरे स्तब्ध अहसास को शब्द देगा;
क्योंकि अहसासहीन निस्तब्धता के क्षण
रात में सोये-थके मुसाफिर के शरीर पर
एक साथ हजारों-हज़ार विषैले बिच्छुओं के
फ़ैल जाने जैसा है...
यां फिर,
किसी की हथेलियों से
उम्मीदों की सारी लकीरें चुरा लेने जैसा है !

ऐ मेरे मित्र !
अपने गूंगे अस्तित्व के हाथों
अहसानों का तोहफा लेने से
कहीं बेहतर है तेरा घुटना
और घुटकर दम तोड़ देना...!!
[महाकवि नागार्जुन की उपस्थिति में कई बार पढ़ी गई बिहार आन्दोलन की एक कविता]

शनिवार, 7 नवंबर 2009

मेरा ठिकाना हो नहीं सकता...!

[आत्म-परिचय]

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं तो ख़ुद अपना ठिकाना ढूंढ़ता हूँ--
भई ! मुक्ताकाश हूँ,
बादलों के शीश पर
चढ़कर टहलता हूँ;
मैं ज़मीं की नर्म-कोमल दूब पर
जी-भर मचलता हूँ;
ओस-कण हूँ
सुबह की धूप में--
सोने-सा चमकता हूँ !
और फिर वातास में घुल,
उल्लास में भरकर
भारहीन पैरों से थिरकता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो--
मुझसे पता मेरा ?
क्या करोगे जानकर मेरा ठिकाना ?
मैं करता हूँ सवारी
धूलि-कण की,
उत्तप्त गहरी वेदना से भर जला करता
और रक्तिम कण बना
ऊपर उठा करता,
...और ऊपर... और ऊपर...
मोद में भरकर
मत्त हो गाता चला जाता--
अनंत आकाश के पथ पर
विचरता हूँ;
फिर बादलों के शीश से
तुहिन-कण बना
हीरे-सा बरसता हूँ !
प्यास धरती की बुझाने को
तरसता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
उत्तुंग शिखरों पर जमी
जो बर्फ की परतें
उन्हें छूता हूँ, सिहरता हूँ,
फिर लौट आता
कुसुमगंधी वाटिका में !
सुरभि अपनी लुटाने को
खिले जो फूल रंगीले,
चपलता से पहुंचता हूँ वहां,
चूम लेता हूँ उन्हें;
सुगंधि उनकी चुराता हूँ,
फिर गन्धवाही बन
सहज ही मुस्कुराता हूँ !

तुम पूछते क्यों हो
मुझसे पता मेरा ?
मैं नील अम्बर से उतरता,
झुककर चला आता
नद-नदी और सागर-वक्ष पर
अठखेलियाँ करता--
मैं उनकी विस्तृत छाती पर
लहरें बनता हूँ;
अवसाद उनका इस तरह
हंसकर मिटाता हूँ !

कभी-कभी अपने पंख की
सुकोमल थपकियों से
हंस-कौवे और श्वेत कपोत के जोड़े
मुझसे खेलते हैं,
और छ़प-छ़प के उल्लासमय
आघात करते
उड़ते चले जाते--
मुझे चुनौतियाँ देते हुए...
मैं मुस्कुराता हूँ !
वाष्प के गुब्बार को
अपने कन्धों पर लिए
मैं भी उड़ता चला जाता...
नील अम्बर में पहुंचकर
पिघल जाता--
स्वयं मुक्ताकाश हो जाता !

स्नेह से स्पर्श कर देखो कभी
मैं प्राण में एक गंध बनकर
समा जाऊँगा !
तुम्हें अकेला छोड़कर
भला मैं कहाँ जाऊँगा ?

तुम बार-बार मुझसे
पूछते क्यों हो--
पता मेरा ?
विश्वास करो--
जो कुछ कहा मैंने,
वह बहाना हो नहीं सकता;
इस बे-ठिकाने का
ठिकाना हो नहीं सकता !!

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

तेरी मधुर-मधुर मुस्कान...


[ऋतज के पहले जन्मदिन पर]
[हैदराबाद-प्रवास ; २८-१०-२००९]

तन-मन की कंथा हर लेती,
अनिर्वचनीय आनंद जो देती,
मनमोहक, मनभावन है, तेरी --
चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !

पहली सालगिरह पर आया,
प्रीत-स्नेह की गठरी लाया,
लेकिन मैंने तुझसे जो पाया
किन शब्दों में व्यक्त करूँ मैं--
लुप्त हुआ सब मेरा ज्ञान !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

दो हाथों-घुटनों से चलकर,
आ जाता तू पास मचलकर,
अपने कोमल हाथों से मुझको --
दे जाता आनंद महान !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

माँ की गोदी में इठलाता है,
जाने क्या-क्या तू गाता है,
एक शब्द जो कह पाता है--
सुन खड़े हुए 'पापा' के कान !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

'भौं-भौं' अंकल,'कालू आंटी',
प्यारी लगती मन्दिर की घंटी,

जिसे बजाकर तू कहता है--
मम्मी को भजने को नाम !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

सोकर जब तू उठ जाता है,
आँखों से आंसू बरसाता है,
देख नयन-कोरों पे मोती--
निकली जाती मेरी जान !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

दो दिन बाद चला जाउंगा,
मीठी यादें ले जाऊँगा,
भूल नहीं पाऊंगा क्षण-भर--
तेरा चंचल नर्तन-गान !
तेरी चार दंत की मधुर-मधुर मुस्कान !!

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

कोफ्त

[लघु-कथा]

जाने क्यों सारी ट्रेनें विलंब से आ रही थीं। प्लेटफार्म पर बहुत भीड़ थी। आने-जानेवाले लोग, स्वागत करने आए परिजन, कुली, भिखमंगे ! अपनी छोटी बेटी के साथ वह भी प्लेटफार्म पर खड़ा-टहलता थक गया था, लेकिन कुर्सी कहीं खाली न थी। और ट्रेन थी कि आने का नाम न लेती थी।
बड़े-से रिफ्रेशमेंट रूम के बाहर कतार-बद्ध लोहे कि कुर्सियों को वह हसरत-भरी नज़रों से देख रहा था। कहीं तिल रखने को जगह नहीं थी। लम्बी प्रतीक्षा के बाद दो कुर्सियां खाली हुईं, झपटकर वह अपनी बिटिया के साथ उन पर बैठ गया और राहत कि साँस ली। सोचा, अब जब गाड़ी आए... यहीं विश्राम होगा। कुसियों पर विराजमान सभी लोगों का यही मनोभाव था। कुर्सी पर रूमाल रखकर वह बगल कि दूकान तक गया और बेटी के लिए कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल खरीद लाया और फिर कुर्सी पर पसर गया।
तभी मलिनवसना एक युवती रिफ्रेशमेंट रूम के सामने आ खड़ी हुई। उसके हाथ में भोज्य-सामग्री थी, जिसे उसने यात्रा-तत्र बिखरे जूठन से उठा लिया था। वातानुकूलित रिफ्रेशमेंट रूम के द्वार पर वह ठहर गई और भिक्षा की याचना करने लगी। किसी ने उसकी पुकार नहीं सुनी। अचानक वह चिल्ला-चिल्ला कर आवाजें लगाने लगी। उसका शोर सुनकर रिफ्रेशमेंट रूम के दो कार्यकर्ता बाहर आए और उस अभागन को बलात वहां से हटाने लगे। खींचतान में उसके हाथ से नाममात्र का भोजन भी जमीन पर गिरकर बिखर गया।
युवती ने आग्नेय नेत्रों से दोनों युवकों को देखा और क्रोध में भरकर उनका मुंह नोच लेने को आगे बढ़ी। एक युवक ने बचाव में युवती का हाथ उमेठ दिया और दूसरे ने आवेश में उसके गाल पर कई थप्पड़ जड़ दिए। थप्पडों की चोट से आहत युवती ज़मीन पर गिर पड़ी। क्रोधावेश में उसने अपने सारे कपड़े फाड़ दिए और जोर-जोर से चिल्लाते हुए फर्श पर उलटने-पलटने लगी।
कुर्सियों पर बैठे लोग ये सारा तमाशा देखते रहे, कोई अपनी जगह से हिला भी नहीं। किसी ने उस असहाय की चिंता नहीं की। सभी अपनी-अपनी कुर्सी की चिंता में सन्नद्ध थे।
तभी बिटिया के शब्द उसके कानों में पड़े--''पापा ! यह नंगू-पंगु क्यों हो गई ?'' अब उसके लिए वहां बैठे रहना असंभव हो गया था, बोला--''पागल है बेटा !''
इतना कहकर वह बेटी का हाथ थामे दूसरी दिशा में चल पड़ा...
थोडी देर इधर-उधर भटकने के बाद वह यह सोचकर दुखी हो रहा था कि अब जाने कितनी देर और खड़ा रहना पड़ेगा। कुर्सी का मोह छूटता न था। थोडी दूर जाकर वह पलटा और हसरत भरी नज़रों से अपनी छोड़ी हुई कुर्सियां देखकर आश्चर्य से अवाक रह गया। किसी ने अपनी कुर्सी न छोड़ी थी। उसकी दो कुर्सियों पर भी दो शोहदे जमकर बैठ गए थे और दबी नज़रों से रह-रहकर नग्न युवती कि कलाबाजियां देख रहे थे।
अब उसे अपनी नादानी पर कोफ्त होने लगी थी ....

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

एक दीप प्रज्ज्वलित रखा है...


तुम उस डाली के फूल
जिसके नीचे बैठ कभी--
मैंने अपनी थकन मिटाई
और कभी छाती में अपनी
शुद्ध, सुगन्धित, हिम-शीतल-सी
वायु भरी थी,
जाने विधि की क्या इच्छा थी
औचक क्यों टूटी वह डाली,
अभी हरी थी !

आज इसी चिंतन-क्षण में--
मैं देख रहा हूँ
विगत और आगत पथ को
जो धूल उडाता चला जा रहा
काल-चक्र के उस रथ को !

जान रहा हूँ, शोक व्यर्थ है
फिर भी मन के सूने आँगन में,
छिपा मोह के महापाश को;
स्मृति-तर्पण-सा लगता मुझको--
द्वार तुम्हारे आकर फिर-से दस्तक देना,
जाने क्योंकर ठिठक रहे हैं
मेरे आकुल चरण चपल !
मन के झंझावातों से विह्वल,
क्या शेष रहेगा यह शतदल ?

जीवन की गति निर्झर-सी है,
जो बीत गई, वह विगत कथा थी,
और अभी आगत क्षण का
स्वागत हो, मंगल-गान, घोष हो--
ऐसी ही तो प्राचीन प्रथा थी !!

मन के जिस कोने में मैंने
एक दीप प्रज्ज्वलित रखा है
आलोक उसी से लेकर मैं तो
चलता हूँ जीवन-पथ पर;
उसके प्रकाश से जगमग है
सृष्टि समग्र, यह मेरा घर !!!

विज्ञ वही है,
जो विनाश के कठिन क्षणों में,
आधी अपनी सम्पदा बचा ले,
सब अनीति सहकर, अन्तर में--
आलोक भरा एक दीप जला ले !

ध्यान रहे,
उदात्तता और आदर्शों की
जो थाती हमको सहज मिली है,
उसका क्षरण न हो पाए ।
आधार और संस्कार को कभी
ठेस नहीं लगने पाये !!

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

नवजीवन आया ...





[ऋतज के पहले जन्म-दिन पर]


तुम आए, नवजीवन आया !
मेरे इस सूने जीवन में, हास-हुलास समाया !
तुम आए, नवजीवन आया !!

दीपमालिका सजी हुई थी,
पलकें सबकी बिछी हुई थीं,
पूजा की थाली में द्रुम-दल ,
रोली-कुमकुम, अक्षत-चंदन,
ग्रीवा नत, सिर झुका हुआ था,
पूजन फिर भी रुका हुआ था !
आतुर प्राण लिए हम आकुल,
आ जाने को तुम भी व्याकुल;
आने में तुमने देर बहुत की--
थी प्रभु की ऐसी ही माया !
तुम आए, नवजीवन आया !!

दूर देश दक्षिण के वन में,
हुलसित हुआ हृदय कानन में,
कुसुमादपि कोमल एक वृंत पर
दूर्वा-दल के बीच खिला फिर--
प्रीति-पराग सुवासित फूल !
हुआ सचेतन तन-मन सबका,
जनक-जननि भी अपनी पीड़ा गए भूल !
विधि को भाग्य बदलना आया !
तुम आए, नवजीवन आया !!

दूरभाष के लंबे-पतले तार पकड़कर,
आए-गए बहुत संवाद
अमित बधाई हम सब को,
तुमको आशीर्वाद !
नाना-नानी, मौसी-चाचा,
सब कहते तू मेरा राजा;
लेकिन तुझको श्रांत-क्लांत--
माता का ही आँचल भाता ।
रहा विहँसता नभ में चन्दा
और यहाँ तेरी मुख-मुद्रा--
देख हमारे हृदय-कमल में
आनंद अमित, उल्लास समाया !
तुम आए, नवजीवन आया !!

रात-रात भर नानी करतीं
बहुत-बहुत-सा प्यार,
दूरभाष पर मौसी देतीं
मीठी-सी पुचकार !
मौसीजी ने छूकर तेरे
कोमल-कोमल गाल,
आनंदित हो चूम लिया है
तेरा उन्नत भाल !
चित्र तुम्हारे ले चाचाजी
चले गए निज ग्राम,
जहाँ तुम्हारे दादी-दादा
करते हैं विश्राम !
उसी गॉंव में रहती जो--
बहुत वृद्ध परदादी,
पाकर यह संवाद आज,
उनका भी हृदय जुड़ाया !
तुम आए, नवजीवन आया !!

मेरी बेटी, तेरी माता ने
सहकर कष्ट अनेक,
तुझको जीवन दिया, रहा फिर
उसे न कोई क्लेश ।
पिता रहे पल-पल के संगी
तन-मन-प्राण लगाया ।
पाकर हुए निहाल तुझे
अन्तर-मन उनका भी हर्षाया ।

दोनों परिवारों पर यह तो--
प्रभु की कृपा हुई है ।
परनाना और परदादा की
आत्मा तृप्त हुई है !
पूर्वज दें आशीष, सभी दें--
तुझको स्नेहिल छाया !
बुद्धि और बल से निखरे फिर
तेरी उज्ज्वल काया !!

तू प्रकाश की प्रथम किरण है,
नव-विहान बन आया !
तुम आए, नवजीवन आया !! ...

[मित्रों ! आज दीपावली है। लेकिन मेरा मन एक वर्ष पूर्व व्यतीत हुई दीपावली की स्मृतियों में खोया-खोया है। पिछली दीपावली (२८-१०-२००८) की शाम ३-४० पर मेरी ज्येष्ठ कन्या ने पुत्र को जन्म दिया था और अचानक मैंने जाना था कि मैं 'नानाजी' बन गया हूँ। अपने दौहित्र को मैंने 'ऋतज' नाम दिया है। 'ऋतज' के जन्म पर मैंने एक (निजी) कविता लिखी थी। आज उसी कविता को आपके सम्मुख रख रहा हूँ, इस आशा से कि आप भी एक वर्ष पहले की मेरी मनस्थितियों और भावनाओं के साझीदार बनकर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। आग्रह है, इस कविता में काव्य-तत्त्व नहीं, केवल भाव देखने की कृपा करें। 'ऋतज' आज एक वर्ष के हो गए हैं, उन्हें पहले जन्मदिन पर आशीष और आप सबों को दीपावली की अशेष शुभकामनाएं ! --आ०]

अप्रतिम अज्ञेय

सहसा निशा हुई...
[दसवीं समापन किस्त]

अज्ञेयजी ने 'हरी घास पर क्षण भर' बैठकर कोमल टहनी से चिडिया के उड़ जाने के बाद उसका थरथराना देखा था, उन्होंने सागर की अनेक मुद्राएँ देखीं थीं और 'एक बूँद के सहसा उछल जाने को' दुलारा था। उन्होंने 'साँप से सभ्य न बन पाने की' शिकायत की थी, उन्होंने 'दोलती कलगी छरहरी बाजरे की' को प्रीति से निहारा था और 'नीरव संकल्प' के साथ उसे शब्दों के सांचे में ढालकर एक अमर चित्र खींच दिया था। उन्होंने 'तनी हुई रस्सी पर ज़िन्दगी को एक छोर-से-दूसरे छोर तक नाचते' देखा था और रस्सी में जरा-सी ढील होने और संतुलन बिगाड़ने की बेफिक्र प्रतीक्षा की थी। ... पर्वत उन्हें पुकारते थे, नदियाँ उन्हें बुलाती थीं, सागर उन्हें आकर्षित करता था--ये सब उनकी काव्य-सर्जना के उपादान बनते हैं। उनका काव्य-फलक इतना विस्तृत और विराट है कि उसका कोई ओर-छोर नहीं मिलता। यह ऐसा यशःशरीर है, जिसका कभी क्षय नहीं होता।
कैवेन्तर्स ईस्ट (न० दि०) के विशाल प्रांगण में एक शानदार कोठी थी, उसी में अज्ञेयजी निवास करने लगे थे। १९८७ में उसी अहाते के एक बड़े वृक्ष की पुख्ता दरख्त पर उन्होंने काष्ठ का खूबसूरत कक्ष बनवाया था। उनका इरादा उसमे दिन का कुछ वक्त बिताने का था। यथासमय इसकी सूचना भी उन्होंने पिताजी को भेजी थी; लेकिन जिस दिन उन्हें काष्ठ-कक्ष में प्रवेश करना था, उसके एक या दो दिन पहले ही काल के क्रूर हाथों ने उन्हें वृक्ष की काष्ठ-कोठारी में जाने न दिया। उस दिन पिताजी अपने हिंदीसेवी मित्र गंगा शरण सिंह के साथ विद्यापीठ की एक सभा का सभापतित्व करने देवघर गए थे। उन्हें वहीँ और मुझे पटना में आकाशवाणी से यह दुखद समाचार मिला कि अचानक हृदयाघात से हिन्दी के शीर्षस्थ कवि-कथाकार अज्ञेय नहीं रहे। उस दिन पिताजी की (और मेरी भी) पीडा पराकाष्ठा पर पहुँची थी। देवघर में पिताजी और पटना में हम सभी शोक-संतप्त तथा मनःपीड़ा में पडे रहे। हिन्दी-जगत में जैसा सहसा निशा की घोर कालिमा व्याप्त हो गई थी। हिन्दी के दिवंगत साहित्यकारों की पंक्ति में अज्ञेयजी भी सम्मिलित हो गए थे। दिन-भर और देर रात तक उन्हीं की काव्य-पंक्तियों का स्मरण होता रहा :

''यह दीप अकेला गर्व भरा है,
प्रीति भरा, मदमाता--
इसको भी पंक्ति में दे दो !''
[समाप्त]

अप्रतिम अज्ञेय

आ पहुँची 'स्मृतिगंधा '...
[नौवीं किस्त]

दिल्ली की तेज़-रफ़्तार और तीखी धूप-भरी ज़िन्दगी से निकलकर हम सपरिवार पटना लौट आए थे। संभवतः १९८६ के अन्तिम दिनों की बात है। एक दिन पिताजी के नाम दिल्ली से एक रजिस्टर्ड पैकेट पटना आया। उसमें अज्ञेयजी की सद्यःप्रकाशित पुस्तक 'स्मृतिगंधा' की एक प्रति थी। पुस्तक के पहले सादे पृष्ठ पर अज्ञेयजी ने कलम से लिखा था--''त्वदीयं वस्तु गोविन्द--अज्ञेय।' और दूसरे पृष्ठ पर मुद्रित पंक्ति थी--''परम प्रिय मित्र पं० प्रफुल्ल चंद्र ओझा 'मुक्त' को, जो जब-तब मुझे भी मेरी याद दिलाते रहे हैं--अज्ञेय।'' अपने संस्मरणों का यह संग्रह अज्ञेयजी ने पिताजी को ही समर्पित किया था। अज्ञेयजी की हस्ताक्षरित प्रति होने के कारण वह मेरे लिए बड़े महत्व की थी और मैं उसे सहेजकर रखना चाहता था। लेकिन स्वयं पढने के लिए पिताजी ने उसे अपने पास रख लिया। प्रायः पन्द्रह दिनों के बाद पूछने पर पिताजी ने कहा था--''भई, रामायण के काम में लगा रहा, अभी पूरी पढ़ नहीं सका हूँ। ख़त्म कर लूँ, तो ले लेना।'' लेकिन कुछ ही दिनों बाद मेरे फिर पूछने और खोजने पर वह पुस्तक पिताजी के सिरहाने और पूरे घर में कहीं नहीं मिली। उसे कोई पुस्तकप्रेमी बिना बताये ही पिताजी के बिस्तर से उठा ले गए थे। मुझे बड़ा क्षोभ हुआ और मैं पिताजी पर दबाव डालने लगा कि वह अज्ञेयजी को लिखें कि वही पंक्ति फिर से लिखकर 'स्मृतिगंधा' की एक प्रति और भेज दें। मेरे हठ से विवश होकर पिताजी ने इसी आशय का एक पत्र अज्ञेयजी को लिख भेजा। कई दिन बीत गए, अज्ञेयजी का कोई उत्तर न आया, न प्रति आयी। तभी एक दिन ज्ञात हुआ कि पटना के अमुक प्रकाशक दिल्ली जानेवाले हैं। मैंने यह बात पिताजी को बतायी और बार-बार उनसे आग्रह करने लगा कि अज्ञेयजी को एक और पत्र लिख दें कि उन्हीं प्रकाशक महोदय के हाथो 'स्मृतिगंधा' कि एक प्रति उपर्युक्त वाक्य लिखकर भेज दें। पिताजी को एक और ख़त लिखना प्रीतिकर तो नहीं लग रहा था; लेकिन मेरी जिद के कारण इसी आशय का एक पत्र उन्होंने पुनः लिखा। सप्ताह भर बाद प्रकाशक महोदय पटना लौट आए, पुस्तक की प्रति नहीं आयी। मैं दुखी हुआ और सोचने लगा कि अब क्या करूँ !
कुछ ही दिन बीते होंगे कि अचानक डाक से स्मृतिगंधा' की प्रति आ पहुँची। साथ में अज्ञेयजी का पत्र भी था। उन्होंने नमस्कारोपरांत लिखा था--''आपका आदेश था कि (अमुक ) ...सज्जन के हाथो 'स्मृतिगंधा' की प्रति भिजवा दूँ। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसे बाघ के हाथो किसी को मांस की थाली पहुंचाना चाहना हो। ठीक-ठीक स्मरण नहीं कि पिछली प्रति में क्या लिखा था, अब जो लिखा है, सम्भव है, वही लिखा हो।'' अज्ञेयजी ने ''त्वदीयं वस्तु गोविन्द...' वाली पूरी पंक्ति लिखकर हस्ताक्षर किया था। लंबे समय तक वह प्रति मेरे पास सुरक्षित रही; लेकिन १९९५ में पिताजी के निधन के बाद घर में जो उथल-पुथल हुई, उसमे वह प्रति भी किसी बाघ के हाथो लग ही गई। पुस्तकप्रेमियों की यह पीड़ा अज्ञेयजी खूब पहचानते थे। ...
[शेषांश अगली किस्त में]

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

बन न सका सम्बन्ध-सेतु...
[आठवीं किस्त]

दिल्ली-प्रवास के दौरान ही मेरे ससुराल-पक्ष के लोगों का परिचय अज्ञेयजी और इलाजी से हुआ था। मेरे श्वसुर पूज्य श्री आर० आर० अवस्थी की प्रथम कन्या मेरी भार्या बनीं। वह कभी अपने पिता के साथ, कभी अपनी बहनों के साथ मायके जाया करती थीं। जैसा पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ, म० प्र० की यात्रा के लिए रात्रि-विश्राम अज्ञेयजी के घर होता था और सुबह-सबेरे हज़रात निजामुद्दीन स्टेशन पर मैं अपनी गृह-लक्ष्मी को उनके परिवार-जनों के साथ झाँसी केलिए विदा कर आता; इलाजी-अज्ञेयजी अनिवार्य रूप से साथ होते । 'देखकर छोड़ देने' के (सी-ऑफ़ करने) ऐसे ही एक मौके पर हमारे साथ सामन कुछ ज्यादा था, अज्ञेयजी ने एक बैग स्वयं उठा लिया। मेरी श्रीमतीजी और 'क़ानून की नज़र में मेरी बहन' अर्चनाजी परेशान होने होने लगीं और कहने लगीं--'आप बैग छोड़ दें, हम कुली ले लेते हैं।' अज्ञेयजी ने शांत स्वर में कहा--'कुली भी इसे उठाएगा ही। फिर ये तो भारी है नहीं।' हम निरुत्तर हो गए।...
मेरे श्वसुरजी इंटर कॉलेज के प्राचार्य थे। कार्यालयीय व्यस्तताओं के कारण वह प्रायः अपनी द्वितीय कन्या अर्चना अवस्थी अथवा तृतीय कन्या वंदना अवस्थी (अब 'दुबे' भी) को दिल्ली भेज देते, मेरी श्रीमतीजी को विदा कराने के लिए। इलाजी और अज्ञेयजी उन्हें भी यथेष्ट स्नेह देते और रात का भोजन आग्रहपूर्वक कराते। इलाजी एक-से-एक व्यंजन बनवातीं और उन्हें बनाने का विधि-विधान मेरी पत्नी को समझातीं। एक रात उन्होंने एक संपूर्ण फूलगोभी छुरी-कांटे के साथ टेबल पर रखी। मेरी श्रीमतीजी ने आश्चर्य से पूछा--'यह पूरी फूलगोभी क्या बनी हुई सब्जी है?' इलाजी ने बताया की इसे किस तरह वाष्प से पकाया गया है और इसे स्वादिष्ट बनाने के लिए क्या-कुछ ऊपर से डाला-छिड़का गया है। इस वार्तालाप में अज्ञेयजी की टिप्पणियां अलग महत्त्व की थीं। छुरी से काटकर सबों ने उसी गोभी की सब्जी के साथ रोटियाँ खाई थीं । उस सब्जी के स्वाद के क्या कहने ! अज्ञेयजी की वह पसंद की सब्जी थी और उसे बनाने का विधि-विधान भी उन्हीं का निर्धारित किया हुआ था।
कुछ मुलाकातों में ही अर्चनाजी ने अज्ञेयजी-इलाजी की प्रीती और स्नेह प्राप्त कर लिया था। तब अर्चनाजी ने स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की थी और अनुबंध पर आकाशवाणी, छतरपुर (म० प्र०) से सम्बद्ध थीं। एक दिन अकस्मात, अज्ञेयजी ने इलाजी की उपस्थिति में पिताजी के सम्मुख अर्चना के विवाह के लिए अपने भतीजे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव से सभी प्रसन्न-मन हुए। अज्ञेयजी के भ्रात्रिज गोरे-चिट्टे सुदर्शन युवा थे। पिताजी ने अवस्थीजी को इस प्रस्ताव की सूचना दी और लिखा कि बिटिया के साथ शीघ्र ही दिल्ली आ जायें। अवस्थीजी अर्चनाजी के साथ दिल्ली आए। लड़की दिखाने और लड़के को देखने तथा वार्ताओं का दौर चला। फिर अवस्थीजी घर-परिवार की सहमति की बात कहकर अर्चनाजी के साथ वापस लौट गए। ... अपरिहार्य कारणों से वह सम्बन्ध हो न सका। पिताजी को इसका थोड़ा मलाल ज़रूर रहा, लेकिन अज्ञेयजी से हमारे संबंधों में कोई अन्तर न पड़ा। सच है, दैव-योग न हो तो सम्बन्ध नहीं हो पाते ! वह सम्बन्ध- सेतु बनते-बनते रह गया... हम ने यही मान कर संतोष कर लिया कि यह होना नहीं था !...
[क्रमशः ]

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

एक अम्बेसेडर रुकी, उससे उतरे अज्ञेय
[सातवीं किस्त]

राजकमल से अज्ञेयजी के सम्बन्ध सुमधुर नहीं थे। उन्होंने अपनी पुस्तकें भी वहां से हटा ली थीं। उनका वहां आना-जाना भी बहुत दिनों . से नहीं हुआ था। राजकमल प्रकाशन का मुख्य द्वार शीशे का था और प्रबंध निदेशिका का कक्ष भी लकडी की सुंदर नक्काशीदार जाली का था, जिससे पूरा दफ्तर और दरियागंज की मुख्य सड़क दीखती थी। शीलाजी के कक्ष के ठीक बाहर एक बड़ी-सी मेज़ पर मैं काम करता था। दफ्तर के अधिकांश कर्मचारी इसी बड़े-से हॉल में बैठते थे। एक दिन मैं अपनी सीट पर बैठा किसी पाण्डुलिपि से आँखें फोड़ रहा था कि कानों में बहुत धीमी आवाज़ पड़ी--"अज्ञेयजी हैं शायद !" मैंने तत्काल सड़क कीओर देखा। मेरी दृष्टि .एक सफ़ेद अम्बेसेडर कार पर पड़ी, जो राजकमल के द्वार पर आ खड़ी हुई थी। में उधर से दृष्टि हटा पाटा, इससे पहले देखा--कार का पिछला दरवाज़ा खुला और उससे उतरे अज्ञेय ! वह संयत भाव से आगे बढे। उन्होंने शीशे का द्वार खोला और राजकमल में प्रविष्ट हुए। मैंने सोचा, वह शीलाजी से मिलने आए हैं; लेकिन मेरे सहकर्मियों के चहरे पर विस्मय के भाव थे। मैं कुछ समझ सकूँ या संभल पाऊं अथवा अपनी कुर्सी से उठकर अज्ञेयजी की अगवानी के लिए आगे बढ़ पाऊं, वह तो ठीक मेरी मेज़ के सामने आ खड़े हुए। मैं घबराकर कुर्सी से उठा और आगे बढ़कर उनके चरण छुए। वहीँ खड़े-खड़े उन्होंने मुझसे कहा--"मुझे आपका दो मिनट का वक्त चाहिए। क्या आप व्यस्त हैं ?" मेरे इनकार करने पर उन्होंने फिर पूछा-"आप मेरी कार तक साथ चल सकेंगे ?" मैंने हामी भरी और उनके साथ हो लिया। राजकमल में बड़े-से हॉल में मैंने कनखियों से देखा--पूरा दफ्तर स्तब्ध खड़ा था और आश्चर्य से अज्ञेयजी को और मुझे देख रहा था। में एक पुलकित भाव से उनके साथ राजकमल से बाहर निकला। कार के पास पहुंचकर अज्ञेयजी ने प्रूफ़ और रचनाओ का एक पुलिंदा निकाला और मेरी ओर बढाते हुए बोले--"इसे मुक्तजी को दे दीजियेगा। मैं इधर से गुजर रहा था, इसलिए सोचा आपको देता चलूँ; अन्यथा शाम को आपको बुलाना पड़ता और घर पहुँचने में आपको आज भी विलंब हो जाता।"
मुझे कागजों का पुलिंदा देकर अज्ञेयजी तो चले गए; लेकिन में उनकी सज्जनता,सद्भाव और महत्ता को नतग्रीव हो नमन करता रहा। ठीकरे को भी महत्व देना कोई अज्ञेयजी से सीखे। ...

१९८२ में मैंने नौकरी-जैसे प्रतिभानाशी व्यापार से सदा के लिए छुट्टी पाई और पटना चला आया पिताजी तो एक वर्ष पहले ही पटना आ गए थे। अब दूरियाँ बढ़ गई थीं और अज्ञेयजी से प्रायः प्रतिदिन का संपर्क छूट गया था; लेकिन बाद के वर्षों में भी वह जब कभी पटना आए, पिताजी से मिलने मेरे घर पधारे । 'वत्सल निधि' की ओर से आयोजित 'जानकी जीवन यात्रा ' के दौरान भी वह इलाजी के साथ पटना आए थे और दिन भर पिताजी के साथ रहे थे।

लेकिन पटना लौट आने के बाद की कथा शुरू करूँ , उसके पहले एक अवांतर कथा भी कह लूँ !...

l[क्रमशः]

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

हिन्दी साहित्य सम्मलेन के मंच से...
[छठी किस्त]

अज्ञेयजी को मैंने 'अप्रतिम' कहा है, अकारण नहीं कहा। अज्ञेय निःसंदेह अप्रतिम थे। उनके जैसी मैंने दूसरी सख्सीयत नहीं देखी । मैंने कभी उन्हें क्रोध करते, झुंझलाते यां आवेश में नहीं देखा। अप्रिय प्रसंगों को भी वह अपनी चुप्पी, गंभीरता और अपनी अप्रतिम तेजस्विता से परे धकेल देते थे। उनका सामान्य संभाषण भी सधा हुआ और आरोह-अवरोह-विहीन, किंतु यथातथ्य होता था। इच्छा होती थी कि उनका बोलना और हमारा सुनना कभी ख़त्म न हो; लेकिन सच है, वह बहुत कम बोलते थे। अनावश्यक बोलना उन्हें प्रिय नहीं था। राजेंद्र प्रसाद व्याख्यानमाला के तीन सत्रों में मैंने उनका व्याख्यान सुना है--वह भाषण नहीं करते थे, सारगर्भित व्याख्यान देते थे; शिष्ट शब्दों में तथ्यों को ऐसा सजाकर श्रोताओं के सम्मुख रखते थे कि विषय का पुखानुपुंख ज्ञान हो जाता था।
एक बार वह अच्छे मूड में दिखे तो मैंने उनसे कहा--"आपकी अमुक-अमुक कवितायें मैंने पढ़ी हैं। वह इतनी अच्छी हैं कि मुझे लगता है कि मैं जीवन भर अपनी कलम घसीटता रहूँ तो वृद्धावस्था तक ऐसी एक कविता भी नहीं लिख सकूँगा।" वह दूसरों को बोलने का पूरा मौका देते (जिन्हें देना चाहते थे) थे; लेकिन जब उनके उत्तर की बारी आती थी तो एक वाक्य की अर्धाली भी मुश्किल से कहते थे। उन्होंने मेरी बात चुपचाप सुन ली, मीठा मुस्कुराए, फिर बोले--"ऐसा क्यों सोचते हैं आप...?" अब आगे कहने को क्या था ??
अज्ञेयजी निरभिमानी व्यक्ति थे, लेकिन स्वाभिमान उनमे प्रचुर मात्रा में था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक वाक़या याद आता है। सम्मेलन के महामंत्री प्रख्यात साहित्यकार और पिताजी के मित्र थे। उन्होंने सम्मान-समारोह का आयोजन किया था। अन्य साहित्यकारों के साथ वह अज्ञेयजी को भी सम्मानित करना चाहते थे। उनके सम्मुख संकट यह था कि अज्ञेयजी की ऐसे आयोजनों में बिकुल रूचि नहीं थी। अज्ञेयजी हिन्दी के इन अखाडों से दूर ही रहते थे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दी की दूकानें सजाने से हिन्दी का भला नहीं होनेवाला है; हिन्दी में इमानदारी से निष्ठापूर्वक काम करने कि ज़रूरत है। सबको मालूम था कि अज्ञेयजी न तो ऐसे समारोहों में शिरकत करते हैं और न ऐसे आयोजनों को तरजीह देते हैं। बहरहाल, महामंत्री महोदय पिताजी के पास आए। वह जानते थे कि पिताजी और अज्ञेयजी अत्यन्त घनिष्ठ मित्र हैं और अगर पिताजी जोर डालेंगे तो उनकी बात अज्ञेयजी उठा न सकेंगे। लम्बी भूमिका के साथ मंत्री महोदय की बात पिताजी ने सुनी, फिर कहा--"आपका निवेदन मैं अज्ञेयजी तक पहुँचा दूंगा। स्वीकृति-अस्वीकृति तो उन्ही पर निर्भर है। जैसा वह कहेंगे, फ़ोन पर आपको सूचित करूँगा।"
अज्ञेयजी से अगली मुलाक़ात में पिताजी ने सारी बात उनके सामने रखी। अज्ञेयजी मुस्कुराये, फिर गंभीर होकर बोले--"आपके द्बारा निमंत्रण भेजकर उन्होंने मेरी मुश्किल बढ़ा दी है। सम्मेलन वाले मेरा सम्मान करना चाहते हैं, उनकी मर्जी; लेकिन आप उनसे साफ-साफ़ कह दें कि मैं सम्मान के लिए नहीं, आपके दिए आमंत्रण की वज़ह से वहां जाऊँगा। अग्रिम पंक्ति में नहीं, जहाँ इच्छा होगी, बैठूँगा और मंच से तो हरगिज़ कुछ बोलूँगा नहीं। यदि उन्हें मेरी शर्त मंजूर हो तो कहें, मैं आपके साथ हाज़िर हो जाऊँगा।"
पिताजी ने मंत्री महोदय को फ़ोन पर अज्ञेयजी की शर्तें और सारी बातें विस्तार से बता दीं। उन्हें शर्तें मंज़ूर थीं। यथासमय वह समारोह हुआ। अज्ञेयजी पिताजी के साथ वहां पहुंचे और विशाल हॉल में पिछली पंक्ति में कहीं बैठ गए। वह एक बड़ा और भव्य आयोजन था, जिसमे हिन्दी के कई मनीषियों को सम्मानित किया जाना था। सबों का तो स्मरण नहीं रहा, लेकिन अज्ञेयजी के आलावा पंडित किशोरीदास वाजपेयीजी भी समारोह में सम्मानित होने के लिए उपस्थित थे। कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। हिन्दी-मनीषियों के सम्मान के बाद अचानक उद्घोषक ने मंच से अज्ञेयजी को दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया। इस अप्रत्याशित पुकार से अज्ञेयजी अचकचाए और पिताजी की ओर वक्र दृष्टि डालते हुए और धीर-गंभीर पदाघात करते हुए मंच पर पहुंचे। माईक पर उन्होंने जो पहला वाक्य कहा, वहीँ से श्रोताओं के आनंद का ठिकाना न रहा। उनका पहला वाक्य था--"हिन्दी साहित्य सम्मेलन से मेरा उतना ही नाता है, जितना हिन्दी साहित्य सम्मेलन का हिन्दी से। ...." फिर तो अजेयजी ने ऐसी फुलझडियाँ छोडीं, ऐसे कटाक्ष किए और ऐसा तीखा व्यंग्य किया कि सम्पूर्ण दर्शक समूह ठहाके लगाता और तालियाँ पीटता रहा। आयोजकों का तो बुरा हाल था, उन्हें काटो तो खून नहीं।
पिताजी जब अज्ञेयजी के साथ कार से लौट रहे थे तो पिताजी ने कहा था--"मुझे मालूम नहीं था कि वह शर्तें मानकर भी ऐसा व्यवहार करेंगे।" अज्ञेयजी ने हमेशा की तरह संक्षिप्त उत्तर दिया--"लेकिन मुझे मालूम था !" पिताजी हंस पड़े और बोले--"लेकिन आपने भी आज उनकी खूब खबर ली।"
[क्रमशः]

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

वधू-स्वागत की अनूठी शाम
[पांचवी किस्त]

राजकमल की सेवा के दौरान १९७८ में मेरा विवाह हुआ था। वधू-स्वागत के दिन शाम को मेरे मॉडल टाऊन स्थित आवास की छत पर कनात और शामियाना लगा था। वधू-स्वागत का वह समारोह इसलिए भी अनूठा था कि उसमे भारत-प्रसिद्ध साहित्यकार पधारे थे--सर्वश्री वियोगी हरि, जैनेन्द्र, त्रिलोचनं शास्त्री, शमशेर काहादुर सिंह, आनंद विद्यालंकार, अजित कुमार, शीला संधू, विष्णु प्रभाकर, मार्तंड उपाध्याय, गिरिजा कुमार माथुर और अज्ञेयजी। उस अवसर का अज्ञेयजी का चित्र मेरे संग्रह में आज भी सुरक्षित है। जब मैंने अपनी नवोढा पत्नी के साथ अज्ञेयजी के चरण छुए, उन्होंने धीरे-से कहा--"मैं कुछ निश्चित नहीं कर सका कि आपके लिए क्या ले आऊं। ठीक चलते वक्त यही आपके लिए उठा लाया हूँ।" यह कहकर एक पैकेट मेरी ओर बढ़ा दिया। समारोह के बाद मैंने उस पैकेट को खोलकर देखा, उसमे उनकी कविताओं का संग्रह था--'चुनी हुई कवितायें'।
वधू-स्वागत कि वह शाम बूंद-बूंदकर रात में ढलने लगी और मुझे ऐसा लगता रहा कि हिन्दी साहित्याकाश के उज्जवल सितारों के साथ मैं अपनी नई-नई जीवनसंगिनी के पार्श्व में खड़ा मुग्ध भाव से विचार रहा हूँ। सच कहूँ, वह शाम जीवन की अविस्मरणीय शाम थी--अविश्वसनीय शाम !
मेरी पत्नी बुंदेलखंड की हैं--झाँसी से १०० किलोमीटर की दूरी पर नौगाँव छावनी (म.प्र.) की। अपने माता-पिता के यहाँ जाने के लिए उन्हें हमेशा निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से सुबह ५.३० पर झाँसी के लिए ट्रेन लेनी पड़ती थी। मॉडल टाऊन से निजामुद्दीन की दूरी इतनी ज्यादा थी कि ट्रेन पकड़ने के लिए सुबह ४ बजे ही घर से निकलना पड़ता था। कई बार ऐसा भी हुआ कि अल्लसुबह कोई सवारी न मिलने के कारण निजामुद्दीन पहुँचने में विलंब हो गया और ट्रेन नहीं, हम छूट गए। एक बार इस असुविधा की चर्चा पिताजी ने अज्ञेयजी से कि उन्होंने पिताजी से आग्रहपूर्वक कहा था--"आप आनंदजी से कहें कि यात्रा की पूर्व-संध्या में वह मेरे घर आ जाएँ, यहाँ से निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन तो पैदल का रास्ता है।" उनकी इस सलाह पर हम जो एक बार अज्ञेयजी के हौज़-ख़ास वाले निवास पर गए तो प्रायः डेढ़-दो वर्षों तक यही क्रम चलता रहा। देर शाम तक अज्ञेयजी के घर पहुंचना, वहीँ रात्रि-विश्राम करके सुबह-सुबह झाँसी के लिए प्रस्थान करना। हर बार अज्ञेयजी हमें छोड़ने स्टेशन तक कार से चले आते, इलाजी भी साथ होतीं। सुरु-शुरू में एक-दो बार यह कहने पर कि 'आप कष्ट क्यों करते हैं, हम चले जायेंगे', वह सहजता से कहते--" चलिए, मैं भी चलता हूँ। मेरी सुबह की सैर हो जायेगी।" उनके इस उत्तर से हम निरुपाय हो जाते।
अज्ञेयजी जिनके लिए सहज थे, बहुत सहज थे। जिनके लिए दुरूह थे, बहुत दुरूह थे। जिनके लिए अज्ञेयजी सहज थे, उनका चयन वह बड़ी सावधानी से करते थे। ऐसे सहज संबंधों वाले लोगों की संख्या अज्ञेयजी के दीर्घ जीवन में कम ही थी। पिताजी उन बहुत थोड़े लोगों में एक थे, यह मैं अपने अनुभव से जानता हूँ। उनकी जो प्रीती और स्नेह मुझे प्राप्त था, वह तो पिताजी की अनन्य मित्रता का प्रतिफल था; लेकिन प्रायः ६-७ वर्षों तक उनके बहुत निकट रहते-रहते और मेरी परख करते-करते अज्ञेयजी ने मुझे भी पूरी हार्दिकता से स्वीकार कर लिया था; इतना कहने में मुझे संकोच नहीं है। उनकी सहज प्रीती भुलाये नहीं भूलती। ...
[क्रमशः]

अप्रतिम अज्ञेय

'कितनी नावों में कितनी बार' की वह दुर्लभ प्रति !
[चौथी किस्त]

कालांतर में अज्ञेयजी दैनिक 'नवभारत टाइम्स', नई दिल्ली के प्रधान संपादक बने और उन्हीं के आग्रह पर सप्ताह में दो काॅलम उस पत्र के लिए पिताजी लिखने लगे। लिहाजा, सप्ताह में दो दिन न. भा. टा. के दफ़्तर मेरा जाना तय हो गया था। पिताजी का आलेख पहुँचाने के अलावा 'नया प्रतीक' के काम से भी वहाँ जाना होता था। उन दिनों मैं राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली के संपादकीय विभाग से सम्बद्ध था। कभी-कभी अपने दफ़्तर से फ़ोन करके अज्ञेयजी मुझे राजकमल से बुला लेते और आवश्यक निर्देश देते हुए 'प्रतीक' की सामग्री, प्रूफ़ आदि का पैकेट पिताजी को देने के लिए दे देते।
अब सप्ताह में दे-तीन बार अज्ञेयजी से मेरा मिलना होने लगा। अज्ञेयजी स्वभावतः अल्पभाषी थे और मैं अतिभाषी। वह मेरे बहुत सारे प्रश्नों का अत्यन्त संक्षिप्त, किंतु सटीक उत्तर छोटे-छोटे वाक्यों में देते। जब भी मैं उनके दफ़्तर में प्रवेश करता और उनके चरणों के स्पर्श को आगे बढ़ता, वह सावधान और संकुचित हो उठते तथा 'बस-बस' कहते हुए नमस्कार की मुद्रा में खड़े हो जाते थे। एक दिन जब मैं उनके पास पहुँचा, तो मैंने देखा कि वह बड़े मनोयोग से अपने चश्मे के शीशे के एक भाग को बहुत छोटी-सी रेती से घिस रहे हैं। मैंने पूछा--"आप यह क्या कर रहे हैं ?" उन्होंने कहा--"आज सुबह मुँह धोने के लिए बेसिन पर गया तो ध्यान ही न रहा कि चश्मा उतारा नहीं है। जल का छींटा मुँह पर मारा ही था कि चश्मा नीचे गिर पड़ा। गनीमत हुई वह बसिन में ही गिरा, नीचे नहीं; फिर भी इसके एक कोने में ख़राश पड़ गई है। उसे ही रेती से घिसकर ठीक करने की चेष्टा कर रहा हूँ।" अज्ञेयजी के पास छोटे-बड़े औजारों का अनूठा संग्रह था। वह कार, कलम, घड़ी, कैमरा, चश्मा आदि ज़रूरत की कई चीजें स्वयं सुधार लेते थे और न जाने किस कौशल से इसके लिए समय भी निकाल लेते थे।
अज्ञेयजी को उनकी कविता-पुस्तक 'कितनी नावों में कितनी बार' पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इस पुरस्कार की घोषणा के बाद जब मैं उनसे पहली बार मिला, मैंने पुस्तक की एक हस्ताक्षरित प्रति देने का अनुरोध किया। उन्होंने बताया कि पुस्तक बहुत दिनों से 'आउट ऑफ़ प्रिंट' है; फिर भी वह अपनी लाइब्रेरी में देखेंगे और यदि एक प्रति भी मिल गई, तो मुझे अवश्य देंगे। उसके बाद करीब १५-२० दिन गुज़र गए, इस अवधि में भी उनसे कई बार मिलना हुआ, लेकिन मैंने संकोचवश पुस्तक की कोई चर्चा नहीं की। मेरे मन में उथल-पुथल मची रही और मैं सोचता ही रहा कि देखूँ, अज्ञेयजी अपना वादा कब पूरा करते है ! लेकिन एक सप्ताह और गुज़र गया और उन्होंने पुस्तक का कोई ज़िक्र न किया। मुझे विश्वास होने लगा कि उन्हें मेरे आग्रह का पूरी तरह विस्मरण हो गया है। अगली मुलाक़ात में मैंने पूछा--"मेरी पुस्तक का क्या हुआ?" वह जैसे चौंक पड़े हों, बोले--"लीजिये, मैं तो बार-बार भूलता ही रहा और आपने भी याद नहीं दिलाई। पुस्तक की प्रति तो मैं दूसरे दिन ही ले आया था। आप आज भी स्मरण न दिलाते तो पुस्तक यहीं पड़ी रहती!" इतना कहकर उन्होंने दराज़ से 'कितनी नावों में कितनी बार' की एक पुरानी प्रति निकाली और मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने उसे उलट-पुलटकर देखने के बाद कहा--"इस पर कुछ लिखकर हस्ताक्षर कर दीजिये।" उन्होंने पूछा--"क्या लिखूँ?" मैंने कहा--"आशीर्वाद!" पुस्तक की जिल्द के बादवाले पृष्ठ पर उन्होंने लिखा--"प्रिय आनंदवर्धन को--सप्रीत, अज्ञेय।" अपने हस्ताक्षर के नीचे तिथि लिखते ही वह ठहर गए और मुझसे पूछा--"आप कहें तो यहाँ वह तिथि डाल दूँ, जिस तिथि को पुरस्कार की घोषणा हुई थी।" मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और उन्होंने तिथि में सुधार कर पुरस्कार की घोषणावाली तिथि लिख दी और प्रति मेरी ओर बढ़ा दी। अज्ञेयजी की वह अनमोल भेंट मेरे संग्रह की शोभा आज भी बढ़ा रही है।
बहरहाल, अज्ञेयजी के दफ़्तर मेरा आवागमन इतना बढ़ गया था कि उनके निजी सचिव से लेकर दफ़्तर का पूरा स्टाफ मुझे पहचानने लगा था। उनके चेम्बर के ठीक सामने एक विशाल हॉल में सारा दफ़्तर कुर्सी-टेबुलों पर विराजमान रहता था। अज्ञेयजी से मिलकर लौटते हुए हमेशा एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, जिससे मुझे बाहुत संकोच होता था। मैं जैसे ही उनके चरण छूता, वह उठकर खड़े हो जाते और मुझसे आगे बढ़कर अपने चेम्बर का द्वार खोल देते और मुझसे कहते--"चलें!" मेरे बार-बार कहने पर भी वह दफ़्तर के बीच से होते हुए नीचे ले जानेवाली सीढ़ियों तक मुझे छोड़ने चले आते; जैसे मैं कोई किशोर बालक हूँ और वह सीढ़ियों तक न आयेंगे तो मैं राह भटक जाऊँगा ! उनकी ऐसी प्रीती, ऐसा स्नेह और सौजन्य देख मैं मन-ही-मन पुलकित होता, लेकिन साथ ही संकुचित भी हो उठता; क्योंकि अज्ञेयजी को अपने चेम्बर से अचानक बाहर निकल आया देख पूरा दफ़्तर उठकर खड़ा हो जाता था। अज्ञेयजी निर्विकार भाव से मुझसे बातें करते सीढ़ियों तक चले आते। मैं वहीं उन्हें पुनः प्रणाम करता और सीढ़ियाँ उतर जाता; लेकिन होता हर बार यही था।
[क्रमशः]

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

वह निश्छल-उन्मुक्त हँसी...
[तीसरी किस्त]

सदा धीर-गंभीर और सजग रहनेवाले महाकवि अज्ञेय के सम्बन्ध में सामान्यतया यह धारणा बद्धमूल है कि वह अत्यधिक आत्मगोपन की प्रवृत्ति के कारण सहज नहीं थे। विशाल पर्वत की तरह अटल रहनेवाली उनकी गंभीरता किसी को भी निकट आने से रोकती थी। अज्ञेयजी के शिष्यों ने ही उन्हें, बाद के वर्षों में, 'कई तहों में लिपटा हुआ व्यक्तित्व' तक कह दिया था। लेकिन इस धारणा के विपरीत मैंने उन्हें बहुत सरल, सहज और उन्मुक्त हँसी हँसते हुए देखा है। अज्ञेयजी के सम्बन्ध में ऐसी धारणाओं को भ्रांत सिद्ध करने के लिए मेरे पास एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं। उनमे से एक का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा।
१९६८ में मेरी माता के निधन के बाद मेरी बड़ी बहन ने घर की रसोई संभाली थी। १९७३ में बड़ी बहन के विवाह के बाद यह दायित्व मेरे अनुज के कन्धों पर आ पड़ा। वर्षों तक रंधन-कर्म करते हुए वह सिद्ध पाक-शास्त्री बन गए थे। अज्ञेयजी के यहाँ भोजन करते हुए पिताजी अक्सर मुग्ध-भाव से मेरे अनुज की पाक-कला की प्रशंसा किया करते थे। एक दिन अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा--"लगता है, किसी दिन आपके कनिष्ठ पुत्र के हाथ का बनाया भोजन करना ही पड़ेगा।" योजना बनाकर वह इलाजी के साथ हमारे घर पधारे। मेरे अनुज ने दिन के सामान्य भोजन की व्यवस्था की थी। लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि जैसे ही अज्ञेयजी ने इलाजी के साथ मेरे घर में प्रवेश किया, मानसिक रूप से अविकसित मेरी छोटी बहन महिमा अचानक प्रकट हुई और अज्ञेयजी का हाथ पकड़कर 'बाबूजी-बाबूजी' कहती हुई उन्हें बलात अपने कक्ष में ले गई। उसने अज्ञेयजी से अपने अस्त-व्यस्त बिस्तर पर बैठने का आग्रह किया, जिस पर कंकड़-पत्थर और धूल पड़ी रहती थी। साफ़-सुथरी वेश-भूषावाले अज्ञेयजी ने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया, तत्काल उस गंदले बिस्तर पर बैठ गए। मेरी उस छोटी बहन की मति-गति विचित्र थी। उसके पास शब्दों की पूँजी बहुत थोडी थी। वह घर-बाहर से नंगे पाँव दौड़ लगाती आती और अपने बिस्तर पर बैठ जाती। बाहर से चुनकर लाये कंकडों से खेलना उसे प्रिय था। जब अज्ञेयजी उसके बिस्तर पर बैठ गए, तो वह उन्हीं कंकडों से खेलने का उनसे आग्रह करने लगी। अज्ञेयजी की असुविधा का ख़याल करके मैंने हस्तक्षेप करने की चेष्टा की तो इशारे से उन्होंने मुझे रोक दिया और महिमा के साथ कंकडों का विचित्र खेल खेलने लगे। प्रसन्नता से भरकर मेरी बहन किलकारियां भरती और अज्ञेयजी उसके साथ बच्चों की तरह उन्मुक्त हँसी हँसते। विराट व्यक्तित्व के धनी अज्ञेयजी उस दिन सचमुच छोटे-से बालक बन गए थे। आज न अज्ञेयजी हैं और न मेरी छोटी बहन, लेकिन उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी, बाल-सुलभ चेष्टाएँ जब भी याद आती हैं, मन में एक टीस-सी उभरती है !
तब दिल्ली के उस किराए के घर में हमारे पास सीमित साधन थे। भोजन के लिए डायानिंग टेबल और कुर्सियां नहीं थीं। जामीन पर चटाई बिछाकर हम सबों ने अज्ञेयजी-इला जी के साथ भोजन किया। घर से विदा होते वक्त अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"बहुत दिनों के बाद वैष्णवी मुद्रा में बैठकर किया गया भोजन सचमुच बहुत तृप्तिदायक था। " पिताजी और हम सभी उनकी इस प्रतिक्रिया से अत्यन्त प्रसन्न थे। ...
[क्रमशः]

अप्रतिम अज्ञेय

एकल काव्य-पाठ की वह अद्भुत शाम


एक दिन अज्ञेयजी ने पिताजी को फोन पर सूचित किया कि वह लक्ष्मीमल्ल सिंघवीजी के घर पर एकल काव्य-पाठ करेंगे। उन्होंने पिताजी को काव्य-पाठ में आमंत्रित किया। पिताजी ने कहा--"मैं तो उपस्थित रहूँगा ही, लेकिन आपकी कवितायें सुनने की आतुरता और उनका आनंद उठाने की ललक आनंदवर्धन कोअधिक होगी। " पिताजी की बात सुनकर अज्ञेयजी ने मुझे भी साथ ले आने को कहा था।

सिघवीजी के आवास पर आयोजित अज्ञेयजी के एकल काव्य-पाठ की वह शाम मेरे जीवन की अविस्मरणीय शाम थी। अज्ञेयजी की कवितायें सुनने को वहाँ हिन्दी के दिग्गज रचनालारों का जमावाडा था, जिसमे रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, शमशेरबहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री, रामनाथ अवस्थी, भवानी प्रसाद मिश्र, नंदकिशोर नंदन सरीखे अनेक वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे। लॉन में हलके नाश्ते और चाय-कॉफी का प्रबंध था। सबों ने शाम की चाय पी और फिर एक लंबे हॉल में जा बैठे। श्रोताओं के सम्मुख अज्ञेयजी एक आसन पर विराजमान हुए और उन्होंने कवितायें पढ़नी शुरू कीं। आरोह-अवरोह-विहीन स्वर में गंभीर अर्थवत्ता में लिपटे स्वच्छ-शिष्ट शब्दों के मोती अज्ञेयजी लुटाते रहे और सुधीजन नीरव शान्ति के साथ उनकी काव्य-सुधा का पान करते रहे। उनके काव्य-पाठ का संतुलित ढंग और उच्चारण की मानक शुद्धता पर श्रोताओं का मन रीझ-रीझ जाता था। विद्वद्जनो की उस सभा में मैं भी एक किनारे सकुचाया-सा बैठा था। छोटी-बड़ी कई कविताओं के पाठ के बाद अज्ञेयजी ने 'सागर-मुद्रा' सुनानी शुरू की। एक पंक्ति की पकड़ बनाने ने जितना वक्त लगता, उतने समय में कई पंक्तियाँ श्रवण-रंध्रों का स्पर्श करती निकल जातीं। दो घंटों तक अज्ञेयजी की अमृतमयी वाणी हवा की तरंगों पर थिरकती रही और सर्वत्र मौन छाया रहा। न 'आह' न 'वाह', नीरव शान्ति ! काव्य-पाठ की समाप्ति पर भी मौन ही प्रशंसा का साक्षी बना। धीरे-धीरे बातचीत के स्वर गूंजने लगे। पिताजी शमशेरजी और त्रिलोचनजी के साथ अज्ञेयजी के पास पहुंचे। उनके पीछे मैं भी था। पिताजी ने अज्ञेयजी को साधुवाद दिया--"आज बड़ा आनंद हुआ। आपके स्वर-सम्मोहन और काव्य-शक्ति में आबद्ध रहा मन और मस्तिष्क।" त्रिलोचनजी ने भी प्रशंसा के कुछ शब्द कहे और अज्ञेयजी को प्रणाम निवेदित किया। विनय की प्रतिमूर्ति शमशेरजी ने बहुत अधिक झुककर प्रणाम किया, बोले कुछ नहीं । फिर तो कवियों, साहित्यकारों ने अज्ञेयजी को घेर लिया और उन्हें साधुवाद देने लगे। धीरे-धीरे लोग टोलियों में बँट गए और बातचीत के शोर से पूरा हॉल गूंजने लगा।
सिघवीजी के घर से अतिथि विदा होने लगे थे। भीड़-भाड़कम हुई तो अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा--"आप मेरे साथ घर चले चलिए, वहां से ड्राईवर आपको मॉडल टाऊन छोड़ आएगा।" पिताजी ने प्रतुत्तर में कहा--"शमशेर और त्रिलोचनजी भी तो मॉडल टाऊन ही जायेंगे, मैं उन्हीं के साथ चला जाऊँगा।" अज्ञेयजी बोले--"उन्हें भी अपने साथ ले लीजिये, कार में तो हम सभी आ जायेंगे।" तभी मैंने हस्तक्षेप किया--"आपने अपनी कविता-पुस्तकों का एक सेट, जो मेरे लिए निकाल रखा है, आज अगर वह भी मिल जाए तो चलना बहुत सार्थक होगा; क्योंकि उन्हें मुझे बस में ढोना नहीं पड़ेगा। पुस्तकें कार से ही घर तक पहुँच जायेंगी।" अज्ञेयजी मुस्कुराए और बोले--"हाँ, पुस्तकें तो निकाल ली हैं, बस उन्हें बंधना है; चलिए, आज वह काम भी हो जाए।" बहरहाल, अज्ञेयजी ड्राइविंग सीट पर और उनकी बगल में पिताजी बैठे, पिछली सीट पर शमशेरजी और त्रिलोचनजी के साथ मैं बैठ गया। गाड़ी सिंघवी जी के घर से बाहर निकली और हौज़-ख़ास की ओर चल पड़ी। बातचीत के बीच अज्ञेयजी गंभीरतापूर्वक बोले--"लगता है, 'सागर-मुद्रा' कई लोगों के ऊपर से निकल गई।" पिताजी हंस पड़े और बोले--"ऊपर से नहीं, सिरके ऊपर से।" पिताजी के कथन को शमशेरजी और त्रिलोचनजी का समर्थन मिला और कार में सबों की हँसी गूंजने लगी।
अज्ञेयजी ने घर पहुंचकर 'बावरा अहेरी' से 'अरे यायावर रहेगा याद' तक की अपनी समस्त पुस्तकों का एक सेट मेरे सामने रखा और उन्हें बांधने के लिए रस्सी की तलाश करने लगे। थोडी देर बाद वह मूंज की रस्सी लेकर आए और मेरे आग्रह करने पर भी स्वयं ही बड़े करीने से पुस्तक के आठों किनारों पर दफ्ती के छोटे-छोटे टुकड़े लगाकर उन्हें बंधा, फिर मेरे हवाले किया। मैंने श्रद्धापूर्वक पुस्तकों के बण्डल को सिर-माथे से लगाकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
एक बार मैंने अज्ञेयजी से पूछा था--"आप मुझे 'आप' क्यों कहते हैं ? मैं तो आपके लिए बच्चे-जैसा हूँ।" उन्होंने पूरी सहजता से कहा था--"सच तो यह है कि मैं सबों को 'आप' ही कहता हूँ। मेरे पिताजी ने हम सभी भाई-बहनों को ऐसी ही शिक्षा दी है। अब तो ऐसा अभ्यास हो गया है कि किसी के लिए भी 'तुम' संबोधन निकलता ही नहीं। आप इसे अन्यथा न लें।"
[क्रमशः]

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

अप्रतिम अज्ञेय

"यह दीप अकेला गर्व भरा है, प्रीति भरा मदमाता..."
अज्ञेय अप्रतिम थे, विराट थे, भव्य थे। अतीत में प्रयासपूर्वक देखने की चेष्टा करता हूँ तो उनकी दिव्य मूर्ति की क्षीण रेखा मन में उभरती है, जब वह पटना में मेरे घर पधारे थे और पूज्य पिताजी (स्व० पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') से बातें कर रहे थे। मैं ५-६ वर्ष का अबोध बालक, पिताजी की किसी भी आज्ञा को तत्पर, वहीँ एक किनारे खड़ा था और उन गौरांग महाप्रभु को अपलक निहार रहा था।
ग्रीक मूर्तियों की भव्यता को चुनौती देनेवाले अज्ञेयजी की पिताजी से अन्तरंग और पुरानी मित्रता थी। १९४१-४२ में पिताजी ने अज्ञेयजी के साथ मिलकर पटना से मासिक 'आरती' का सम्पादन किया था, जिसे देशव्यापी ख्याति मिली थी और जिसका प्रकाशन सन ४२ के विश्वयुद्ध में अवरुद्ध हो गया था। पिताजी अज्ञेयजी से उम्र में दो वर्ष बड़े थे। वयोज्येष्ठ्ता का सम्मान अज्ञेयजी पिताजी को यावज्जीवन देते रहे--यह उनकी विद्वत्ता और विनयशीलता का ही परिचायक था।
अज्ञेय प्रखर प्रतिभा लेकर हिन्दी में आए थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नवीन परिधान पहनाया, नई उंचाइयां दीं--प्रयोग और प्रतीक की नई अवधारणायें प्रस्तुत कीं। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों की नई उर्वरा भूमि तैयार की और यथार्थ-बोध की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी कीं । उनकी किस्सागोई भी अनूठी थी।
कालांतर में अज्ञेयजी आकाशवाणी, दिल्ली और पिताजी आकाशवाणी, पटना के हिन्दी-सलाहाकार बने। आकाशवाणी-सेवा के दौरान भी दोनों मित्रों का संपर्क बना रहा और यदाकदा मिलना होता रहा; लेकिन यायावर कवि-कथाकार अज्ञेय को आकाशवाणी बहुत दिनों तक बांधे न रख सकी। वह सेवा-मुक्त होकर स्वतंत्र लेखन और देश-विदेश की यात्राएं करते रहे। अब दीर्घकालिक विराम के साथ अज्ञेयजी से पिताजी का संपर्क हो पता था; लेकिन सन १९७४ के 'बिहार आन्दोलन' को समर्थित साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' का संपादन-भार जब पिताजी ने जयप्रकाशजी आदेश पर स्वीकार किया और दिल्ली जा बसे, तो अज्ञेयजी से पुनः मिलना होने लगा। इंडियन एक्सप्रेस के श्रीरामनाथ गोयनका के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित होनेवाले पत्र 'प्रजानीति' ने उस दौर में पूरे देश में और खासकर बिहार में खलबली मचा दी थी। पाठक अधीरता से 'प्रजानीति' के अगले अंक की प्रतीक्षा किया करते थे। लेकिन पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ और आपातकाल की घोषणा के साथ ही उसका प्रकाशन बंद हो गया। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान , नई दिल्ली से रात २ बजे जब जयप्रकाशजी को हिरासत में लिया गया, उस कठिन क्षण में भी उन्होंने गोयनकाजी से कहा था--"मुक्त्जी का ख़याल रखियेगा !" गोयनकाजी ने पिताजी का पूरा ख़याल रखा। पत्र के बंद जाने के बाद भी इंडियन एक्सप्रेस से उन्हें तनख्वाह मिलती रही। लेकिन दो महीने बिना कोई काम किए वेतन लेने के बाद पिताजी को ऐसी आय से विराग होने लगा (आदर्शवादी युग के वह ऐसे ही विलक्षण व्यक्ति थे। आज तो इस सत्य पर विश्वास करना भी कठिन है !)। उन्होंने अज्ञेयजी के सम्मुख अपनी पीड़ा व्यक्त की--"महीने के प्रारम्भ में इंडियन एक्सप्रेस के द्वार पर पहुंचना मुझे ऐसा लगता है, जैसे मैं भिक्षा की याचना लिए वहां जा पहुंचा हूँ। " अज्ञेयजी ने पिताजी की बात गंभीरतापूर्वक सुनी, फिर बोले--"गोयनका जी जैसे धनाधीश को आपकी तनख्वाह से कोई फर्क नहीं पड़ता। आप इसे अस्वीकार कर देंगे तो आपको फर्क पडेगा... और परदेश में आप संकट में पड़ जायेंगे।" पिताजी ने अज्ञेयजी की बात मान ली; लेकिन पॉँच महीनो तक वेतन उठाने के बाद पिताजी की आत्मा ने विद्रोह कर दिया। वह रामनाथ गोयनकाजी के पास गए और उन्हें तथा एक्सप्रेस भवन को सदा के लिए नमस्कार कर आए।
अब दिल्ली दूभर होने लगी थी। पारिवारिक कारणों से ही (स्नातक की डिग्री पाते ही) मैंने एक निजी संस्थान में नौकरी शुरू की। लेकिन आय अत्यल्प थी, उससे कुछ होना-जाना नहीं था। अज्ञेयजी ने और इलाजी ने दिल्ली-प्रवास के उन कठिन दिनों में जिस तरह से हमारी सहायता की और सहयोग को तत्पर बने रहे, उसे भूल पाना असंभव है। इसी अवधि में अज्ञेयजी ने 'नया प्रतीक' का संपादन-भार पिताजी को सौंप दिया था। नेहरू शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली पुस्तक 'लेक्टेड वर्कस ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू' (नेहरू वांग्मय) के हिन्दी अनुवाद का काम पहले से ही पिताजी के पास था। पिताजी इन्ही कामों में दिन-रात लगे रहते, किंतु अज्ञेयजी के आवास पर सप्ताह में दो दिन मिल-बैठकर 'नया प्रतीक' के लिए सामग्री-चयन का काम करना सुनिश्चित था। सप्ताह की इन दो मुलाकातों में पिताजी का दिन का भोजन और शाम की चाय अज्ञेयजी के यहाँ होती। दोनों मित्र दिन भर काम करते, साहित्यिक चर्चाएँ होतीं और शाम की चाय पीकर पिताजी घर लौट आते। 'नया प्रतीक' के लिए गद्य रचनाओं का चयन पिताजी करते और अज्ञेयजी काव्य-रचनाएं स्वीकृत करते; क्योंकि पिताजी नाहक ही सही, लेकिन अक्सर कहा करते थे किआजकल कीनई कवितायें उनके पल्ले नहीं पड़तीं।
पिताजी को सूचित किए बिना मैंने अपनी एक कविता 'नया प्रतीक' में प्रकाशनार्थ डाक से भेजी थी। कई दिनों बाद, प्रतीक के अगले अंक की चयनित सामग्री लेकर जब पिताजी अज्ञेयजी के घर से लौटे, तो उन्होंने मुझे बताया था--"तुम्हारी एक कविता को अज्ञेयजी ने प्रकाशन के योग्य माना है।" यह सुनकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई थी। यथासमय वह कविता 'नया प्रतीक' में प्रकाशित हुई और प्रकाशन के करीब सवा महीने बाद एक सौ पचास रुपये का चेक डाक से मेरे नाम आया था। उस चेक पर अज्ञेयजी का हस्ताक्षर था। मेरे लिए उस धनादेश की कीमत डेढ़ सौ रुपयों बहुत अधिक थी। वह मेरे लिए धनादेश नहीं, प्रमाण-पत्र था। मैंने निश्चय किया था किइसे कभी भुनाऊंगा नहीं, सहेजकर अपने प्रमाण-पत्रों में सुरक्षित रखूँगा ; लेकिन दो महीनो के बाद ही धन कि अत्यन्त आवश्यकता में मुझे अपना वह भावुकतापूर्ण हाथ छोड़ना पडा था, जिसकी पीड़ा मुझे आज भी है।
[क्रमशः]

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

जाने कब आओगे तुम...?


कुछ आहटें
तकलीफों के
खुले दरवाज़े पर
देती हैं दस्तक,
बार-बार देखता हूँ उधर;
वहां कोई नहीं होता
तुम भी नहीं,
तुम्हारा वजूद भी नहीं...
होती है सिर्फ़
दरवाजों की भड़-भड़
शायद ये हवाएं
ले आयी हैं --
तुम्हारी यादें !

जाने कब बंद होंगे
तकलीफों के
ये खुले द्वार;
इन पर सांकल चढाने
जाने कब आओगे--
तुम !!

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

कोई दरमियाँ नहीं होता...


है स्याह या सुफैद ये चेहरे से बयाँ नहीं होता ,
तुमने भी पीर-ए-लफ्ज़ मुसलसल कहा नहीं होता !

एक किरण तो बची रहती मेरे भी आशियाने में,
बदहाल ज़िन्दगी का कोई पासबां नहीं होता !

इन अजीब रिश्तों की कितनी कमज़ोर थी ज़मीन,
बिखरने पे गुलाब के गुलशन खुशनुमां नहीं होता !

पूरी तरह बेनकाब इस ज़िन्दगी को होने दो,
स्याह अंधेरों में कोई दागदां नहीं होता !

मेरा जुनून कभी तो बेहिसाब बोलेगा,
अंधी खमोशियों से कुछ भी अयाँ नहीं होता !

बूंदें शबनम की नहीं आग बरसती हो जहाँ,
शाख-ए-गुल की कौन कहे पतझर भी वहां नहीं होता !

मेरे संग-ए- दर पे फोड़ी है ये किस्मत किसने,
अंपने गिरेबां से उलझना कहाँ नहीं होता !

कभी बलंदियों पे मेरा भी मिजाज़ पहुंचेगा,
बद-दिमाग लोगों का कोई रहनुमां नही होता !

एक अदद दिल था मेरा तड़प उठा वो बेहिसाब,
काश ! इस फितरत का कोई निगेह्बां नहीं होता !

किस कदर लोग परेशां हो उठे समंदर के लिए,
बूंदें मचल के कह उठीं कोई दरमियाँ नहीं होता !

परवाज़ बलंदियों पे मैं करता नहीं, वरना--
इस कदर खफा मेरा आसमां नहीं होता !!

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अनाज की बात...

[बिहार के एक नर-संहार पर प्रतिक्रिया]

कैसी मासूमीयत से कह दी है तुमने राज़ की बात,
मेरे दिलो-दिमाग में घुमड़ती रही है आज की बात ।
मैंने समंदर को तो दरिया से मिलाना चाहा --
तुमने हौले-से कहा, है ये दूर- दराज़ की बात ॥


बेखौफ सन्नाटों में अब होने लगी सरताज की बात,
कितने मसरूफ हो, कर रहे तुम मेरे हर अल्फाज़ की बात ।
मैंने तो ताल्खियों को अपना इलाही समझा --
तुमने क्यों छेड़ दी मुझसे मेरे हमराज़ की बात॥

इबादत में जो झुकने लगे होने लगी समाज की बात,
शैतानियत का खल्क देख तुमने की ज़र्रानवाज़ की बात ।
मेरी गूंगी पर ठहरते नहीं हैं लफ्ज़ दोस्त--
मैं बड़ा बेजार था, क्या होगी मेरी आवाज़ की बात ॥

इन इबारतों में कहाँ पिन्हा है लिहाज़ की बात,
बड़े मुब्तिला हो करते रहे तुम मुल्क पे नाज़ की बात ।
सरे-शाम खलिहानों में जो मारे गए यारों--
वो कमनसीब तो ताज़िन्दगी करते रहे अनाज की बात ॥

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[शेषांश]


थोडी ही देर बाद, 'राम' की परम सत्यता का उद्घोष करती भीड़ बाहर आयी। हजारीप्रसादजी को कन्धा देनेवालों की अपार भीड़ थी। लेकिन शव-शय्या जैसे ही द्वार पर आई, दीर्घ देह-यष्टि के अज्ञेयजी आगे बढे, उन्होंने एक सज्जन को अलग करते हुए शय्या का एक छोर थाम लिया। फिर उनका अनुसरण करते हुए पिताजी ने, मैंने और प्रदीप भाई ने कंधा दिया। कृश-काया के जैनेन्द्रजी शव-शय्या का स्पर्श करके अलग हो गए थे। उस भीड़ से कदम मिलाकर चल पाना उनके लिए कठिन था। लोग हजारीप्रसादजी को वहाँ ले चले, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।


हम सभी अज्ञेयजी की कार से निगमबोध घाट पहुंचे। हमें घाट के बाहर गाड़ी से उतारकर चालाक अज्ञेयजी के आदेशानुसार चला गया। घाट पर भी बहुत भीड़ थी। बहुत-से लोग सीधे वहीँ पहुंचे थे। उनमे साहित्यकारों के आलावा राजनेता भी थे। वैदिक विधि-विधान और पंडितों के मंत्रोच्चार के बाद अग्नि-संस्कार हुआ। चिता से उठी धूम ने जन-समूह, पेड़-पौधों को अपने पाश में ले लिया। उस धूम-गंध ने मुझे विह्वल कर दिया... ऐसा प्रतीत हुआ किकल तक जिनका वरद-हस्त मेरे सर पर था, आज उनकी सम्पूर्ण सत्ता सर्वत्र व्याप्त होने को अधीर हो उठी है--इन वनस्पतियों में, आकाश में, वायु में, अग्नि में, यमुना के जल में, पृथ्वी के कण-कण में और मुझमे भी ! मेरे मन में तुलसीदासजी की पंक्ति गूंजने लगी--'क्षिति जल पावक गगन समीरा.... ।' और मैं सिहर उठा ! हम सबों ने हिन्दी मनीषा के जीवंत प्रतीक आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को पवित्र अग्नि के सुपुर्द कर दिया था। अग्नि-संस्कार के बाद ही लोग-बाग़ धीरे-धीरे बिखरने लगे, लेकिन हम वहीँ बने रहे। धूम अग्नि में परिवर्तित हुई, फिर तेज लपटों ने चिता को भस्मीभूत करना शुरू कर दिया।


पौन घंटे बाद हमलोग भी घाट से बाहर आए और सड़क के किनारे खड़े हो गए। प्रदीप भाई अपने पिताजी के साथ एक वाहन से चले गए, उन्हें दूसरी दिशा में दरियागंज जाना था। बचे हम तीन--अज्ञेयजी, पिताजी और मैं ! पिताजी ने अज्ञेयजी से कहा--"आपकी गाड़ी तो चली गई, अब उस दिशा में कोई जाता हुआ मिल जाए, तो अच्छा हो !" अज्ञेयजी ने बड़ी गंभीरता से कहा--"लोग यहाँ ले तो आते हैं, ले कोई नहीं जाता।" उनके इस वाक्य में छिपी पीड़ा मर्म को छूनेवाली थी। थोडी देर हम वहीँ प्रतीक्षारत रहे। हठात एक गाड़ी पास आकर रुकी। उसे चला रहे थे प्रख्यात कवि रामनाथ अवस्थी । उन्होंने आग्रहपूर्वक हमें गाड़ी में बिठाया और अपने साथ ले चले। सभी मौन थे। मेरे मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी कि अब हजारीप्रसादजी का दुर्लभ दर्शन सदा-सदा के लिए अलभ्य हो गया है, अट्टहासों कि वह गूँज अब सुनने को नहीं मिलेगी कहीं... !

[इति...]

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[गतांक से आगे]

दूसरे ही दिन ऑफिस में भोजनावकाश के बाद शीलाजी ने मुझे बुलाकर कहा--"तुम गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान चले जाओ। डाक्टरों के अनुसार हजारीप्रसादजी की हालत ठीक नहीं है। देर शाम तक वहीँ रहना, उनकी तबीयत और बिगडे तो फ़ौरन मुझे फ़ोन करना।" मैं तुंरत भागकर गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान पहुँचा। वहां बड़ी हलचल थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी मेरे पहुँचने के ठीक पहले अपने गुरुवर के दर्शन करके लौट गईं थीं। डाक्टरों का एक दल उनकी चिकित्सा में लगा था। बहार लॉन में साहित्यकारों की एक भीड़ जमा थी। सभी के चहरे पर घोर चिंता के बादल थे--सभी बेचैन, व्याकुल ! मैंने दूर से ही हिन्दी के उस तेजस्वी सूर्य को देखा, जो क्रमशः निष्प्रभ होता जा रहा था। मैंने मन-ही-मन उन्हें नमन किया। लम्बी बीमारी से हजारीप्रसादजी का चेहरा निस्तेज हो आया था। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें श्वांस लेने में असुविधा हो रही है। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के अहाते में इतने लोग थे, लेकिन वहां अजीक सन्नाटा पसरा था, जिससे मन घबरा रहा था। मैं रात ९ बजे तक वहीँ रहा, फिर घर लौट आया।
इसके बाद एक दिन भी न बीता था कि शाम होते-होते वह ख़बर आ गई, जिसकी आशंका से सबों का मन आतंकित था। हजारीप्रसादजी का जीवन-दीप बुझ गया था। राजकमल में अफरा-तफरी मच गई। दफ्तर बंद कर दिया गया। मैं भागा-भागा घर गया और पिताजी को यह मर्मंतुद समाचार औचक ही दे बैठा। पिताजी धम्म-से चौकी पर बैठ गए। उनके मुंह से दो शब्द निकले--'हे राम !' वह रात मुश्किल से गुजरी। पिताजी से उनकी प्रीति पचास वर्षों की थी--वह मर्माहत थे।
सुबह-सबेरे ९ बजे मैं पिताजी के साथ प्रतिष्ठान पहुंचा। वहां दिल्ली के प्रायः सभी छोटे-बड़े साहित्यकारों की भीड़ जमा थी। पिताजी की दृष्टि जैनेन्द्रजी पर पड़ी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और गले मिलकर भाव-विगलित हो गए। मैं जैनेन्द्रजी के सुपुत्र प्रदीप भाई के पास जा खड़ा हुआ। प्रदीप भाई ने मेरा हाथ देर तक पकड़े रखा। वहां जितने लोग थे, सबकी आँखें भीगी थीं, चहरे पर विषाद की गहरी छाया थी और मन में भावनाओं का विचित्र आलोडन था। सच है, हजारीप्रसादजी के साथ एक युग का अवसान हुआ हुआ था। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के बड़े-से अहाते में सभी मौन खड़े थे--अलग-अलग गुच्छों में ! तभी अज्ञेयजी आए और सीधे जैनेन्द्रजी-पिताजी के पास आकर नमस्कार करते हुए खड़े हो गए। बोले कुछ नहीं । जैनेन्द्रजी ने अपनी धीमी आवाज़ में कुछ कहना चाहा, लेकिन उनका गला रुंध गया। तब पिताजी बोले--"अज्ञेयजी ! इस वज्रपात की आशंका से मन आतंकित था पिछले कुछ दिनों से।" अज्ञेयजी मौन ही रहे। उनकी तेजस्वी आंखों में भी करुणा की छाया थी। पिताजी, जैनेन्द्रजी और अज्ञेयजी को एक साथ खड़ा देख अनेक साहित्यकार उनके पास आते और नमस्कार करके आगे बढ़ जाते। मैं प्रदीप भाई के साथ इन्हीं त्रिमूर्ति के समीप मौन साधे खड़ा था।
प्रतिष्ठान के बाहर राजघाट जानेवाली सड़क पर मोटर-गाड़ियों का लंबा काफिला जमा हो गया था बाहर अन्दर हजारीप्रसादजी की अन्तिम-यात्रा की तैयारियां चल रही थीं। करीब घंटे भर बाद लोग कहने लगे कि निगमबोध घाट पहुंचना है। भीड़ धीरे-धीरे अहाते से बाहर की ओर खिसकने लगी। हम लोग भी बढ़ चले और प्रतिष्ठान के बड़े-से द्वार पर जा पहुंचे। तभी अंदर से कपिला वात्स्यायनजी बहार आयीं और अज्ञेयजी को द्वार पर देख उनके पास जा खड़ी हुईं। उनकी आखों से निरंतर अश्रु-धारा बह रही थी। अज्ञेयजी ने दोनों हाथ जोड़ लिए थे और प्रस्तर मूर्ति बने खड़े थे। रोते-रोते कपिलाजी ने अज्ञेयजी के जुड़े हाथों को थाम लिया और बोलीं--"यह सब क्या हो गया....?" अज्ञेयजी यथावत--मौन, निश्चल रहे ! कपिलाजी की विह्वलता और अज्ञेयजी की निश्चलता में जाने क्या-कुछ था कि यह दृश्य देखकर प्रदीप भाई अपने को रोक न सके, मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे एक ओर खींचते हुए फफक पड़े--"देखो आनंद ... पीड़ा की यह पराकाष्ठा देखो...!" उनकी यह चेष्टा भी थी कि इस विह्वलता पर किसी की दृष्टि न पड़े। दो मिनट बाद ही कपिलाजी रोती-बिलखती अपनी कार की ओर बढ़ गईं।

[शेषांश फिर...]

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आचर्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[ब्लॉगर मित्रों ! हिन्दी पखवारे में भारतीय मनीषा के प्रतीक और हिन्दी जगत के उद्भट विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी का पुण्य-स्मरण कर रहा हूँ... उनसे मेरा व्यक्तिगत संपर्क नाममात्र का था, लेकिन जो स्मृतियाँ मेरे पास सुरक्षित हैं, आज इस अवसर पर आप सबों के साथ बाँटना चाहता हूँ--आनंद...]

बात १९७७-७८ की है। मैं पूरी तन्मयता से अपने दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, अचानक अट्टहासों की गूँज ने चौंका दिया। राजकमल प्रकाशन की प्रबंध-निदेशिका श्रीमती शीला संधू की उपस्थिति में दफ्तर में सुईपटक सन्नाटा छाया रहता था, मजाल किसी की कि कोई उर्ध्व स्वर में कुछ बोल जाए ! लेकिन उस दिन ठहाके-पर-ठहाके लगने लगे और घोर गर्जन-तर्जनवाले उन अट्टहासों से पूरा दफ्तर गुंजायमान होने लगा। मैं अपनी सीट से उठा और ठहाकों का पीछा करता शीलाजी के कक्ष तक पहुँच गया। मेरे आश्चर्य कीसीमा न रही, जब मैंने जाना कि ठहाकों की इबारत उसी कक्ष में लिखी जा रही है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि हिन्दी साहित्याकाश के तेजस्वी नक्षत्र आचार्यश्री हजारीप्रसाद द्विवेदीजी पधारे हैं । उनके नामोल्लेख से ही मैं उत्साहित हो उठा। किंतु शीलाजी के कक्ष में प्रवेश करना अशोभन था। इस भय से कि कहीं मेरी पीठ पीछे वह चले न जाएँ, मैं वहीँ एक पतले गलियारे में टहलता, उनकी प्रतीक्षा करने लगा। बाल्यावस्था से ही मैं उनके बारे में पिताजी से बहुत कुछ सुनता रहा था और पिताजी की पत्र-मञ्जूषा में मैंने हजारीप्रसादजी के कई पत्र भी देखे-पढ़े थे।
हजारीप्रसादजी जब शान्ति-निकेतन में थे, तभी सन १९३६ में पिताजी उनके निकट संपर्क में आए थे। पिताजी ने अपनी पत्रिका 'बिजली' और 'आरती' में उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित की थीं और पत्राचार का क्रम चलता रहा था। उनके एक पत्र की दो-तीन पंक्तियाँ मुझे आज भी शब्दशः याद हैं। 'बिजली' के लिए कोई रचना भेजने के बार-बार के आग्रह पर भी जब रचना नहीं आई तो पिताजी ने उलाहना देते हुए उन्हें पत्र लिखा था। उसी के उत्तर में शान्ति-निकेतन से लिखा हजारीप्रसादजी का पोस्टकार्ड आया था। उनकी पंक्तियाँ थीं--"प्रिय मुक्तजी, वर्ष में एक बार मेरी आँखें मानवती नायिका की तरह रूठ जाती हैं। लिखना-पढ़ना कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले मानिनी का मान भंग हुआ है..." आगे यह आश्वासन था कि लिखना-पढ़ना शुरू हो तो शीघ्र ही आपके लिए सामग्री भेजूंगा।

बहरहाल, थोडी प्रतीक्षा के बाद हजारीप्रसादजी शीलाजी के कक्ष से बाहर आए और मैंने उनका प्रथम दर्शन किया--दीर्घ काया, उन्नत ललाट, खड़ी नासिका, गौर वर्ण, एक हाथ में छड़ी और चहरे पर असाधारण तेज ! धोती-कुर्ता और खादी की बंडी--उत्तरीय भी कंधे से उतरता हुआ--शोभायमान ! उस दिव्य मूर्ति को देखते ही श्रद्धानत हो जाना स्वाभाविक था। मैं आगे बढ़ा और चरण-स्पर्श करके बोला--"मैं मुक्तजी का ज्येष्ठ पुत्र आनंदवर्धन प्रणाम करता हूँ !" वह किंचित अचकचाए, फिर पूछा--"क्या कहा आपने ? मुक्तजी के पुत्र ? मेरे हामी भरते ही वह उत्साहित होकर बोले--"आजकल कहाँ हैं मुक्तजी ? बहुत दिनों से उनसे संपर्क ही नहीं हुआ। कैसे हैं ?" मैंने उन्हें यथास्थिति बताई। वह प्रसन्न हुए। मेरे कंधे पर अपना दायाँ हाथ रखकर कहने लगे--"दिल्ली में ही हैं तो उनसे कहिये, किसी दिन आकर मिलें। उनसे सत्संग हुए बहुत दिन बीते। और आप क्या करते है ?" मैंने उन्हें अपनी स्थिति बताई-- वह बहुत प्रसन्न हुए। प्यार से मेरे सर पर हाथ रखा, बोले--"परिश्रम और इमानदारी से अपना काम करते रहिये, सफलता की ये ही दो चाभियाँ हैं। " बीच दफ्तर में खड़े-खड़े अधिक बातों की स्थिति न थी। मैंने पुनः प्रणाम किया और हजारीप्रसादजी विदा हुए । पहली मुलाक़ात में ही उनकी आत्मीयता, सरलता और भव्यता का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी प्रकांड विद्वत्ता ने उन्हें विनयी और विनोदी बनाया था। पिताजी कहा करते थे कि हजारीप्रसादजी का अट्टहास घन-गर्जना के समान होता था।
दूसरे दिन फ़ोन पर बातें करके पिताजी हजारीप्रसादजी से मिलने गए थे। मैं अपने दफ्तर से बंधा था, इसलिए हार्दिक इच्छा होने पर भी दुबारा उनके दर्शन से वंचित रह गया। ....

एक वर्ष से कुछ अधिक की अवधि व्यतीत हो गई थी। उस दिन भी मैं राजकमल में ही था, जब फ़ोन पर हजारीप्रसादजी के संघातिक रूप से बीमार होने और अस्पताल में भरती किए जाने की ख़बर आई । मैं विचलित हुआ। देर शाम को जब घर पहुँचा तो यह चिंताजनक सूचना मैंने पिताजी को दी। वह कुछ बोले नहीं, लेकिन उनके चहरे पर उभर आई चिंता की वक्र रेखाएं मैं पढ़ सका था। कुछ दिन तक अस्पताल में रहने के बाद हजारीप्रसादजी को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के एक विशाल कक्ष में ले आया गया और वहीँ उनकी परिचर्या और चिकित्सा का प्रबंध कर दिया गया। हजारीप्रसादजी अपनी रोग-व्याधि से संघर्ष करने लगे। कभी हालत में सुधार दीखता तो कभी वह और बिगड़ जाती। उनकी हालत अस्थिर बनी हुई थी। .....
{ क्रमशः }

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

एक मुट्ठी ख़ाक...


किनारे को रात भर लहरों का इतजार रहा,
दरिया किनारे बैठकर मैं भी बड़ा बेजार रहा !

खुशियों के इक सैलाब से जो डूबकर बाहर आया,
सदियों उसी खुशी के नाम वो बहुत बीमार रहा !

उस दरख्त के टूटने का सबब मत पूछो,
कभी हवा में झूमता वह बहुत दमदार रहा ।

जिसने इक आग कलेजे में जलाए रक्खी,
उन्हीं आंखों से बरसात का इज़हार रहा ।

पांव जिनके ज़मीं पर नहीं पड़ते थे कभी,
उनके दामन में ख़ाक बेशुमार रहा ।

इश्क और प्यार की तो बात ही बेमानी है,
क्या खुदा उनकी नज़र में, इंसां भी बाज़ार रहा ।

मोल मिटटी का कुछ भी नहीं होता है, मगर
इक मुट्ठी ख़ाक ही मेरा तो जाँ-निसार रहा ।।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

दो टुकड़े ज़िन्दगी...


आदर्शों की कमरतोड़ मेहनत से खीझकर
लटक गए शब्द-शब्द वक्त के त्रिशूल पर
दो टुकड़े ज़िन्दगी बाँट दी गई
रोटी के टुकड़े-सी सुबह और शाम
उग आया एक और विराम !

कल तक जो अर्थों को रौंदते थे
गर्दिश की भीगती सभाओं में
चिर-प्रतीक्षित सपनों की अगवानी
तलाशते रहे... तलाशते रहे--
इतने में हो आई शाम
हहराकर डूबे संघर्षों में प्राण !

दुर्दिन की हथकड़ियों में
कांपते शरीर का सम्मोहन
बादल गईं कितनी संज्ञाएँ
उल्टे कांच के गिलास पर
पानी की धार पड़ी...
युद्ध-स्थल झुर्रियों और लकीरों का
गड्ढे में पड़ी आंखों का डूबता निशान
वक्त के विराम की हो गईं चर्चाएँ आम !

शहरों की कोलतार पुती सड़कों पर
या गावों की लहरदार गलियों में
अंधी लाठी से रास्ता बनाने की
होती हैं पुरजोर कोशिशें
पंक्तिबद्ध लम्बी ज़िन्दगी
बन बैठी गूंगी है...
तालू से जीभ के चिपकने की साजिश में
बंद हुए खुलते आयाम
कुछ मेरे, कुछ तेरे नाम !

जंग लगे, बंद पड़े कमरों में
मकड़ी के जालों का खूबसूरत दर्पण
हड्डी की गर्मी और पिघलते नासूर का
दर्दीला मौसम...
प्रतीक्षा की उठी हुई पलकों में
साथ-साथ तैरता आकाश
बिखरती ज़िन्दगी का टूटता विश्वास
गले में रेगिस्तान लिए
भटक रही प्यास
हर क्षण, प्रतिपल, अविराम
सुबह और शाम !!