सोमवार, 30 जुलाई 2012

वृक्ष बोला...

अपना सारा फल देकर
वृक्ष मुस्कुराया
और उमंग में भरकर
उसने कोमल टहनियों को ऊपर उठाया;
जैसे अपने हाथ उठाकर
सिरजनहार को धन्यवाद दे रहा हो,
कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा हो
और भार-मुक्त करने के लिए
आभार व्यक्त कर रहा हो !

मैंने पूछा--'हे वृक्ष !
अपना सब कुछ देकर
तुम खुश कैसे होते हो ?
क्या अन्दर-अन्दर रोते हो ?

वृक्ष दृढ़ता से बोला-- 'नहीं,
त्याग से मुझे सुख मिलता है,
संतोष मिलता है
और मुझे अपनी पात्रता का बोध होता है;
मैं तो अपने फल लुटाकर
परितृप्त होता हूँ
और सुख की नींद सोता हूँ !
तुम भी अपने मीठे-कड़वे
कृमी-कीट लगे फल त्यागो --
सुख पाओगे,
संपदा की गठरी बांधे रखोगे,
तो लुट जाओगे !!'

बुधवार, 25 जुलाई 2012

बात की औकात ...

बात औकात की नहीं,
बात हिम्मत की है,
साहस की है ;
लेकिन हाथों में पत्थर लिए लोग
पहले से तैयार दीखते हैं
और छाती ठोंककर पूछते हैं सवाल--
'इतना साहस कोई कैसे कर सकता है ?
समूचे तंत्र की शक्ल-सूरत बदलने का दम
कोई कैसे भर सकता है ?
कोई कैसे कर सकता है--
अनुचित को अनुचित कहने का साहस ??'

और अनुचित तो हर घाट पर बैठा है
त्रिपुंड धारण किये--
यह सिद्ध करता हुआ
कि वही सर्वथा उचित है.
पाक है, साफ़ है !
उचित बेचारा सहमा-सकुचाया हुआ
दरवाज़े के पल्ले की ओट में
दुबका खडा है --
इस प्रतीक्षा में
कि कब सारे बंद पल्ले खुलें
और उचित के सभी पक्षधर
मुट्ठियाँ भींचे और छाती ताने
बाहर निकल आयें--
अपनी आवाज़ बलंद करने के लिए,
अनीति का खुला और खुलता जा रहा
मुंह बंद करने के लिए !

न्याय और अन्याय का धर्मयुद्ध
हर युग में हुआ है--
इसकी परम्परा सनातन है;
लेकिन अनुचित को उचित कहने की
परिपाटी अधुनातन है !
आज की सुविधाभोगी दुनिया के लोग
अपना दामन बचाने के अभ्यासी हैं
और विधान को ही न्यायसंगत बतानेवाले लोग
अपनी समस्त चेतना से सियासी हैं !

फिर भी, उचित के पक्षधरों की
बहुत बड़ी जमात ने बंद पल्ले खोले थे,
उन्होंने मशालें और मोमबत्तियां जलाई थीं,
धरने दिए थे,
जुलूस निकाले थे
और तंत्र के पहरेदारों के दरवाजों पर
दी थी दस्तक !
ये गोलबंद हुए लोग
अनुचित को अनुचित कहने का
फिर करने लगे हैं साहस--
और एक समूची जमात उठ खड़ी हुई है
उन्हें उनकी औकात बताने के लिए ...
हाथों में पत्थर
और जिह्वा पर शोले लिए
वे अग्नि-वमन पर,
पत्थर चलाने पर उतर आये हैं
और सोचते हैं,
जब टूटेगा सर पर आसमां
तो क्या उसे छप्पर सभालेंगे ?
अरे, हम भी तैयार हैं,
उनकी जड़ें खंगालेंगे,
बाल की खालें निकालेंगे ?

लीजिये हुज़ूर,
बात तो हवा हुई,
अब दोनों पक्ष तैयार हैं--
दोनों की अपनी-अपनी शक्ति है
सामर्थ्य है;
लगता है,
राष्ट्र के पुनर्निर्माण की
बात करना ही व्यर्थ है !
मसले ऐसे उलझ गए हैं
कि समझ पाना मुश्किल है
कि कुल मिलाकर बात क्या रही ?
और--
बात की औकात क्या रही ??

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

समाधान ही व्यवधान बन गया...

सांप-सी रेंगती नदी के पास
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ !
उजाले का विश्वासघात
और अंधेरों का सपना
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ !

इस रुआंसी हो आयी शाम में
पाकड़ की टहनी से लटके
किसी चमगादड़ की तरह
उलटबासियों-सी ज़िन्दगी का ज़हर
मैंने पिया है
और घूरे पर फ़ेंक आया हूँ--
अपना भाग्य...
और अनवरत याचना की तमाम कुंठाएं
उस रूपसि के चरणों पर रख आया हूँ,
जिसने मेरी सारी भावनाओं को
संबोधनहीन स्नेह के नाम पर
कैद कर लिया है... !
न जाने कैसी अलौकिक प्रसन्नता के लिए
जिसने मेरे विश्वास को ज़हर
और अपने स्नेह को अमृत कहा है,
और इसी सम्मिश्रण को विष जानकर भी
मैंने पिया है !

लेकिन एक प्रश्न
आज भी ज़िंदा है,
सांप-सी रेंगती और
अनिर्दिष्ट तक चली गई
उस नदी की तरह,
जिसके मुहाने पर
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ--
पीछे छूट गए
तुम्हारे तमाम आश्वासनों की लाश पर
न जाने क्यों औंधा पडा हूँ ?

मस्तिष्क की पतली शिराओं में
आज भी बहती-सी लगती है वह नदी...
और मैं वहीँ खड़ा देखता हूँ अपने आप को
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिटटी... !

इस ज़िन्दगी के दस्तावेज़ पर
वक़्त के पड़े बे-वक़्त निशान
और उस पहचान के नाम
प्रवाहित करता हूँ ये इबारतें
जिसमें हर शक्ल अनजान
और हर समाधान
एक विराम बन गया है !!