सोमवार, 8 अप्रैल 2013

मैं ग़ज़लों को गुलाब कहता हूँ...

मैं उनकी ग़ज़लों को गुलाब कहता हूँ,
इन चरागों को आफ़ताब कहता हूँ !

शेरो-सुखन का इल्म कितना दिलफरेब है,
उनकी हर बात पे मैं वाह जनाब कहता हूँ!

इस हसीन नश्तर का हुनर तो देखिये--
हौले-से चुभता है तो लाजवाब कहता हूँ!

खुली आँखों से देखा करता हूँ सारे मंज़र,
बड़े यकीन से फिर उनको ख़्वाब कहता हूँ!

रोज़-ब-रोज़ गिराते हैं कलेजे पे बिजलियाँ,
उनकी नवाजिशों को बेहिसाब कहता हूँ!

चराग ले के भी ढूँढ़ता तो मिलता नहीं वो,
मोड़ पे ठहरा रहा जो, उसे इंतखाब कहता हूँ!

हम जितनी दूर साथ चलें, मस्ती से चलेंगे,
पस्तियों को मैं खाना-खराब कहता हूँ!

खुदा का नूर है या कोई बाँकी किरन है,
उसकी बाबस्तागी को मैं अदाब कहता हूँ!!