शुक्रवार, 2 मई 2014

लिखूंगा तुम्हें भी...

[१ मई, मजदूर दिवस पर यह कविता लिखनी शुरू की थी, व्यावधान के कारण पूरी न हो सकी. कल रात लिख डाली है और आज आपके सम्मुख रख रहा हूँ. लेकिन दो दिनों के विलम्ब का खेद तो है ही--आनंद]

इस तरह परेशानकुन होने से क्या होगा ...?
सलीक़े से पंक्ति में खड़े रहो
करो अपनी बारी की प्रतीक्षा
सब्र और शान्ति से--
(जिसका तुम्हें दीर्घकालिक अभ्यास भी है!)
लिखूंगा तुम्हें भी--
अवसर तो मिलने दो!

मैं भी तो रौंदता फिरता हूँ
अर्थों को,
अनर्थों को भी--
दिन-रात
उजाले अपने हिस्से में
खींच लाने की कवायद में
अंधेरों से लड़ता हूँ सौ-सौ बार रोज़
इस आपाधापी में वक़्त ही कहाँ मिलता है कि
तुम्हें सोचूं, सहलाऊँ, गोड़ूं, गूँथूँ, फिर गढ़ूं...
थोड़ा वक़्त तो दो
लिखूंगा तुम्हें भी.…
कि कैसे तुम्हें जबड़ों के बीच
कुचला गया है,
कैसे निचोड़ी गई हैं
तुम्हारी साँसें,
किन विधि-व्यवस्थाओं ने किया है
तुम्हारी अगाध शक्ति का दोहन,
कैसे हुआ है तुम्हारी आत्मा का हनन
किन कुचक्रों, षड्यंत्रों ने
पहनाया है तुम्हें दीनता का कफ़न...
थोड़ी प्रतीक्षा तो करो--
लिखूंगा तुम्हें भी...

किन ताप-भट्ठियों में
तुम्हें तपाया गया है,
किन विशाल अट्टालिकाओं के
शीर्ष पर चढ़ाया गया है
सौ-सौ मन वज़न के साथ,
किन सलीबों पर झूलते
तुम जीते हो,
ज़िन्दगी का ज़हर
कैसे चुपचाप पीते हो...!
कभी नींव में बिछ जाते हो,
कभी कंगूरों पर इठलाते हो...!
भई, लिखूंगा तुम्हें भी...!

तुम्हारी सम्पूर्ण सत्ता के ध्वजवाहक भी
आकर दे जाते हैं--नारे, भाषण--
भूख, जहालत और शोषण के विरुद्ध
और तुम्हें थमा जाते हैं लाल झंडे
पूरे वर्ष के लिए...
और तुम साल भर
एड़ियां रगड़ते
नख से शिख तक धूल-धूसरित
स्वेद में सने हुए
तप्त रक्त-कण बने
लाल हुए रहते हो,
आश्वासनों की खाट पर
औंधे मुंह पड़े रहते हो
और फिर दूसरे दिन के उजाले में
वहीं खड़े मिलते हो
जहां से उतरकर तुम
मेरे पास आये हो आज...!

थोड़ी मोहलत तो दो
सोचूंगा तुम्हें भी,
लिखूंगा तुम्हें भी...
मेरे मेहनतकश भाई....!!