सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

गाँठें....

गाँठ पुरानी थी
सदियों से खुली न थी;
लेकिन चुभती तो थी !
वर्षों बाद
मेरी देहरी पर वह आया
मन की एक गाँठ खोल गया !

गाँठ  तो खुली,
उसके  बल-पेंच रह  गए !
विनम्रता से भरी
उसकी मीठी ज़बान में
जितना ज़हर  था,
हम  निःशब्द  पी  गए !

ज़हर पीकर  भी
हम  नीलकंठ तो न  हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर  भी
साधु न हो सके;
आदमी  ही रहे --
सामान्य आदमी !

विष  हलक के नीचे  उतरा
नस-नाड़ियों में  फैला
और नई गाँठें दे गया !!