शनिवार, 24 नवंबर 2012

यह जीवन भी तो...



सघन वन को चीरती
दुग्ध-धवल रेखा बनाती
इक नदी उन्मत्त चली...
प्राण-वेग से कूद पड़ी वह
पर्वत-शिखरों से--
भू-तल पर आयी,
बन गई प्रपात !

मैंने तल पर खड़े-खड़े
देखा प्रपात को
प्रस्तर-खण्डों पर उसने बड़े वेग-से
सिर पटका था,
घोर गर्जना करता
बूँद-बूँद बन बिखर गया वह;
फिर बूंदों के भी सहस्रांश
हवा में बिखरे,
नमी छोड़ घुल गए हवा में...
बूँदों के नन्हें-नन्हें बच्चे
जाने कैसे, कहाँ खो गए,
अभी-अभी तो यहीं दिखे थे,
हवा हो गए....!

यह जीवन भी तो
ऐसा ही है--
भू-तल पर आया,
देखा प्रकाश--
मुग्ध-विस्मित हुआ,
क्षण-भर को चमका--
स्फुर्लिंग-सा
हुआ विलुप्त !!

[लवासा के एक प्रपात के पास लिखित पंक्तियाँ]

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

यह मंगल-दीप जले...



आलोकित हो जीवन-पथ
जन-मन में उल्लास पले,
यह मंगल-दीप जले !

आँगन-आँगन हो उमंग,
मुदित मोद नाचे अभंग,
आशाओं की बगिया में
सुरभित पुष्प खिले ! यह मंगल-दीप जले !!

एक दीप अकेला मदमाये,
अंतर उजास से भर जाए--
ज्योतित होकर आकाश-दीप
धरा अम्बर के मिले गले ! यह मंगल-दीप जले !!

यह दीप्ति अनोखी न्यारी है,
इस प्रभुता की बलिहारी है,
तिमिर-दुर्ग का हो विनाश
जब इक बाँकी किरण चले ! यह मंगल-दीप जले !!

अभ्यंतर में जब हो प्रकाश
सघन तिमिर का हो विनाश,
आलोक-पर्व पर ज्योति-दान
जन-जन को बहुत मिले ! यह मंगल-दीप जले !!

[चित्र वंदना अवस्थी दुबेजी से साभार, उनकी अनुमति के बिना, क्षमा-याचना सहित]

सोमवार, 5 नवंबर 2012

अभी नहीं चुका हूँ मैं...


[मित्रों, आज प्रभु-कृपा से मैंने जीवन के साठ वर्ष पूरे किये हैं. सुबह सोकर उठा, तो प्रथमतः जो भाव उपजे, उन्हें कविता-तत्त्व का ख़याल किये बिना लिख डाला था. इन भावों को आपके सम्मुख रख रहा हूँ. --आ.]

मैं न रुका था कभी,
मैं न झुका था कभी,
जीवन की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते
साठ सीढ़ियाँ लाँघ चुका मैं
सोच रहा हूँ--
अभी और आगे चलना है,
निर्द्वंद्व चलूँगा,
नहीं रुकूँगा,
लूँगा अब संकल्प नए,
स्वर नए साधूंगा,
काल के कपाल पर
पाग नया बांधूंगा,
अवरोधों से जूझूंगा,
जीवन को और ज़रा बूझूँगा !

जब तक सीढ़ी ख़त्म न हो
चढ़ता जाउंगा,
बढ़ता जाउंगा;
चुकना होगा जब--
चुक जाऊँगा,
अभी नहीं चुका हूँ मैं...!

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

मेरी सीमाएं हैं....



प्रियवर, मेरी सीमाएं हैं
मैं परतें ज्यादा खोल नहीं सकता;
जिह्वा पर लगा हुआ पहरा,
इससे ज्यादा कुछ बोल नहीं सकता! प्रियवर...

बातें कड़वी लग सकती हैं
पर न्याय-तुला की और बात;
सच का पलड़ा ही झुकता है,
असत सत्य को तौल नहीं सकता! प्रियवर...

जो पंख लगाकर उड़ते हैं
अपने ही मन के आँगन में;
वे होंगे भू-लुंठित एक दिन,
यह परम सत्य, पर बोल नहीं सकता! प्रियवर...

कामनाएं रूप बदलती हैं
मन माया से संचालित है;
पर-दोष दिखाई देता जब,
कोई अंतर की गांठें खोल नहीं सकता! प्रियवर...

विश्वास छला जाता हो जब
भरोसा खंड-खंड हो बिखर रहा;
अवगुंठन से बाहर आकर--
कलुष ह्रदय सच बोल नहीं सकता! प्रियवर...

हर पीढ़ी की तरुणाई पर
धरती अंगड़ाई लेती है,
हिमशिला दाह से गलती, वरना
नदियों में नीर मृदुल भी डोल नहीं सकता! प्रियवर...

मन के सारे बंधन तोड़ो
काटो-काटो यह कुटिल जाल;
तुम बोल रहे तो हलचल है,
यह महामौन मुंह खोल नहीं सकता!
प्रियवर, मेरी सीमाएं हैं,
मैं परतें ज्यादा खोल नहीं सकता!!