मंगलवार, 18 सितंबर 2012

अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे : जयप्रकाश नारायण

[पांचवीं किस्त]
एक दिन पिताजी के अनन्य मित्र स.ही. वात्स्यायन 'अज्ञेय'जी ने उनके सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि मुंबई जाकर जयप्रकाशजी से मिल आना चाहिए. उन दिनों पिताजी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे. आपातकाल की घोषणा के साथ ही 'प्रजानीति' पत्र बंद हो चुका था. पिताजी अज्ञेयजी के साथ ही 'नया प्रतीक' के सम्पादन और अनुवाद के अन्य कामों में लगे हुए थे. उन्होंने अपनी असमर्थता अज्ञेयजी के सम्मुख रखी--"इच्छा तो मेरी भी होती है कि एक बार जयप्रकाशजी से मिल आऊं, जाने फिर यह अवसर भी हाथ लगे, न लगे; क्योंकि जैसी उनके शरीर की दशा है, उससे मन बहुत आश्वस्त नहीं है." अज्ञेयजी बोले--"इसीलिए तो आप से कह रहा हूँ. जानता हूँ, आप दोनों एक-दूसरे से मिलकर प्रसन्न होंगे. आप कुछ न सोचें, बस साथ चलें. आप साथ होंगे तो मेरी हिम्मत भी बनी रहेगी." पिताजी की आतंरिक इच्छा तो थी ही, उन्होंने स्वीकृति दे दी.
पिताजी की स्वीकृति के बाद अज्ञेयजी ने विलम्ब नहीं किया, तत्काल रेल का आरक्षण लेने के बाद पिताजी को यात्रा की तिथि वगैरह बता दी. दोनों मित्र नियत तिथि को मुंबई चले गए. जसलोक अस्पताल में दो दिनों में दो बार पिताजी और अज्ञेयजी जयप्रकाशजी से मिले. मुंबई से लौटकर पिताजी ने बताया था कि जयप्रकाशजी हुलसकर मिले थे और उन्होंने बहुत-सी बातें की थीं; जबकि उन्हें अधिक बोलने की मनाही थी और बोलना उनके लिए कष्टकर भी था. पिताजी और जयप्रकाशजी की वार्ता भोजपुरी में शुरू होती, फिर अज्ञेयजी का ख़याल कर जे.पी. हिंदी में बोलने लगते थे और बातें हिंदी में होने लगतीं: किन्तु थोड़ी ही देर बाद पिताजी की ओर मुखातिब होकर जब जे.पी. कुछ कहने लगते तो भाषा स्वतः भोजपुरी हो जाती. ऐसा जब दो-तीन बार हुआ तो जे.पी. ने अज्ञेयजी से कहा--"मुक्तजी से मेरी बातचीत की भाषा वर्षों से भोजपुरी रही है, इसलिए...! आप कुछ ख़याल न कीजिएगा." अज्ञेयजी ने प्रतुत्तर में बस इतना कहा था--"भोजपुरी मैं बोल नहीं पाता, लेकिन समझता तो अच्छी तरह हूँ."
पिताजी जयप्रकाशजी से मिलकर जब लौटे थे, क्षुब्ध और चिंतित थे. उन्होंने बताया था कि वह बहुत दुर्बल हो गए हैं और रोग भी ऐसा है जो लगातार उपचार की मांग करता है. पिताजी मुखर होते हुए भी धीर-गंभीर व्यक्ति थे. अपने मन पर उनका अद्भुत संयम था. किसी भी पीड़ा, अभाव, संकट की छाया अधिक समय तक उनकी मुखमुद्रा पर टिकी नहीं रह पाती थी, किन्तु जयप्रकाशजी की शारीरिक दशा से वह सचमुच लम्बे समय तक आक्रान्त दिखे थे और आगंतुकों से उनकी हालत की चर्चा करते हुए दुखी हो जाते थे.
कुछ समय बाद ही परिस्थितियों ने करवट बदली. जयप्रकाशजी मुम्बई से पटना लौट गए और वहीँ उनका उपचार होने लगा. सन १९७९ में मैं भी दिल्ली से स्थानांतरित होकर हरद्वार चला गया. कुछ समय बाद पिताजी भी दिल्ली त्याग कर मेरे पास हरद्वार आये. लेकिन विधि-संयोग कुछ ऐसा बना कि जिस रात पिताजी ने दिल्ली से ट्रेन से प्रस्थान किया, उसी रात जयप्रकाशजी के जीवन-मुक्त होने का दुह्संवाद आया. पिताजी सारी रात ट्रेन में सो न सके थे. मेरे पास पहुंचे तो दुखी और अवसन्न थे. उनका पचासों वर्ष पुराना सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया था.
पिताजी ने अपनी पुस्तक 'पहचानी पगचाप' में जयप्रकाशजी पर लिखे दो संस्मरणों ('जब लोकनायक रो पड़े थे' तथा 'एक और दधीचि : लोकनायक जयप्रकाश नारायण') में अपने संबंधों की विस्तार से चर्चा की है, उन्हें स्मरण-नमन किया है.
कई-कई वर्षों बाद जब पटना के कदमकुआंवाले जयप्रकाशजी के आवास (आज जहां प्रभावतीजी द्वारा स्थापित 'महिला चरखा समिति' का दफ्तर है) पर जाने का संयोग बना, तो वहाँ का सूनापन देखकर मन में एक टीस उठी. कल तक जहां हाली-मुहाली लगी रहती थी, लोगों की भीड़ से परिसर गुंजायमान रहता था, जहां छुटभैये और दिग्गज राजनेताओं को मैंने कभी पंक्तिबद्ध देखा था, वहाँ मन को सालनेवाला एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के विशाल आँगन में बड़ी-बड़ी घास उग आयी थी और वहाँ एक दरबान और कुछ कामकाजी महिलाएं ही थीं. वहीँ मैंने एक प्रखर जीवन का चरमोत्कर्ष देखा था और उसकी नियति देखकर यह जान सका था कि प्रचंड सूर्य के अस्तंगत हो जाने पर कैसा घना अन्धकार सर्वत्र व्याप्त हो जाता है. ...
[अगले अंक में समापन] अँधेरी कोठरी के अकेले रौशनदान थे : जयप्रकाश नारायण

1 टिप्पणी:

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

देवेन्द्रजी,
आपकी प्रतिक्रया से संतुष्ट हूँ ! सच है, वे दिन ही ऐसे थे! बिहार में ही नहीं, सारे देश में एक ऐसा current दौड़ गया था कि बड़े-बूढ़े और बच्चे की नस-नाड़ियों में उमंगें भर गई थीं ! संस्मरण ने आपको अपना बचपन का दिन याद दिलाया, यह जानकर लगा कि इस लेखन ने कुछ हद तक अपना काम किया है!
आभार सहित, सप्रीत-आ.