बुधवार, 19 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण


[समापन किस्त]
पिछले २५-३० वर्षों में इतना कुछ बादल गया है कि इस परिवर्तन पर यकीन नहीं होता ! जयप्रकाशजी जिन मूल्यों-आदर्शों के पुनर्स्थापन के लिए जीवन भर जूझते रहे, आज उसकी कामना करनेवाला भी कोई नहीं दीखता. उन्होंने राजनीति में प्रजा-नीति, लोक-नीति, सर्व-उदय, लोक-कल्याण की उदात्त भावना को प्राणपण से प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की थी; लेकिन अब तो राज-ही-राज रह गया है, नीति की जगह अनीति ने ले ली है. पिछले तीन दशकों में मूल्यों का ऐसा ह्रास हुआ है कि बदली सूरत को पहचानना भी मुश्किल है. आत्मानुशासन, संयम, शील, भद्रता, शालीनता, परोपकार, सदाचरण जैसे गुण दुर्लभ होते जा रहे हैं. उनकी जगह असंयम, अशालीनता, अभद्रता, दुराचरण और लोभ-लालसा ने ले ली है. जो राह जयप्रकाशजी ने दिखाई थी, जिस राह पर वह देश को ले चलना चाहते थे, उस राह पर आज कोई अग्रसर नहीं दीखता. पक्ष और प्रतिपक्ष तर्क-वितर्क और कुतर्क में लगे हैं, विधान सभाएं और संसद पहलवानों के अखाड़े बने हुए हैं. सबको अपनी-अपनी पड़ी है, देश की फिक्र किसी को नहीं है, हम न जाने किस राह पर देश को हांके लिए जा रहे हैं. ऐसे में जे.पी. बहुत-बहुत याद आते है....
मुझे  लगता है, भारत की राजनीति में जयप्रकाशजी त्याग-तपस्या के प्रतीक और सर्वस्व न्योछावर कर देनेवाले अप्रतिम योद्धा तथा जन-भावना को स्वर देनेवाले क्रांतदर्शी की तरह हमेशा याद किये जायेंगे. उन्हें किसी मोह ने नहीं बांधा, पद-लिप्सा उन्हें छू न सकी, कोई प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सका, वह तो 'सर्व-जन हिताय, सर्व-जन सुखाय' के एक सूत्र को थामे जीवन-भर चलते रहे, जलते रहे और अंततः उनके जीवन की निष्कंप दीप-शिखा बुझ गई. जीवन-दीप का बुझ जाना तो नियति थी, लेकिन बुझने के पहले जो चमक और रौशनी वह छोड़ गए हैं, उसके आलोक से आनेवाली पीढियां अनुप्राणित होती रहेंगी. मुझे विशवास है, देश की राजनीति में जयप्रकाशजी सर्वाधिक  स्वच्छ, पवित्र और जुझारू जन-नायक की भाँति अनंत काल तक स्मरण-नमन किये जायेंगे ! इसमें संदेह नहीं कि भारतीय राजनीति की थाली में वह तुलसी-दल की तरह सर्वाधिक पवित्र आत्मा थे !!
[समाप्त]

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे : जयप्रकाश नारायण

[पांचवीं किस्त]
एक दिन पिताजी के अनन्य मित्र स.ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय'जी ने उनके सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि मुंबई जाकर जयप्रकाशजी से मिल आना चाहिए. उन दिनों पिताजी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे. आपातकाल की घोषणा के साथ ही 'प्रजानीति' पत्र बंद हो चुका था. पिताजी अज्ञेयजी के साथ ही 'नया प्रतीक' के सम्पादन और अनुवाद के अन्य कामों में लगे हुए थे. उन्होंने अपनी असमर्थता अज्ञेयजी के सम्मुख रखी--"इच्छा तो मेरी भी होती है कि एक बार जयप्रकाशजी से मिल आऊं, जाने फिर यह अवसर भी हाथ लगे, न लगे; क्योंकि जैसी उनके शरीर की दशा है, उससे मन बहुत आश्वस्त नहीं है." अज्ञेयजी बोले--"इसीलिए तो आप से कह रहा हूँ. जानता हूँ, आप दोनों एक-दूसरे से मिलकर प्रसन्न होंगे. आप कुछ न सोचें, बस साथ चलें. आप साथ होंगे तो मेरी हिम्मत भी बनी रहेगी." पिताजी की आतंरिक इच्छा तो थी ही, उन्होंने स्वीकृति दे दी.
पिताजी की स्वीकृति के बाद अज्ञेयजी ने विलम्ब नहीं किया, तत्काल रेल का आरक्षण लेने के बाद पिताजी को यात्रा की तिथि वगैरह बता दी. दोनों मित्र नियत तिथि को मुंबई चले गए. जसलोक अस्पताल में दो दिनों में दो बार पिताजी और अज्ञेयजी जयप्रकाशजी से मिले. मुंबई से लौटकर पिताजी ने बताया था कि जयप्रकाशजी हुलसकर मिले थे और उन्होंने बहुत-सी बातें की थीं; जबकि उन्हें अधिक बोलने की मनाही थी और बोलना उनके लिए कष्टकर भी था. पिताजी और जयप्रकाशजी की वार्ता भोजपुरी में शुरू होती, फिर अज्ञेयजी का ख़याल कर जे.पी. हिंदी में बोलने लगते थे और बातें हिंदी में होने लगतीं: किन्तु थोड़ी ही देर बाद पिताजी की ओर मुखातिब होकर जब जे.पी. कुछ कहने लगते तो भाषा स्वतः भोजपुरी हो जाती. ऐसा जब दो-तीन बार हुआ तो जे.पी. ने अज्ञेयजी से कहा--"मुक्तजी से मेरी बातचीत की भाषा वर्षों से भोजपुरी रही है, इसलिए...! आप कुछ ख़याल न कीजिएगा." अज्ञेयजी ने प्रतुत्तर में बस इतना कहा था--"भोजपुरी मैं बोल नहीं पाता, लेकिन समझता तो अच्छी तरह हूँ."
पिताजी जयप्रकाशजी से मिलकर जब लौटे थे, क्षुब्ध और चिंतित थे. उन्होंने बताया था कि वह बहुत दुर्बल हो गए हैं और रोग भी ऐसा है जो लगातार उपचार की मांग करता है. पिताजी मुखर होते हुए भी धीर-गंभीर व्यक्ति थे. अपने मन पर उनका अद्भुत संयम था. किसी भी पीड़ा, अभाव, संकट की छाया अधिक समय तक उनकी मुखमुद्रा पर टिकी नहीं रह पाती थी, किन्तु जयप्रकाशजी की शारीरिक दशा से वह सचमुच लम्बे समय तक आक्रान्त दिखे थे और आगंतुकों से उनकी हालत की चर्चा करते हुए दुखी हो जाते थे.
कुछ समय बाद ही परिस्थितियों ने करवट बदली. जयप्रकाशजी मुम्बई से पटना लौट गए और वहीँ उनका उपचार होने लगा. सन १९७९ में मैं भी दिल्ली से स्थानांतरित होकर हरद्वार चला गया. कुछ समय बाद पिताजी भी दिल्ली त्याग कर मेरे पास हरद्वार आये. लेकिन विधि-संयोग कुछ ऐसा बना कि जिस रात पिताजी ने दिल्ली से ट्रेन से प्रस्थान किया, उसी रात जयप्रकाशजी के जीवन-मुक्त होने का दुह्संवाद आया. पिताजी सारी रात ट्रेन में सो न सके थे. मेरे पास पहुंचे तो दुखी और अवसन्न थे. उनका पचासों वर्ष पुराना सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया था.
पिताजी ने अपनी पुस्तक 'पहचानी पगचाप' में जयप्रकाशजी पर लिखे दो संस्मरणों ('जब लोकनायक रो पड़े थे' तथा 'एक और दधीचि : लोकनायक जयप्रकाश नारायण') में अपने संबंधों की विस्तार से चर्चा की है, उन्हें स्मरण-नमन किया है.
कई-कई वर्षों बाद जब पटना के कदमकुआंवाले जयप्रकाशजी के आवास (आज जहां प्रभावतीजी द्वारा स्थापित 'महिला चरखा समिति' का दफ्तर है) पर जाने का संयोग बना, तो वहाँ का सूनापन देखकर मन में एक टीस उठी. कल तक जहां हाली-मुहाली लगी रहती थी, लोगों की भीड़ से परिसर गुंजायमान रहता था, जहां छुटभैये और दिग्गज राजनेताओं को मैंने कभी पंक्तिबद्ध देखा था, वहाँ मन को सालनेवाला एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के विशाल आँगन में बड़ी-बड़ी घास उग आयी थी और वहाँ एक दरबान और कुछ कामकाजी महिलाएं ही थीं. वहीँ मैंने एक प्रखर जीवन का चरमोत्कर्ष देखा था और उसकी नियति देखकर यह जान सका था कि प्रचंड सूर्य के अस्तंगत हो जाने पर कैसा घना अन्धकार सर्वत्र व्याप्त हो जाता है. ...
[अगले अंक में समापन] अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे : जयप्रकाश नारायण

रविवार, 16 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

[चौथी किस्त]
फिर तो बिहार क्या, दिल्ली में भी तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था. दिनकरजी की प्रसिद्ध पंक्ति 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' और नागार्जुन जी की काव्य-पंक्ति 'इंदुजी-इंदुजी क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको ?' पूरे बिहार में गूंजने लगी थी. पटना के गाँधी मैदान के दक्षिणी गोलंबर पर (जहां आज जयप्रकाशजी की आदमकद मूर्ति स्थापित है) जब जयप्रकाशजी के सिर पर लाठी का प्रहार हुआ, तो पूरा देश खौल उठा था. तब नागार्जुंजी ने एक लम्बी कविता लिखी थी, जिसकी आरंभिक पंक्तियाँ देखते-देखते लोगों की ज़बान पर थीं--
पोल खुल गई शासक दल के महामंत्र की,
जयप्रकाशजी पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की !
नागार्जुनजी की कई क्षणिकाएं भी आन्दोअलन की आग को हवा देने में सूत्र-वाक्य की तरह प्रयुक्त की जा रही थीं--
माई ! तुम तो काले धन की बैसाखी पर टिकी हुई हो !!
और--
गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन !
चबा चुकी है ताज़ा नर-शिशुओं को गिन-गिन,
गुर्राती बैठी है वह टीले पर बाघिन !
उस दौर में समाज के हर तबके के लोग अपनी-अपनी विद्या-बुद्धि, विवेक और सामर्थ्य के साथ आन्दोलन से आ जुड़े थे और उसे शक्ति प्रदान कर रहे थे. साहित्यकारों, कवियों-लेखकों का दल अपने लेखन और विचारों से उसे मजबूती प्रदान कर रहा था. धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता 'मुनादी' उन्हीं दिनों बहुत लोकप्रिय हुई थी और दुष्यंत कुमार की हिंदी ग़ज़ल की पंक्तियाँ तो हर शख्स की ज़बान पर थीं--
एक बूढा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो,
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है !
गांधीवादी युग के उत्तरकाल की अकेली और निष्कंप दीपशिखा थे--'जयप्रकाश नारायण' ! वह तिल-तिल कर जलते और रौशनी बाँटते रहे. दुष्यंत ने ठीक ही कहा था, अन्धकार से भरे उस युग में वह देश को रौशन करनेवाले अकेले रौशनदान की तरह थे.
हमारी टोली भी नागार्जुन और रेणुजी के साथ घूम-घूमकर अलख जागाती थी, जिसमे कभी कवि सत्यनारायण तो कभी गोपीवल्लभ सहाय और अन्य कई-कई लेखक-कवि अपनी रचनाओं के साथ आ जुड़ते थे. मेरी मुक्त छंद की एक कविता भी उन दिनों चर्चा में आयी थी और गोष्ठियों में श्रोता मुझसे वही कविता सुनाने की फ़रमाईश करते थे--
तल्खियों से भरा एक जुलूस
चल पडा है !
काले झंडे,
विरोध के कुछ साईनबोर्ड
नारेबाजी में झुलसता माहौल;
लेकिन एक और सच्चाई
यहाँ पर छूट रही है
हर आदमी के हाथ में
उसी का चेहरा
कोलतार भरे गुब्बारे-सा
फैलता जा रहा है,
यह एक और मृत्यु की शुरुआत है...
बहरहाल, आन्दोलन का दायरा बढ़ता ही जा रहा था और जब जयप्रकाशजी ने 'दिल्ली चलो' का नारा दिया तथा दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल जनसभा की, उससे पहले ही मैं स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर पिताजी के पास दिल्ली चला आया था. आन्दोलन से मेरा सीधा संपर्क छूट गया था, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों और मित्रों की चिट्ठियों से आन्दोलन की गतिविधियों के समाचार मिलते रहते थे. उसके बाद तो घटनाक्रम जिस तेजी से बदला और आपातकाल लागू हुआ, उससे सारा देश परिचित है. आपातकाल की सख्तियों को देखते हुए इस बात की पूरी संभावना थी कि पिताजी को भी गिरफ्तार कर लिया जाएगा, लेकिन उन्हें गिरफ्तारी की कोई फिक्र नहीं थी. वह महज़ इसलिए चिंतित थे कि उन्हें जेल में पान-तम्बाकू कैसे मिलेगा ! खैर, पिताजी की उज्वल साहित्यिक छवि के कारण और राजनीति से असम्बद्ध रहनेवाले व्यक्ति के रूप में चिन्हित कर उन्हें छोड़ दिया गया. जीवन में पहली और अंतिम बार वह जेल जाने से बच गए और ताम्बूल-सेवन पर कोई संकट न आया. लेकिन उल्लेखनीय यह है कि दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से रात दो बजे जब जयप्रकाशजी को हिरासत में लिया गया, उस कठिन और आपाधापी से भरे क्षण में भी जे.पी. को पिताजी का स्मरण रहा. उन्होंने श्रीरामनाथ गोयनका से कहा था--"मुक्तजी का ख़याल रखियेगा. वह परदेस में संकट में न पड़ जाएँ !" यह उनकी सदाशयता थी, उनका बड़प्पन था, उनका औदार्य था. वैसे पिताजी को कई महीने बाद निकट मित्र गंगाशरण सिंहजी से इस बात का पता चला था, जो जे.पी. की गिरफ्तारी के वक़्त उनके पास थे. जब पिताजी ने यह बात घर में बतायी थी, तो मैं आश्चर्य से अवाक रह गया था. जिस व्यक्ति पर इतने बड़े आन्दोलन का दायित्व था, जो सर्वशक्तिमान सत्ता को चुनौती दे रहा था, उसके हथकंडों से जूझ रहा था और जिस पर सारे देश की नज़र थी, वह अपने एक समर्पित सम्पादक के कुशल-क्षेम के लिए, ऐसे कठिन समय में भी, चिंता कैसे व्यक्त कर सकता था ! मैं आज भी यह सोचकर चकित-विस्मित होता हूँ. लेकिन सच है, उदात्त भावनाओं से भरे लोकनायक जयप्रकाशजी ऐसे ही महामानव थे.
फिर वक़्त बदला, आपातकाल का अंत हुआ, सत्ता बदली. अपनी रुग्णावस्था के कारण ही जयप्रकाशजी को जेल से मुक्त किया गया. बाहर आकर जो कुछ उन्हें देखना-सहना पड़ा, उससे वह क्षुब्ध ही हुए. उनका जरा-जर्जर शरीर आघात सहता-सहता क्लांत हो चुका था. अंततः उन्हें मुंबई के जसलोक अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां वह डाईलिसिस की यंत्रणाएं झेलते-सहते रहे.
[क्रमशः] अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

[तीसरी किस्त]
बातें हो चुकी थीं.जे.पी. ने फ़ोन उठाकर सच्चिदानंदजी को कुछ आवश्यक निर्देश दिए. एक सेवक चाय-बिस्कुट ले आया. हमने चाय पी ही थी कि सच्चिदानंदजी कई पुस्तकें और कुछ मुद्रित सामग्री लेकर कक्ष में प्रविष्ट हुए. उन्होंने कई टंकित पत्र भी जे.पी. के सामने रखे, जिन पर उन्होंने हस्ताक्षर किये. फिर स्वयं उठकर पुस्तकों की आलमारी तक गए, एक पुस्तक ले आये. उन्होंने उसपर कुछ लिखा और सब कुछ पिताजी के हाथों में सौंप दिया. सच्चिदानंदजी ने जे.पी. के हस्ताक्षरित कई पत्रों को लिफ़ाफ़े में डालकर पिताजी को दिया. मुद्रित सामग्री का पैकेट भी साथ था. ठीक-से मैं सुन नहीं सका, लेकिन सच्चिदानंदजी ने जे.पी. को कुछ ऐसा स्मरण दिलाया कि अमुक पत्र अभी तैयार नहीं है, एक दिन बाद वह मिल सकेगा. जे.पी. ने पिताजी से कहा--"आप तो दिल्ली जाने की तैयारियों में व्यस्त रहेंगे, परसों यदि आनंदजी को भेज दें तो अमुक सामग्री भी आपके पटना छोड़ने के पहले आपको मिल जायेगी." यही निश्चित हुआ. हमने उन्हें प्रणाम निवेदित किया और विदा हुए. भवन से बाहर आते ही मैंने पिताजी से मांगकर वह पुस्तक देखी. वह उन्हीं की पुस्तक थी--'मेरी विचार-यात्रा', जिसपर उन्होंने लिखा था--"मित्रवर मुक्तजी को--सपेम, जयप्रकाश." यह पुस्तक आज भी मेरे संग्रह में सुरक्षित है. जयप्रकाशजी के प्रथम दर्शन से ही मैं अभिभूत होकर लौटा.
शेष सामग्री लेने जब मैं दुबारा जयप्रकाशजी के निवास पर पहुंचा, तो वहाँ अत्यधिक भीड़ थी. वहीं मैंने पहली बार युवा तुर्क नेता चंद्रशेखरजी के दर्शन किये थे. वहाँ तो हलचल मची थी. अहाते में इतनी भीड़ थी कि मुश्किल से बीच की राह बनाता मैं किसी तरह सच्चिदानंदजी के पास पहुँच सका. पहली बार की तरह सच्चिदानंदजी मुझे जे.पी. के कक्ष तक ले गए. मैंने उनके चरणों का स्पर्श किया, बोले--"प्रसन्न रहिये." सच्चिदानंदजी ने दो पत्र और कागजों का एक पुलिंदा मुझे दिया. जयप्रकाशजी ने मुझसे कहा--"यह सब मुक्तजी को दे दीजिएगा, उन्हें मालूम है कि इनका क्या करना है." मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया. और किसी बात की गुंजाईश नहीं थी. वहाँ मिलनेवालों की कतार लगी थी और लोकनायक को क्षण-भर का अवकाश और विश्राम नहीं था, जबकि उनका शरीर थका हुआ और क्लांत लग रहा था. मैंने उन्हें पुनः प्रणाम किया और कक्ष से बाहर निकल आया.
दूसरे दिन पिताजी तो दिल्ली चले गए और बिहार में उथल-पुथल बढती गई. महीने-डेढ़ महीने बाद पिताजी द्वारा संपादित साप्ताहिक 'प्रजानीति' का प्रवेशांक पटना आया था. फिर तो यह क्रम ग्यारह महीने तक सप्ताह-दर-सप्ताह चलता रहा. पाठक अधीरता से 'प्रजानीति' की प्रतीक्षा करते थे. 'प्रजानीति' के अंक बुक-स्टाल पर आते और हाथों-हाथ बिक जाते. उस दौर में पत्र ने पूरे देश में और खासकर बिहार में खलबली मचा दी थी.

जयप्रकाशजी के दो बार दर्शन करके मैं ऐसा अभिभूत हुआ था कि आन्दोलन में और सक्रियता से जुड़ा. पटनासिटी में हम नवयुवकों की टोली नागार्जुनजी की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियां करती, धरने देती, भूख हड़ताल पर बैठती और कर्फ्यू के आदेश की अवमानना करती.वे जोश-खरोश, उत्साह-उमंग और ऊर्जा से भरे दिन थे. आन्दोलन में सक्रियता से जुड़कर हमें ऐसा लगता था कि हम भी अपने देश के लिए कुछ अति महत्वपूर्ण कर रहे हैं, प्रदेश के नवनिर्माण में रेखांकित करने योग्य अपना-अपना योगदान दे रहे है. यह जज्बा, यह उमंग और उत्साह लोकनायक ने उन दिनों जन-जन में भर दिया था. यह जयप्रकाशजी का जादू था, यह उन्हीं के विराट व्यक्तित्व का कमाल था. कांग्रेस-जनों और सत्ता की चाटुकार टोली को छोड़कर ऐसा कौन था उस दौर में जो आन्दोलन की आग में कूद न पड़ा था !
पटना के गाँधी मैदान की उस जनसभा को मैं कभी भूल नहीं सकता, जिसमें जयप्रकाशजी ने बिहार की सोयी हुई जनता को जगाया था और सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया था.वह एक ऐतिहासिक विराट सभा थी. विशाल गाँधी मैदान तो खचाखच भरा ही था, मैदान के बाहर सड़कों पर, अगल-बगल के वृक्षों पर, भवनों पर लोग-ही-लोग दीखते थे. ऐसा जन-समुद्र मैंने पहले कभी नहीं देखा था. हाँ, पिछले वर्ष (२०११) श्रीअन्ना हजारे के जनलोकपाल के समर्थन में उमड़ी भीड़ उसी जन-पारावार का एक बड़ा अंश अवश्य थी, जिसे देखकर जयप्रकाशजी और उस दौर की मुझे बहुत-बहुत याद आयी थी....
[क्रमशः] अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

बुधवार, 12 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'

[दूसरी किस्त]
दूसरे दिन पिताजी इसी निश्चय के साथ उठे और उन्होंने हमें बताया--"मैंने निर्णय ले लिया है, मैं दिल्ली जाउंगा." मैंने झट-से कहा--"मैं जानता था, आप यही निश्चय करेंगे." उन्होंने पूछा--"तुम कैसे जानते थे ?" मैंने उन्हीं का बार-बार का कहा वाक्य दुहरा दिया. वह हंस पड़े और बोले--"अच्छा लगा यह जानकार कि अब तुम बड़े हो गए हो और पिता के मनोभाव समझने लगे हो." यथासमय वह तैयार होकर जयप्रकाशजी और गोयनकाजी से मिलने चले गए. देर शाम जब पिताजी घर लौट आये तो प्रसन्नचित्त दिखे. एक दिन पहले की उनकी व्यग्रता और चिंता तिरोहित हो चुकी थी.चार दिनों बाद का पिताजी को रेल का आरक्षण मिला. इन चार दिनों में उन्होंने पटनासिटी में फैला जाल समेटा, मुझे बहुत-सी हिदायतें दीं, बड़ी बहिन और छोटे भाई यशोवर्धन को बहुत कुछ समझाया-बताया और निश्चित तिथि को वह दिल्ली चले गए.
पिताजी के श्रीमुख से जयप्रकाशजी के बारे में बाल्यकाल से सुनता रहा था--उनकी युवावस्था के दिनों के बारे में, उनके क्रांतिकारी जीवन के बारे में, हजारीबाग जेल की विशाल दीवार लांघ जाने के बारे में और उनके त्याग-तपस्या-समर्पण के बारे में भी; लेकिन उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे अब तक प्राप्त नहीं हुआ था. इन चार दिनों के बीच ही मुझे दो बार उनसे मिलने का सुअवसर मिला, पहली बार पिताजी के साथ और दूसरी बार अकेले. दिल्ली जाने के पहले पिताजी को आन्दोलन के बारे में और प्रकाश्य पत्र की दिशा और चिंता के विषय में सब कुछ सीधे जयप्रकाशजी से जानना-समझना और सुनिश्चित करना था. जयप्रकाशजी ने ही पिताजी को दिल्ली-प्रस्थान के पूर्व एक बार मिल लेने को कहा था. पिताजी जब जयप्रकाशजी से मिलने जाने लगे, तो मैं भी उनके साथ हो लिया.
प्रथम दर्शन का सौभाग्य
जयप्रकाशजी के घर के बाहर नेताओं की, आन्दोलन के समर्थकों की और मुलाकातियों की अपार भीड़ जमा थी. हम ठीक निर्धारित समय पर सच्चिदानंदजी के कक्ष में पहुंचे. वह भीड़ से घिरे हुए थे, लेकिन जैसे ही उनकी दृष्टि पिताजी पर पड़ी, नमस्कारोपरांत वह बोल उठे--"चलें, जे.पी. आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं." वह सीढ़ियों से हमें प्रथम तल पर ले गए. बारामदे से होते हुए उन्होंने हमें जे.पी. के कक्ष में पहुंचा दिया. पिताजी को देखते ही जे.पी. अपने बिस्तर से उठ खड़े हुए और दोनों हाथ जोड़ते हुए बोले--"आइये मुक्तजी, आपसे विमर्श का समय हो गया है, बैठिये !" पिताजी ने झुककर उन्हें प्रणाम किया और मैंने आगे बढ़कर उनके पूज्य चरण छुए. पिताजी ने मेरा परिचय देते हुए कहा--"मेरे ज्येष्ठ पुत्र आनंदवर्धन हैं और इन दिनों आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं. नागार्जुन और रेणु के साथ नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में भाग लेते हैं और ज्यादातर घर से बाहर ही रहते हैं." पिताजी की बात सुनकर जे.पी. हलके-से मुस्कुराए और बोले--"इस दौर का अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, अच्छी बात है."
हम सभी बैठ गए और पिताजी लोकनायक से बातें करने लगे तथा मैंने जे.पी. के प्रभामंडित मुखमंडल पर ध्यान केन्द्रित किया. वह एक आरामकुर्सी पर विराजमान थे. दुग्ध-धवल कुरते-पायजामे में उनकी गोरी काया दीप्तिमान थी. वह दुबले-पतले कद्दावर व्यक्ति थे--उन्नत ललाट, दीर्घ बाहु और लम्बी सुदर्शन उँगलियोंवाले--प्रायः खल्वाट मस्तक ! उनकी तेजस्वी आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा था और वह पिताजी पर तीक्ष्ण दृष्टि डालते हुए गंभीर विचार-विमर्श में निमग्न थे. मैंने उनके कक्ष पर सर्वत्र दृष्टि डाली--वहाँ सादगी और सुरुचि का साम्राज्य था. उस लम्बवत कक्ष के एक छोर पर अपेक्षाकृत ऊँची पलंग पर उनका बिस्तर लगा था, जिसपर श्वेत चादर बिछी थी, श्वेत तकिये रखे थे. दो दीवारों पर दो चित्र लगे थे--एक पर महात्मा गांधी का, दूसरे पर विनोबा भावे का.एक टेबल पर लिखने-पढ़ने की सामग्री और प्रभावतीजी का फ्रेम-जड़ा चित्र रखा था तथा कुछ पुस्तकें आलमारियों में करीने-से सहेजकर रखी हुई थीं. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैं गाँधी आश्रम के किसी कमरे में आ पहुंचा हूँ. कुछ वैसी ही अनुभूति हुई, जैसी वर्षों पहले (संभवतः १९६५) में सदाकत आश्रम (पटना) में पूज्य राजेंद्र बाबू से मिलते हुए हुई थी. वहाँ एक पूत भाव का स्वतः सृजन हो रहा था...
मैंने देखा, जे.पी. पिताजी को पत्र की रूप-रेखा, दिशा और चिंता के बारे में विस्तार-से बता रहे हैं. पिताजी के प्रश्नों और उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए जे.पी. कभी गंभीर हो जाते, कभी मुस्कुरा उठते. बातों-बातों में पिताजी ने हठात पूछा--"क्या पत्र को शासन-तंत्र की हर अच्छी-बुरी बात का विरोध करना चाहिए, उसके हर आचरण की भर्त्सना करनी चाहिए ?" प्रश्न सुनते ही जयप्रकाशजी ने अपनी दायीं भुजा ऊपर उठाई और पूरी दृढ़ता से दो-तीन शब्द कहे--"no, fair criticism. शासक-दल भी कोई उचित कार्य करता है, जन-भावना का ख़याल रखकर कोई कदम उठाता है, तो हमें उसकी सराहना करनी चाहिए." जे.पी. का हाथ थोड़ी देर हवा में ही ठहरा रहा और उनकी लम्बी उंगलियाँ हवा में ही थरथराती रहीं. उनकी वह मुद्रा मेरे मानस पटल पर सदा के लिएअंकित होकर रह गई है. उम्र की इस दहलीज़ पर खड़े जे.पी. अपने आत्म-बल से सर्वशक्तिमान सत्ता के विरुद्ध हुंकार भर रहे थे, किन्तु उनके मन में अपने धुर विरोधियों के लिए भी रत्ती-भर द्वेष-भाव नहीं था. वह सत्पथ पर अडिग थे और प्रतिपक्षी के उचित आचरण की सराहना करने के पक्षधर थे. उनका यह अकेला वाक्य उनके विशाल और निष्कलुष ह्रदय का साक्ष्य देता-सा लगा मुझे !
[क्रमशः]

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'लोकनायक जयप्रकाश नारायण'

अब तो बात पुरानी पड़ती जा रही है, लेकिन इतनी भी नहीं कि मेरी स्मृतियों में उसकी चमक मद्धिम पड़ जाए. वह सन १९७२-७३ का ज़माना था. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण-क्रांति का आह्वान किया था, जिसे बिहार में जन-जन का विपुल समर्थन प्राप्त था. युवा वर्ग तो आंदोलित था ही, प्रख्यात राजनेता, विद्वान लेखक-कवि-चिन्तक, समाज-सुधारक, शिक्षक-छात्र, पत्रकार और राजकर्मी भी आन्दोलन में कूद पड़े थे. बिहार की तरुणाई ने अंगड़ाई ली थी और बर्बर शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने को कटिबद्ध हो उठी थी. कहना होगा, सम्पूर्ण बिहार ही एक स्वर में बोल उठा था तब ! यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण का करिश्मा था !
मेरे पूज्य पिताजी (स्व. प्रफुल्ल चन्द्र ओझा 'मुक्त') को आकाशवाणी-सेवा से अवकाश प्राप्त किये थोड़ा ही अरसा गुजरा था और वह इस उत्साह और उमंग से भरे हुए थे कि बंधन-मुक्त होकर अब लिखने-पढ़ने का बहुत सारा काम कर सकेंगे, जो कई-कई वर्षों से लंबित था. सन १९७३ के प्रारम्भ में ही उन्होंने मेरी बड़ी बहन का विवाह दिल्ली से किया था और इस दायित्व से मुक्त होकर पटना में पटना में उन्होंने अपने -पढ़ने-लिखने की नई व्यवस्था बना ली थी. उनके पास भाषा-सम्पादन और अनुवाद की अनेक पुस्तकों का क्रम लगा रहता था. इसके अतिरिक्त स्वलेखन का दायित्व तो उन पर था ही. पांडुलिपियों-पुस्तकों और अनेकानेक सन्दर्भ-ग्रंथों से घिरे वह दिन-रात काम में जुटे रहते थे. मैं उन दिनों पटना महाविद्यालय का स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र था और पटनासिटी में अपने नानाजी के विशाल परिसरवाले खजांची कोठी में रहता था.
सन १९७४ की गर्मियों के दिन थे. सुबह-सबेरे अचानक एक अम्बेसेडर कार परिसर में प्रविष्ट हुई. धोती-कुर्ता-बंडी और मोटे फ्रेम का अधिक पावर वाला चश्मा धारण किये एक दुबले-पतले सज्जन उससे उतरे. मैं उनके पास गया तो उन्होंने अपना नाम बताते हुए कहा--"मैं सच्चिदानंद, जे.पी. का पी.ए. हूँ. उन्होंने ही मुझे भेजा है. मैं 'मुक्तजी' से मिलना चाहता हूँ. क्या वे घर पर हैं ?" मैंने स्वीकृति में सर हिलाया और उन्हें बाहरी दालान में पड़ी कुर्सी पर बिठाकर पिताजी को सूचित करने अन्दर चला गया. पिताजी ने यह जानकार कि जयप्रकाश जी के निजी-सचिव आये हैं, वह जिस हाल में थे, वैसे ही उठ खड़े हुए और उनके पास पहुंचकर बातें करने लगे. वार्ता पांच मिनट भी न हुई होगी कि पिताजी क्षिप्रता-से अन्दर आये और उन्होंने मुझसे कहा--"जयप्रकाशजी ने बुलाया है, मुझे तत्काल जाना होगा. मेरे कपडे निकाल दो." पिताजी तुरंत तैयार हुए और सच्चिदानंदजी के साथ कार से विदा हो गए.
तब जयप्रकाशजी पटना के कदमकुआं मोहल्ले के अपने आवास में रहते थे जो पटनासिटी से प्रायः सात-आठ किलोमीटर दूर था. मैं जानता था कि पिताजी को लौटने में विलम्ब होगा, लेकिन इतना होगा, यह नहीं जानता था. उन्होंने दिन का भोजन भी नहीं किया था. लौटे, तो शाम होने को थी. उनकी मुख-मुद्रा से लगा कि वह प्रसन्न हैं और साथ ही किञ्चित व्यग्र और चिंतित भी. इसका कारण जानने के लिए हम सभी उनकी ओर प्रश्नाकुल बने देख रहे थे. उन्होंने हमें बैठने को और बड़ी बहन को चाय बनाने को कहा, फिर वस्त्र बदलकर हमारे पास आये, बैठे और बोले--"जयप्रकाशजी का आदेश है कि मैं दिल्ली चला जाऊं और बिहार आन्दोलन को समर्थित पत्र का सम्पादन करूँ. कल मुझे जयप्रकाशजी के पास फिर जाना है, इस निर्णय के साथ कि यह दायित्व उठाने को मैं तैयार हूँ या नहीं ! कल वहाँ इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी रामनाथ गोयनकाजी भी आ रहे हैं. तुमलोग जानते हो कि जयप्रकाशजी की बात उठाना मेरे लिए कठिन है, लेकिन मेरी मुश्किल यह है कि तुम सबों को छोड़कर मैं दिल्ली चला जाऊं तो घर कि देख-संभाल कैसे होगी ? बच्ची (मेरी छोटी और मानसिक रूप से अविकसित बहन) को कौन संभालेगा ?" फिर मेरी ओर देखकर बोले--"और अभी तो तुम्हारी अंतिम वर्ष कि परीक्षा भी होनी है... !" मेरी बड़ी बहन सीमाजी बोलीं--"बाबूजी, आप बच्ची कि फिक्र मत कीजिये, उसे मैं देख लूँगी. आप तो सम्पादन के लिए स्वीकृति दे दीजिये." इस लम्बी चर्चा और रात्रि-भोजन के बाद जब पिताजी शयन के लिए अपने कक्ष में इसी दुबिधा के साथ चले गए, तो मैंने भी चारपाई पकड़ी. लेकिन मुझे कोई संशय नहीं था कि पिताजी कल किस निश्चय के साथ उठेंगे. मैं जानता था कि वह स्वीकृति ही देंगे; क्योंकि बाल्यकाल से मैंने कई बार उनके मुख से सुना था कि 'बिहार में दो व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके आदेश की अवमानना वह कभी कर ही नहीं सकते--पहले, देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद (जिन्हें वह 'बाबू' कहा करते थे) और दूसरे जयप्रकाश नारायण !'
[क्रमशः]