गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

रुआंसी तकलीफें...

कुछ तकलीफें
जी भरकर रो न सकीं
रुआंसी हो कर रह गईं
हमेशा के लिए...!

उस पौधे के कंटीले तन पर
एक गुलाब खिला--
मुस्कुराता हुआ !
मैंने पूछा--ये हंसी कैसी ?
वह बोला कुछ नहीं,
काँटों के सलीब पर
सर्द-सा मुस्कुराया;
मैंने समझा--
उसने अपनों से दर्द छुपाया !

जाने कब और कैसे
उसके नाखून खंजर हो गए
और मेरा मोम-सा दिल पत्थर हो गया !

लिखने को कुछ तकलीफदेह इबारतें
वह लिख गया,
जिसे बार-बार पढ़ना
उसकी मजबूरी थी
और बेसब्र हो जाना उसकी इबादत !
न मजबूरी ख़त्म हुई,
न इबादत बोली;
जब कभी कराहकर मैंने
अपनी बंद मुट्ठी खोली--
वहाँ भी रेंगती दिखीं --
रुआंसी तकलीफें !

अपनी परछाइयों से भी
जिसे धकेल कर अलग करता हूँ,
वह खलिश मेरे साथ-साथ चलती है,
एक आग मेरे सीने में
दिन-रात जलती है !!