मंगलवार, 24 जून 2014

'आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री' : आचार्य शिवपूजन सहाय

[मित्रो, सोच था, पितामह पर पिताजी के लिखे दो संस्मरण ब्लॉग पर रखकर स्मृति-तर्पण की इति कर लूंगा; लेकिन पितामह पर आचार्य (स्व०) शिवपूजन सहाय का लिखा एक और बहुत रोचक संस्मरण हस्तगत हुआ है और उसे आपके सम्मुख रखने के लोभ का मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आलेख लम्बा है, फिर भी मैं चाहूँगा कि आप भी थोड़ा श्रम और समय खर्च करके इसे अवश्य पढ़ें। इसे आप पढ़ेंगे तो कुछ-न-कुछ प्रसाद ही पाएंगे, ऐसा मेरा मन कहता है। --आनंद.]



बिहार प्रदेश के शाहाबाद जिले में 'ब्रह्मपुर' बहुत प्रसिद्ध स्थान है। वहाँ फाल्गुनी और वैशाखी शिवरात्रि के अवसर पर बहुत बड़ा मेला होता है। शिवजी का वैसा विशाल और प्रशस्त मंदिर बिहार में शायद ही कहीं हो। कहते है कि महाकवि तुलसीदास वहाँ आये थे। वहाँ से एक-डेढ़ कोस दूर दक्षिण जो 'रघुनाथपुर' नामक गांव है, उसका नामकरण तुलसीदासजी ने ही किया था। यह रघुनाथपुर पूर्वीय रेलवे का एक स्टेशन है।

उपर्युक्त ब्रह्मपुर से लगभग एक कोस उत्तर 'निमेज' नाम का एक बड़ा गांव है। शास्त्रीजी उसी गाँव के निवासी थे। पर उन्हीं के कथनानुसार वह अपने बालपन में ही जो घर से निकले तो फिर गांव में कभी बसेरा न लिया। संयोगवश यदा-कदा  गांव जाते-आते थे, किन्तु रहे जीवन भर बाहर ही। कहा करते थे, बचपन में मुझे घुड़सवारी का बड़ा शौक था। गधा और खसी पर चढ़कर अभ्यास करता  था। खेतों में चरते हुए लद्दू-टट्टुओं पर चढ़कर घूमता चलता था। तब धूप और वर्षा की भी कुछ परवाह न थी। बचपन का यह अभ्यास सयाना होने पर घुड़सवारी में बड़ा काम आया।

एक बार पंडित सकलनारायण शर्मा (महामहोपाध्याय) से बातचीत करते समय शास्त्रीजी ने उपर्युक्त बातें बतलाई थीं। शर्माजी ने भी अपने बचपन का किस्सा सुनाते हुए कहा था, "मैं तो उठती जवानी तक सैलानी रहा, बचपन में नंबरी नटखट और रेख-उठान तक हुरदंगी।"

किन्तु बचपन के ये दोनों घुमक्कड़ आगे के जीवन में संस्कृत के उद्भट विद्वान हुए। हिंदी-जगत में भी दोनों का यश अमर है।


शास्त्रीजी जब बालक थे, तभी उनके मन में विद्यानुराग जाग उठा। वह डुमरांव (शाहाबाद) जाकर वहाँ के राजा की संस्कृत-पाठशाला में पढने लगे । ऐसे प्रतिभाशाली निकले किदूसरे विद्यार्थी उनसे बड़ी ईर्ष्या करने लगे। पर सहनशीलता उनके स्वभाव की मुख्या विशेषता थी। धैर्य के साथ उन्होंने कशी जाने की योग्यता अर्जित कर ली।

काशी में उन्होंने क्वींस कॉलेज में नाम लिखाया। कॉलेज के प्रिंसिपल वेनिस साहब ने उनकी लगन और श्रद्धा से संतुष्ट होकर कई अँगरेज़ और जर्मन छात्रों को संस्कृत सिखाने का काम सौंप दिया। शास्त्रीजी कहा करते थे कि वेनिस साहब तो संस्कृत के अनन्य अनुरागी थे ही, संस्कृत सीखनेवाले अँगरेज़ और फ्रेंच तथा जर्मन छात्रों में जो तत्परता थी, वह भारतीय छात्रों में भी नहीं थी। यूरोपवालों के संस्कृत-प्रेम कि प्रशंसा वह प्रायः किया करते थे। जिन विदेशी छात्रों को वह संस्कृत पढ़ाया करते थे, उनलोगों ने वेनिस साहब से शास्त्रीजी की अद्भुत मेधाशक्ति की बड़ी प्रशंसा की। वेनिस साहब भी उन्हें प्रत्येक कक्षा में सर्वोच्च स्थान पाते देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। उनसे शास्त्रीजी को प्रोत्साहन तो मिलता था, पर वह कभी उनसे अपने अभावों की चर्चा नहीं करते थे। उन्हें जो छात्रवृत्ति और संस्कृत पढ़ाने का पारिश्रमिक मिलता था, उसीसे अपना निर्वाह कर लेते थे। डुमरांव अथवा काशी में पढ़ते समय कभी घर से कोई सहायता न मांगी। स्वावलम्बन ही उनका आजीवन व्रत रहा। जब वह अपने अभावों और कष्टों की कहानी सुनाने लगते थे,तब उनकी विद्वत्ता और तपस्या देखकर उनके प्रति अनायास ही श्रद्धा उत्पन्न होती थी।

छात्रावास में कई बार उन्हें भूखों रह जाना पड़ा। जाड़े में भी धोती की जगह अंगोछा मात्र लपेटे, नंगे बदन, कम्बल ओढ़े रह जाते। पर किसी भी दशा में उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं पसारा। एक बार तो पैसा न रहने पर अपने गाँव से पैदल ही काशी की ओर चल पड़े थे। अभावों और कठिंनाइयों को वह ईश्वर की दें कहा करते थे। हर हालत में सदैव प्रसन्न रहना उनका सहज स्वभाव था। दरिद्रता को वह अपनी जीवनसंगिनी कहते थे, जिसका वरण उन्होंने स्वेच्छापूर्वक किया था।

जहां तक मुझे याद है, लगभग बावन वर्ष की उम्र में भूकम्प के साल उनका देहांत हुआ, तो हिंदी-संसार के प्रतिष्ठित विद्वानों और पत्र-पत्रिकाओं ने मुक्त-कंठ से उनका गुणगान किया था। उनके विषय में लोकमत का उतना ऊंचा धरातल देखकर ही समझ में आया कि वह देश की कितनी बड़ी विभूति थे। परन्तु यह संसार कभी युगपुरुष को जीते-जी नहीं पहचानता।

शास्त्रीजी के काशी के सहपाठियों में स्वनामधन्य पंडित रामावतार शर्मा (महामहोपाध्याय) भी थे। महामहोपाध्याय गंगाधर शास्त्री के दोनों ही पट्टशिष्य थे। दोनोँ ही अपने युग की गौरव-वृद्धि कर गए। शर्माजी को भी, उनके निधन के बाद ही, बड़े-से-बड़े विद्वानों ने कपिलकणाद के तुल्य कहा। यही इस संसार की रीति चली आ रही है। शर्माजी और शास्त्रीजी ने बिहार की धरती पर जन्म लेकर उसे धन्य बनाया, पर उसने दोनोँ अनमोल लालों को ठीक-ठीक नहीं पहचाना। मृत्यु के उपरान्त ही पिंडदान की तरह कीर्तिगान करने की भी परंपरागत प्रथा है। शास्त्रीजी सच्चे त्यागी-तपस्वी थे, यह बात अगर दुनिया निगोड़ी उनके उठ जाने से पहले समझ पाती, तो शायद उसकी असलियत की पोल खुल जाती।

शास्त्रीजी के सर्वप्रथम दर्शन का सौभाग्य मुझे प्रयाग में प्राप्त हुआ। 'विद्यार्थी' के संपादक पंडित रामजीलाल शर्मा के घर पर बैठे वह कुछ लिख रहे थे। उस समय वह 'शारदा' नमक संस्कृत-मासिक पत्रिका के संपादक थे। 'समाज' नाम का एक हिंदी-मासिक भी निकालते थे। मेरे साथ मेरे मित्र कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन भी थे। जैनजी ने अपने प्रेम-मंदिर (आरा) से 'प्रेमकली', 'प्रेम-पुष्पांजलि', 'त्रिवेणी', 'सेवाधर्म' आदि सुन्दर पुस्तकें प्रकाशित की थीं। वे पुस्तकें वहाँ के इंडियन प्रेस में बड़े आकर्षक ढंग से छपी थीं, उन पर शास्त्रीजी की सम्मति की आवश्यकता थी। शास्त्रीजी उन पुस्तकों को देखकर कहने लगे--"आज बीसवीं शताब्दी के उषःकाल में चारों ओर प्रेम-पुष्पों की सुगंध बड़े वेग से फाइल रही है--जान पड़ता है कि मध्याह्न होते-होते यह मादक गंध नयी पीढ़ी को मदांध बना देगी। आपको साहित्य-सेवा करने का अनुराग ईश्वर ने दिया है तो रामायण-महाभारत आदि को हिंदी-प्रेमियों तक पहुंचाने का प्रयत्न कीजिये।"

जैनजी उनका मुंह ताकने लगे। वह (शास्त्रीजी) दो-टूक बात कहने में बड़े निर्भीक थे। स्पष्टवादिता भी उनकी एक विशेषता थी। वह जैनजी को हतोत्साह देखकर भी कहते रहे--"मनुष्य को प्रेम सिखाने की आवश्यकता नहीं है, वह सांसारिक प्रेम में अत्यंत निपुण है, उसे परमार्थ और परमात्मा के प्रेम की ओर प्रेरित करने की आवश्यकता है।"

जैनजी ने मंद स्वर में निवेदन किया कि यही सम्मति लिखकर देने की कृपा कीजिये। पर उन्होंने फिर कहा, "अनुचित प्रोत्साहन देने के लिए सम्मति प्रदान करना मेरी प्रकृति के विरुद्ध है। मेरा मत है कि सबसे पहले अपने देश के प्राचीन साहित्य का उद्धार और प्रचार होना चाहिए तथा उसी के आधार पर नये साहित्य की सृष्टि करनी चाहिए, फिर कूपमंडूकता के दोषारोपण से बचने के लिए अन्यत्र के साहित्य को अपनाना चाहिए। प्रेम और सेवा पर जो साहित्य आपने (जैनजी) प्रकाशित किया है, उसमे अधिकाँश विदेशी सामग्री है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भारतीय साहित्य में प्रेम और सेवा पर जो सामग्री मिल सकती है, वह अन्यत्र कहीं नहीं?"

जैनजी मौन ही रहे। तब शास्त्रीजी ने मेरा परिचय पूछा। वह यह जानकार बड़े प्रसन्न हुए कि मैं भी उन्हीं के जिले (शाहाबाद) का निवासी हूँ। उन्होंने यह उपदेश दिया कि हिंदी-लेखक बनना चाहते हो तो संस्कृत खूब पढ़ो। मैंने जब कहा कि संस्कृत की प्रथमा परीक्षा पास कर चुका हूँ, तब बड़े जोर से हंसकर मेरी पीठ ठोकते हुए बोले कि--"तुम बड़े भोले जान पड़ते हो। अरे, मैं तो साहित्याचार्य होने पर भी यही समझता हूँ कि अभी संस्कृत-महासागर को दूर से ही तरंगित देख रहा हूँ, उसमें प्रवेश करना तो दूर, उसके तट तक भी नहीं पहुंचा हूँ।"

उनकी बात सुनकर मेरा चेहरा उतर गया। मैंने कहा कि मैं संस्कृत पढ़ना चाहता हूँ। बोले, "तुम्हारे ठाट-बाट से संस्कृत पढ़ने के लक्षण नहीं प्रकट होते। तुम बाल सँवारे, पान खाए हुए हो, तुम्हारे जूते चमकते हैं, सुनहली कमानी का चश्मा है--ये सब लक्षण संस्कृत सीखने के नहीं हैं। अंगेज़ी-फ़ारसी की तरह संस्कृत नहीं सीखी जा सकती, उसके लिए कठोर साधना की आवश्यकता है--संस्कृत के विद्यार्थी को ब्रह्मचारी और संयमी होना चाहिए, वह ऋषियों और त्यागी-तपस्वियों की भाषा है। विलासियों से देववाणी की पटरी नहीं बैठती।"

उनके वे मार्मिक शब्द आज भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं। मैं हतप्रभ हो गया। पहाड़ के पास पहुंचकर ऊँट अपनी ऊँचाई भूल गया।

पंडित रामजीलाल शर्मा आर्यसमाजी थे। वह पहले इंडियन प्रेस में 'सरस्वती' विभाग का काम करते थे। फिर स्वतंत्र रूप से प्रेस खोलकर 'विद्यार्थी' निकालने लगे और स्वाबलंबी बनकर अपने अध्यवसाय के बल से बहुत उन्नति कर गए। अपने देश के विद्यार्थियों के लिए उन्होंने प्रचुर सत्साहित्य प्रकाशित किया। शास्त्रीजी के बाद वह भी हम दोनों को सीख देने लगे। उन्होंने रामानंद सरस्वती के आदर्श जीवन से शिक्षा ग्रहण करने की सलाह दी। शास्त्रीजी सनातनधर्मी थे। उनकी स्वाभाविक विनोदप्रियता हुलसी। बोले, "तुम लोग मेरे मित्र शर्माजी की बात मानकर स्वामीजी के आदर्श से अवश्य पाठ सीखो, क्योंकि इन्होंने भी स्वामीजी के सिद्धांतों के अनुसार कोट-पतलून धारण किया है और एक यवनी युवती की शुद्धि करके उससे विवाह किया है तथा एक अक्षतयोनि विधवा का पुनर्विवाह कराने के लिए अपने परिवार के एक युवक को प्रेरणा देकर उत्साहित कर रहे हैं। तुमलोगों की वेश-भूषा से इनको पता लग गया कि तुमलोग विवाहित हो, नहीं तो ये अपना रसायन सिद्ध करने के लिए ठोक-पीटकर वैद्यराज बना लेते। आजकल इन्होंने यही धंधा उठाया है कि मनचले नवयुवकों को देखकर विधवा-विवाह के लिए उन पर डोरा डालते रहते हैं।"

वे दोनों मित्र हँसने लगे और हम दोनों मित्र वहाँ से चल पड़े। जैनजी उस समय यमुना के पुल के पास वाले ईसाई-मिशनरी कॉलेज में पढ़ रहे थे। उन दिनों उस अमेरिकन मिशन कॉलेज में विद्यार्थियों को इतनी स्वतन्त्रता प्राप्त थी कि जैनजी फिलाडेल्फिया-हॉस्टल में पुस्तक प्रकाशन-सम्बन्धी सारा कार्य स्वच्छंदतापूर्वक करते रहते थे। वह अपनी धुन के बड़े पक्के थे। उन्होंने इंडियन प्रेस के बूढ़े मालिक बाबू चिंतामणि घोष के ज्येष्ठ सुपुत्र पोदी  बाबू (अब स्वर्गीय) द्वारा पंडित रामजीलाल शर्मा को पत्र लिखवाया कि शास्त्रीजी की सम्मति प्राप्त कराने में सहायक हों। और भी अनेक सूत्रों का सहारा लिया। किन्तु शास्त्रीजी पर उनके ऐसे धुनी की भी कोई कला न लही।

शास्त्रीजी की सेवा में दूसरी बार उपस्थित होने की घटना पटना में हुई। घटना इसलिए कि इस बार भी अपने एक साहित्यिक मित्र  के आग्रह से उनके पास गया। मित्र महाशय ने अखिल भारतीय हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के मंगलाप्रसाद पारितोषिक की प्रतियोगिता में अपनी एक पुस्तक भेजी थी, जो जांचने के लिए शास्त्रीजी के पास आई थी। उन दिनों रेलवे लाइन के पास शास्त्रीजी अपने ओझाबंधु आश्रम में रहते थे। सादगी और सफाई से सचमुच वह आश्रमतुल्य ही था।

मेरे मित्र को देखते ही वह ताड़ गए। उनकी प्रशंसा का पुल बांधने लगे। वह भी शास्त्रीजी का भाव भांप गए। दोनों आपस में भले निपटते देख मैं मन-ही-मन हंसकर चुप रहा। शास्त्रीजी उनकी ओर इशारा करके मुझसे कहने लगे--"इनके साथ तुम्हारे आने की कोई आवश्यकता न थी। इनको मैं खूब पहचानता हूँ। इन्होंने पहले कभी मेरी कुटिया को  कृतार्थ नहीं किया था, आज मेरी झोपड़ी पवित्र हुई--भगवान ही इनका मनोरथ सफल करेंगे।"

इसके बाद शास्त्रीजी ने मुझे अलग ले जाकर चेतावनी दी कि "फिर कभी ऐसी मूर्खता न करना--मैं कभी किसी की सिफारिश नहीं सुनता। मंगलाप्रसाद पारितोषिक की मर्यादा तुम नहीं समझते। चाटुकार को उसी के अनुरूप पुरस्कार मिलता है। तुम अपने मित्र को समझा दो कि अपने भाग्य पर भरोसा करे, अपनी योग्यता पर नहीं।"

मेरे मित्र ने रस्ते में एकांत की बात पूछी और मैंने कह भी दी। वह विद्वान तो थे ही, शास्त्रीजी के कथन का औचित्य समझ पश्चात्ताप करने लगे।

तीसरी बार शास्त्रीजी 'मतवाला-मंडल' (कलकत्ता) में स्वयं पधारे। नंगे बदन, कम्बल ओढ़े प्रातःकाल पहुंचे। अपनी लिखी हुई पुस्तक 'दरिद्र-कथा' की पाण्डुलिपि भी साथ ले गए थे। उसे स्वयं छपवाना चाहते थे। एक कलकतिया प्रकाशक ने उसे प्रकाशित करने का उन्हें वचन दिया था, पर उसने विवशता प्रकट कर दी। शास्त्रीजी कहने लगे--"आज भोर होते ही एक कृपण का मुंह देखा था, इसलिए जहां आशा पूरी होनेवाली थी, वहाँ मैं नकार का शिकार हो गया और वहीँ पर मैंने उस नकारनेवाले तथा शिकार होनेवाले अपने-आपको नमस्कार किया; क्योंकि मुझ-जैसे निरीह को नकार सुनानेवाला तो नमन के योग्य है ही, उसके समान नगण्य के नकार का शिकार होनेवाला मैं भी नमस्य ही हूँ, इसी कारण मैंने वहाँ 'शिवपंचाक्षर-स्तोत्र के दो श्लोक उसके सामने ही सुनाकर अपनी ग्लानि व्यक्त कर दी :
'नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय, भस्मांगराय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय, तस्मै नकाराय नमः शिवाय।।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय।।'
अब इस 'दरिद्र-कथा' को 'चंद्रशेखराय' संकल्प करके स्वयं ही प्रकाशित करने का दृढ निश्चय किया है। चाहता हूँ, इस छोटी-सी पुस्तक को एक ही सप्ताह में छपवाकर उसे धन-मदांध प्रकाशक के पास पठवा दूँ--वह भी एक दरिद्र ब्राह्मण का साहस देख ले।"
सचमुच, उन्होंने पुस्तक की पांच प्रतियां उस प्रकाशक के पास यह लिखकर भिजवाई--"आपके नकार को दूर से ही नमस्कार !"

जब मैं काशी में रहता था, तब शास्त्रीजी भी वहीँ थे। वाल्मीकीय रामायण का हिंदी-अनुवाद कर रहे थे।  वहाँ के एक प्रकाशक ने उसे सात खण्डों में निकाला था। उन्होंने श्रीमद्भागवत और महाभारत का भी हिंदी अनुवाद किया था, किन्तु पूरा न कर सके। रामायण की तरह महाभारत में भी मूल के साथ अनुवाद छपा था। महाभारत को मासिक खण्डों के रूप में स्वयं प्रकाशित करते थे। मैं भी उसका ग्राहक था। उनके निधन के बाद उनके ज्येष्ठ सुपुत्र पंडित प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'जी भी महाभारत को उसी रूप में फिर कुछ दिनों तक निकालते रहे। वह काफी पूंजीवाला काम था। शास्त्रीजी ने अपनी गृहस्थी को साधन-संपन्न बनाने के उद्देश्य से कभी द्रव्य-संग्रह पर ध्यान ही नहीं दिया। त्यागी तो उनके सदृश हिंदी-जगत में कम ही हुए। त्याग और तप ही उनका असली बाना था।

एक बार उन्हें रोग-शय्या पर देखने के लिए स्वामी सत्यदेव परिव्राजक आये और चुपके से कुछ गिन्नियां उनके सिरहाने तकिये के नीचे रख गए। शास्त्रीजी को पता चला तो तुरंत स्वामीजी के पास सधन्यवाद लौटा दीं। अपने अभावों की पूर्ति के लिए उन्होंने कभी किसी मित्र की भी आर्थिक सहायता न चाही और न ली। ऐसी बात वह सोचते तक न थे। प्रयाग में जब अखिल भारतीय हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के साहित्य-मंत्री थे, तब अपने दूरस्थ आवासगृह से सम्मलेन-कार्यालय तक आने-जाने के लिए कभी इक्का-भाड़ा नहीं लेते थे। राजर्षि टंडन उनको भाई मानते-कहते थे, पर टंडनजी के आग्रह से भी वह अपने सिद्धांत को लचने नहीं देते थेl

वह अपनी स्थिति को प्रभु की देन समझ सदा उससे संतुष्ट ही रहेl आजीवन परिस्थितियों से सहर्ष संघर्ष करते रह गएl कठिनाइयों से जूझते समय भी उनके चहरे पर कभी विषाद की रेखा नहीं दीख पड़ी। काशी में चौखम्भा के पास मोतीकटरा में उनके निवास-स्थान पर एक रात मैं मिलने गया तो वह किरासन तेल की ढिबरी जलाकर बटलोही मांज रहे थेl मुझे देखकर हँसते-हँसते पूछने लगे--"तुमने कभी यह सुकर्म किया है या नहीं? सद्गृहस्थ को पारिवारिक सेवा में संकोच न होना चाहिए, गुरुचरणों के समीप रहकर संस्कृत पढ़े बिना यह सेवा-प्रणाली अभ्यस्त नहीं हो सकतीl तुम्हारे हिन्दीवाले आजकल स्त्रियों की बड़ी दुर्दशा कर रहे हैं--पत्र-पत्रिकाओं में भाँति-भाँति की भाव-भंगी से भरे चित्र छप रहे हैं, कोई खड़ी है, कोई बैठी है, कोई सोयी है, कोई हंसती है, कोई प्रतीक्षा करती है, कोई वीणा बजाती है, कोई अभिसार करती है--क्या यह चित्रों का रीतिकाल है या भगवद्गीता के मिथ्या-प्रचार का मूर्त्तरूप है ?"

शास्त्रीजी के सरस विनोद बड़े आनंददायक होते थे। बातें करते समय दूसरों को 'मालिक' और अपने को 'भगवान' शब्द से अभिहित करते थे, कहिये मालिक, आज भगवान का एक काम कर दीजियेगा!"

पंडित सकलनारायण शर्मा और पंडित ईश्वरीप्रसाद शर्मा के बाद शास्त्रीजी ही खड्गविलास प्रेस (पटना) की साप्ताहिक पत्रिका 'शिक्षा' के संपादक हुए थे। उनकी 'भारत-चरित' नामक पुस्तक उसी प्रेस से प्रकाशित हुई थी। उस प्रेस के स्वामी और 'शिक्षा' के संचालक रायबहादुर रामरणविजय सिंह (बबुआजी) उनका बड़ा सम्मान करते थे। उनकी निःस्पृहता और चिरप्रसन्नता सबसे बरबस उनका आदर कराती थी। वह सच्चे अर्थों में एक मस्तमौला फ़कीर थे। नितांत निरभिमान होते हुए भी सदा स्वाभिमान एवं संतोष के साथ दुर्दिन को झेलते रहना उनका जन्मजात गुण था। उनकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता किसी के खिंचे रहने की परवाह नहीं करती थी। अभावों के दरेरे उनके धैर्य को कभी डिगा न सके। एक बार महाशक्ति प्रेस (काशी) में प्रसिद्ध कथाकार कौशिकजी से बातें करते समय उन्होंने हंसकर कहा था, "कठिनाइयाँ-कामिनियाँ अपने पादमंजीर की रुनझुन मुझे सुनाती रहती हैं", तो कौशिकजी मौन होकर उनका उल्लसित मुखड़ा घूरने लगे और चले जाने पर इस वाक्य को दुहराते हुए झूमने लगे।

जब मैं प्रयाग के इंडियन प्रेस की अतिथिशाला में रहकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ छपवाता था, शास्त्रीजी से उस ग्रन्थ के लिए एक लेख माँगने गया। उन्होंने पूज्य आचार्य (द्विवेदीजी) की साहित्य-सेवा और संस्कृतज्ञता तथा उनकी पुस्तक 'कालिदास की निरंकुशता' पर अपने प्रशंसात्मक और समीक्षात्मक विचार व्यक्त करते हुए एक संस्मरणात्मक लेख लिखने का वचन दिया। मैंने लेख लेने के लिए फिर आने का समय पूछा तो हंसकर बोले कि "अपनी श्रद्धांजलि लेकर मैं स्वयं आऊंगा" और सचमुच दूसरे ही दिन आये भी। लेख उनका छोटा ही था--'द्विवेदीजी की एकनिष्ठ साधना'--पर उसे देखकर 'सरस्वती'-संपादक पंडित देवीदत्त शुक्ल कहने लगे कि भंग में जैसे केसर की भीनी-भीनी सुगंध बोलती है, वैसे ही शास्त्रीजी के लेख के शीर्षक में उनकी 'एकनिष्ठ' साधना बोल रही है। अब जान पड़ता है कि वैसी साधना का युग लद गया।

शास्त्रीजी संस्कृत-शिक्षा के ह्रास पर प्रायः खेद और चिंता प्रकट किया करते थे। कई विश्वविद्यालयों (पटना, काशी, पंजाब आदि) में वह संस्कृत की उच्चतम परीक्षाओं के परीक्षक थे। उत्तर-पुस्तिकाएं देखकर झुंझला उठाते थे। 'शारदा' और 'शिक्षा' में इस विषय के कई लेख उन्होंने लिखे थे। संस्कृत और हिंदी भाषाएँ बहुत सरल लिखते थे। रामायण-महाभारत की टीकाएँ भी सुगम भाषा में लिखी हैं। वह मनसा-वाचा-कर्मणा सरलता आज भी स्मृति को पुलकित और सिर को श्रद्धावनत करती है।

{लेखक की संस्मरणात्मक पुस्तक 'वे दिन वे लोग' से साभार}

रविवार, 22 जून 2014

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री -- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[दो]

मैं नहीं जानता कि मैंने कभी ह्रदय की गंभीरतम अनुभूति को इतनी सच्चाई के साथ कागज़ के पन्नों पर रखा होगा, जितनी सच्चाई के साथ ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ मैंने अपने पिता को केवल पिता के ही रूप में नहीं देखा, बल्कि सदा एक महान आत्मा के रूप में भी देखता और उनकी पूजा करता रहा मैं जानता हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं था; पर मेरी पूजा उनके द्वारा स्वीकृत थी, क्योंकि वे योग्य पिता थे और मैं उनकी अयोग्य संतान पिताजी को अनेक बार मैंने अपने आचरणों से दुखी किया था, पर एक क्षण के लिए भी वे मेरा मलिन मुंह देखना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे पिताजी ने अपने जीवन में यह न जाना कि सुख क्या पदार्थ है और न भरसक हमलोगों को ही यह जानने दिया कि दुःख किसे कहते हैं
जो कुछ मैं लिखना चाहता हूँ, जानता हूँ कि उसे लिख नहीं सकूंगा। क्योंकि ह्रदय को चिंतन और अनुभूति की जो शक्ति और गति प्राप्त है, बुद्धि को उसे प्रकाशित करने की भी वही शक्ति और गति प्राप्त नहीं; फिर भी पिताजी के सम्बन्ध में मैं कुछ लिखूं, ऐसा मित्रों का आग्रह है और मैं भी सोचता हूँ कि पिताजी वास्तव में जो कुछ थे, उसकी एक धुंधली-सी तस्वीर भी अगर मैं दुनिया के सामने रख सकूँ, तो लोक-कल्याण का ही एक काम करूंगा।
मेरे पिताजी का जन्म फाल्गुन शुक्ल ४, संवत १९४० शुक्रवार के दिन हुआ था। बिहार प्रान्त में शाहाबाद एक जिला है और निमेज उस जिले का एक गाँव। गाँव साधारणतः समृद्ध है और शिक्षा के आलोक से आलोकित भी। गाँव में प्रधानतः सरयूपारीण ब्राह्मण रहते हैं। पिताजी ने गाँव के सर्व-प्रधान ब्राह्मण परिवार में जन्म पाया था।
जिस परिवार में पिताजी का जन्म हुआ, वह संपन्न परिवार था। घर में थोड़ी-सी जमींदारी थी। मेरे पितामह डुमरांव राज्य के तहसीलदार थे, खेती-बारी होती थी। इससे अधिक सम्पन्नता की आशा गाँव में और क्या हो ?
पिताजी कहते थे, बचपन में वे बड़े उपद्रवी थे। घुड़सवारी का उन्हें बड़ा शौक था। छोटा होने के कारण घर के घोड़ों पर चढ़ने की आज्ञा न मिलती तो खेतों में जाकर चरते हुए घोड़े-बछेड़ों को पकड़ते और उनपर सवार होकर सारी दुपहरिया इधर-उधर चक्कर काटा करते थे। आगे चलकर वे एक अच्छे घुड़सवार हुए।
सात वर्ष की उम्र में उन्हें पढ़ने की धुन सवार हुई। उस वक़्त अंग्रेजी शिक्षा का इतना प्रचलन न था। ब्राह्मण-कुमार तो साधारणतः संस्कृत ही पढ़ते थे, फिर हमारे परिवार में ही संस्कृत के कई पंडित वर्तमान थे। पिताजी संस्कृत पढ़ने में दत्तचित्त हुए। सात ही वर्ष की अवस्था में घर छोड़कर डुमरांव आये। वहीं से शिक्षा शुरू हुई।
पांच-छः वर्ष डुमरांव रहकर काशी आये। असली अध्ययन उनका वहीँ से प्रारम्भ हुआ। कुछ समय प्राइवेट पढने के बाद क्वींस कॉलेज में नाम लिखकर पढने लगे।

हमारे परिवार में दो-तीन पट्टीदार थे। सब साथ ही रहते थे। परिवारों में, खासकर देहाती परिवारों में, छोटी-छोटी बातों को लेकर जैसी दाँता-किचकिच और लड़ाई-झगड़ा हुआ करता है, उसे सब जानते हैं। पिताजी ने ऐसा स्वभाव पाया था, जिसे यह पसंद न था। उनके बालक मन ने सोचा--थोड़ा-सा वैभव और थोड़े-से अधिकार के लिए इतना क्लेश क्यों होना चाहिए? उन्होंने शायद उसी समय निश्चय कर लिया कि झगड़े की जड़ इस संपत्ति और इस अधिकार से अलग ही जीवन बिताएंगे। इसी के अनुसार उन्होंने अपने निर्वाह और पढाई-लिखाई के लिए घर से खर्च न लेने का निश्चय किया, न लिया। इससे उन्हें बड़ा कष्ट उठाना पड़ा, भूखों रहना तो साधारण बात थी, एक बार पहनने का वस्त्र न होने के कारण पंद्रह दिनों तक वह ढुलाई लपेटकर घूमते फिरे थे, इसी प्रकार एक बार घर से एक अंगौछा लेकर काशी के लिए पैदल ही रवाना हो गए थे।
पिताजी की पढ़ाई चल ही रही थी कि घर की अवस्था में परिवर्तन हुआ। मेरे पितामह सुखी जीव थे। पहनने-ओढ़ने औए घुड़सवारी का बड़ा शौक था। अच्छे-से-अच्छे कपड़ों और घोड़ों की फ़िराक के रहते थे। घरेलू हिसाब-किताब और झगड़े-झमेलों में पड़ना पसंद न करते थे। थोड़े दिनों में तहसीलदारी छोड़कर घर आ बैठे और हमारे बड़े पट्टीदारों ने कृपापूर्वक थोड़ा-सा खेत हमारे लिए छोड़कर अपनी हांडी अलग चढ़ाई। पितामह ने देखकर भी न देखा, बँटवारा हुए बिना ही यह बँटवारा हो गया और घर में कोई विरोध पैदा  हुआ। अब सहसा गरीबी आ गई। पिताजी ने परिवार का पोषण करने की अपनी जिम्मेदारी समझी और ली। वह दिन उनके कैसे कटे, वे ही जानते होंगे। जब कभी हमलोगों से चर्चा की, हम आंसू नहीं रोक सके।

और, इतनी आपत्तियों के बीच पिताजी स्कालरशिप पाकर, अपने गुरु पं० गंगाधर शास्त्री की कृपा और स्नेह प्राप्त करके, अपनी कक्षा में सर्वोत्तम अंक पाते हुए, अपनी प्रतिभा से लोगों को मुग्ध करते रहे। थोड़े ही दिनों में पिताजी ने अपने कॉलेज के प्रिंसिपल वेनिस साहब को अपना पक्षपाती बना लिया और उन्हीं की कृपा से अनेक जर्मन तथा अँगरेज़ विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाते और उस पढ़ाई की आय से अपना तथा परिवार का खर्च चलाते हुए पिताजी ने अपना अध्ययन समाप्त किया।
अध्ययन पच्चीस वर्ष की अवस्था में समाप्त हुआ और उसके बाद ही भारतधर्म महामण्डल के स्वामी ज्ञानानंदजी के आग्रह तथा अनुरोध से पिताजी ने मंडल के डेप्यूटेशन के साथ कुछ समय तक भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की, पर यह क्रम अधिक दिनों तक चल न सका। सैद्धांतिक मतभेदों के कारण पिताजी ने शीघ्र ही मंडल का संपर्क त्याग दिया। उसके बाद जोधपुर के चोपासनी ठिकाने के गोसाईंजी के पुत्रो के गृहशिक्षक होकर वे दो वर्ष तक जोधपुर रहे, पर वहाँ से भी उन्हें लौटना पड़ा।
अपने सांसारिक जीवन के प्रथम प्रभात में पिताजी ने अनुभव किया कि वे दुनिया के काम की चीज नहीं हैं। दुनिया चाहती है झूठ, फरेब, जालसाजी, खुशामद और जी-हुज़ूरी; और पिताजी में इनका सर्वथा अभाव था। दुनिया विलास-वासना में डूबना चाहती है, वैभव की गोद में खेलना चाहती है और साथ ही चाहती है यश, कीर्ति, सम्मान।पिताजी को स्वभावतः इन सारी चीज़ों से नफरत थी। इसी से, दुनिया में पैर रखते ही, पिताजी ने सबसे पहली जो चीज़ छोड़ी, वह नौकरी थी। नौकरी को चिर-जीवन के लिए नमस्कार करके, वह संसार के भंवर में कूद पड़े और यह कहने में मुझे संकोच नहीं है कि वह उस भंवर से उबर नहीं सके।...

मेरे जन्म से पहले ही पिताजी इलाहाबाद जाकर बस गए थे। जीविका का कोई निश्चित साधन नहीं था। फिर भी प्रभु की कृपा, अपनी विद्वत्ता और तेजस्विता से वह बड़ी शान से जिये।
उन्होंने चाहे जितनी तकलीफ उठाई हो, पर किसी के सामने झुके नहीं, किसी से एक पैसा माँगा नहीं और न किसी की सहायता ही स्वीकार की। मैंने पहले भी सुना था और अभी उस दिन पं० रामनरेश त्रिपाठीजी ने भी मुझे बतलाया कि एक बार पिताजी सांघातिक रूप से बीमार पड़े। घर में खाने को तो कुछ था ही नहीं, उनकी चिकित्सा के लिए भी पैसे न थे। स्वामी सत्यदेव परिव्राजक पिताजी को देखने आये। उन्हें यह हाल मालूम था। चुपचाप बिछौने के नीचे तीन गिन्नियां रख गए। उनके जाने पर पिताजी को गिन्नियां मिलीं, समझ गए कि स्वामीजी की कृपा है, गिन्नियों को उसी समय वापस करवा दिया, स्वीकार नहीं किया।
पुस्तक-लेखन के द्वारा पिताजी अपनी जीविका चलाते थे। लेख भी अक्सर सामयिक विषयों पर लिखा करते थे, पर उसके लिए पैसे न लेते थे, तब शायद लेखों का पारिश्रमिक लेने-देने का इतना प्रचलन भी न था। मुझे याद है, पिताजी के एक लेख के लिए 'प्रभा' कार्यालय से कुछ रुपये आये थे। पिताजी ने रुपये वापस कर दिए और 'प्रभा' में लिखना भी बंद कर दिया।

उन्होंने 'शारदा' नाम की संस्कृत मासिक पत्रिका निकाली। कुछ समय बाद आर्थिक कठिनाइयों से वह बंद हो गई। पिताजी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा संस्कृत के विद्यार्थियों और पंडितों के बीच में बीता था। कैसी मूर्खता, कैसा ज्ञान, कैसे कुसंस्कार और कैसे कूपमंडूकता से भरा वह समुदाय है, इसका पिताजी को ज्ञान था; और उन्हीं लोगों को नव-संसार से परिचित कराने के लिए पिताजी ने यह प्रयत्न किया था, पर उन्हें बड़ी निराशा हुई, जब उन्होंने देखा कि जिनके लिए यह पत्र निकाला गया है, ग्राहक-संख्या में उनका भाग दशांश भी नहीं है। 'शारदा' का संपादक होने के कारण पिताजी को और पिताजी के द्वारा संपादित होने के कारण 'शारदा' को बड़ी कीर्ति मिली, देश-विदेशों में 'शारदा' का प्रचार हुआ, पर ये चीजें पिताजी को संतुष्ट न कर सकीं। वे तो इस कार्य से किसी दूसरे ही उद्देश्य कि पूर्त्ति चाहते थे।
इस आघात से पिताजी इतने दुखी हुए कि उन्होंने संस्कृत से एक तरह से विदा ही ले ली। हिंदी में 'समाज' नामक एक मासिक पत्र निकाला, वह भी कुछ समय बाद बंद हो गया। फिर दारागंज के निर्वाणी अखाड़े से 'संन्यासी' नामक एक पत्र निकलवाकर दो वर्ष तक उसका सम्पादन करते रहे। कालान्तर में 'संस्कृत रत्नाकर' तथा 'शिक्षा' (संस्कृत मासिक तथा हिंदी साप्ताहिक) पत्रों का भी सम्पादन किया। उन्हीं दिनों हिंदी विद्यापीठ के अवैतनिक प्रिंसिपल तथा हिंदी-साहित्य-सम्मलेन के साहित्य-मंत्री के पद पर भी काम करते रहे, पर सम्मलेन से कभी एक पैसा इक्के का किराया भी न लिया।

सन १९२० के बाद कुछ समय तक वह पटना में और फिर बनारस में रहे। मैं हमेशा उनके साथ रहा। उन्होंने बनारस में वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद किया, फिर सन १९२८ में दुबारा प्रयाग आये। पटना हमलोग इस इरादे से गए थे कि गांव से संपर्क बना रहे, पर पिताजी ने पैतृक संपत्ति में से एक पैसे का व्यवहार न करने का निश्चय किया था। जब गांव पर रहने का इरादा हुआ तो पिताजी ने पैतृक ज़मीन के रहते नई ज़मीन मोल ली और मकान बनवाया। लेकिन वहाँ रहना न हो सका, सन १९२८ में फिर हमलोग प्रयाग वापस आये, शायद सदा के लिए गांव से विदा लेकर।
पिताजी का जीवन असफल लड़ाइयों का जीवन था, किन्तु इससे वह कभी विचलित नहीं हुए। प्रत्येक बार एक बहादुर सिपाही की तरह ह्रदय में नया उत्साह, शरीर में नया बल और स्फूर्ति लेकर वे मैदान में आये और प्रत्येक बार असफल हुए। सन १९२८ तक मेरी और मेरी दो बहनों की शादियां हो चुकी थीं। हमलोग बड़े हो गए थे, संसार में प्रवेश करने जा रहे थे। पिताजी को हमलोगों की चिंता हुई। 'स्त्री के पत्र', 'विधवा के पत्र' और 'सामाजिक रोग' आदि हिंदी पुस्तकें लिखकर उन्होंने निज का प्रकाशन आरम्भ किया। उसके बाद 'महाभारत' के प्रकाशन का आयोजन किया। छः अंक निकाले भी,पर इस बार भी सफलता के निकट पहुँचने के पहले स्वयं ही चले गए। उनकी बड़ी इच्छा थी कि महाभारत के अतिरिक्त संस्कृत के सभी प्राचीन ग्रंथों का सरल भाषा में प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित करें। श्रीमद्भागवत तथा कई उपनिषदों का अनुवाद भी कर चुके थे, पर काल के समान कौन बली है? उसने उनकी अंतिम इच्छा भी पूरी न होने दी।
पिताजी हमेशा हमलोगों से कहते थे कि दरिद्रता और कठिनाइयाँ भगवान की देन हैं और जिस पर भगवान प्रसन्न होते हैं, उसे ही अपनी यह धरोहर सौंपते हैं। पिताजी ने स्वेच्छा से कठिनाइयों को आमंत्रित किया तथा दरिद्रता को गले लगाया। वे चाहते तो किसी स्कूल-कॉलेज के संस्कृताध्यापक का पद उन्हें बड़ी आसानी से मिल जा सकता था और वे खाते-पीते अपना जीवन बिता दे सकते थे, पर ऐसे जीवन को सदा उन्होंने घृणा की दृष्टि से देखा और उससे दूर रहते आये। वे पटना, पंजाब और काशी विश्वविद्यालयों के परीक्षक हुआ करते थे। प्रलोभनों ने कई बार पिताजी को पथभ्रष्ट करने की चेष्टा की थी--बड़े-बड़े और छोटे-छोटे प्रलोभनों ने भी। पर उन्हें जाने कैसा वज्र-कठोर ह्रदय मिला था कि डिगाना तो दूर की बात, कोई प्रलोभन उन्हें रंचमात्र हिला भी नहीं सका।

प्रलोभनों की उस श्रंखला की एक निहायत मामूली, लेकिन दिलचस्प घटना मुझे कभी नहीं भूलती। लाहोर के एक धनाढ्य के पुत्र ने पंजाब विश्वविद्यालय साहित्य के प्रथम खंड की परीक्षा दी और अनित्तीर्ण रहा। दूसरे साल उसने फिर परीक्षा दी और पिताजी आश्चर्यचकित रह गए, जब उसकी उत्तर-पुस्तिका के साथ एक सौ रुपये एक नोट पाया गया। पिताजी ने उसकी उत्तर-पुस्तिका के साथ वह नोट विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को भेजकर उसे दो साल के लिए परीक्षा देने से वंचित करने की अनुशंसा की। उस अवधि के बीतने पर उसने फिर परीक्षा दी और स्वयं इलाहाबाद आकर वह पिताजी से मिला। वह सीधा-सादा और किसी हद तक नादान प्रतीत हो रहा था। उसने पिताजी से कहा कि उसका मन पढने में नहीं लगता और उसके पिता किसी भी तरह उसे साहित्याचार्य बनाने पर आमादा हैं। उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा--"अब आप ही मेरी रक्षा कर सकते हैं, वरना मैं कहीं का नहीं रहूंगा। मैंने पहले भी सौ का नोट उत्तर-पुस्तिका के साथ भेजा था, लेकिन वह राशि शायद काम थी। अब मैं आपको पांच सौ  दे दूंगा। इसी के लिए स्वयं आया हूँ। इससे आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा, मेरा जीवन सुधर जाएगा।"
पिताजी थोड़ी देर उसकी शक्ल देखते रहे, फिर उन्होंने कहा--"ईमान बेचने की तुम यही कीमत लगाते हो ?"
उसने कहा--"मैं ज्यादा-से-ज्यादा एक हज़ार दे सकता हूँ। इससे अधिक मेरे पास है भी नहीं।"
पिताजी बोले--"जब है ही नहीं, तो जाकर ले आओ रुपये।"
वह प्रसन्न-मन मेरे घर से विदा हुआ, लेकिन रास्ते में उसके एक परिचित मिल गए। उन्होंने कहा कि एक बार शास्त्रीजी ने तुम्हें दो साल की चेतावनी दी थी, इस बार वे तुम्हें जीवन-भर की सज़ा दिलवा देंगे। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई उनके पास जाने की। उसके बाद वह लौटकर पिताजी के पास नहीं आया।
इस घटना से पिताजी इतने मर्माहत हुए कि उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अपना नाता ही तोड़ लिया। पता नहीं, उस अभागे छात्र के पिता की मनोकामना कभी पूरी हुई या नहीं।...
पिताजी ने अपने शरीर की कभी चिंता नहीं की। सबको खिलाकर स्वयं खाना, यह उनकी आदत थी। उनका वह शरीर जिसने जीवन-भर परिश्रम ही किया था कभी पोषक पदार्थ खाया नहीं था, जर्जर हो गया था। उनका वह ह्रदय भी जर्जर हो गया था, जिसने जीवन-भर असफलताओं से लोहा लिया था। इधर वर्षों से अस्वस्थ रहते हुए भी उन्होंने अथक परिश्रम करके महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा उपनिषदाओं का अनुवाद किया था। अत्यधिक परिश्रम का भार उनका जर्जर शरीर सँभाल नहीं सका। ५१ वर्ष की अल्पायु में, सन १९३४ के मध्य-भाग में, वह तेजस्वी जीवन-दीप बुझ गया...!

[मासिक 'चाँद', अगस्त १९३४]

शनिवार, 21 जून 2014

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री -- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[गतांक से आगे]

पिताजी कोई काम-धंधा, कोई रोजी-रोजगार नहीं करते थे। योगक्षेम राम-भरोसे चलता था, मगर ठाट से चलता था। बासुदेव बनिए, बफाति सब्जीवाले और पुनी अहीर की याद मुझे आज भी है, जिनके यहां से बरसों राशन-पानी, शाक-सब्ज़ी और दूध आता रहता था और तीन-चार बरसों के बाद जब अचानक किसी दिन पिताजी को सुध आती कि क़र्ज़ शायद बहुत ज्यादा हो गया है, तो कोई-न-कोई प्रकाशक, खुद-ब-खुद आकर और कोई अत्यंत साधारण-सी भी पुस्तक लिखने का आग्रह करके, क़र्ज़ की राशि से अधिक रुपये दे जाया करता था।
पिताजी असंग्रही थे। जीवन में उन्होंने कुछ जोड़ा नहीं--न धन, न धरती, न कुछ और; उलटे, जो पैतृक ज़मीन-जायदाद थी, उन्होंने वह भी छोड़ दी। उनके पास जुड़ीं तो सिर्फ पुस्तकें, और उनको भी उन्होंने स्वयं नहीं जोड़ा। जैसे नदियों का जल स्वतः-प्रवृत्त सागर के पास पहुंचता है, पुस्तकें वैसे ही, विभिन्न स्रोतों से, विभिन्न मार्गों से उनके पास आती रहती थीं।
पिताजी के पास एक और चीज जुड़ती थी--गोष्ठी। उनकी प्रातः-सांध्य साहित्यिक गोष्ठी इलाहाबाद में मशहूर थी। लोग उसे 'शास्त्रीजी का दरबार' कहते थे। उनमें स्थानीय विद्वज्जनों के अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों से और यदा-कदा विदेशों से भी, आनेवाले मनीषियों का जमाव हुआ करता था। विदेशी गौरांगों का लाल चेहरा मुझे किसी हद तक आतंकित करता था और सुरक्षा की सहज भावना से मैं पिताजी के कुछ और निकट हो जाया करता था।
मेरी स्मृति में वह दुमंजिला मकान आज भी यथावत चित्रित है, जिसकी ऊपरी मंजिल के बड़े-से कमरे में में पिताजी का दरबार लगता था। एक बार मेरी माँ मेरे अन्य भाई-बहनों के साथ अपने मायके काशी चली गई थीं। पिताजी के साथ उस बड़े से मकान में केवल मैं ही रह गया था।
एक दिन, बहुत सबेरे, पिताजी घर की सफाई कर रहे थे। उन्होंने कमर में एक अंगौछा लपेट रखा था, शरीर का शेष भाग निर्वस्त्र था। मैं उनके पीछे-पीछे, सीढ़ियां उतरता, सड़क के मुख्या द्वार तक पहुँच गया था। कूड़ा बटोरकर पिताजी ने एक रद्दी कागज़ में रखा ही था कि दरवाज़े के ठीक सामने एक फिटन आकर खड़ी हुई और उस पर बैठे एक गौरांग व्यक्ति ने पिताजी से संस्कृत में कुछ पूछा। उन्होंने संस्कृत में ही उत्तर देकर उन्हें अपने पीछे आने का संकेत दिया। गौरांग-दर्शन से भयभीत मैं, पहले ही सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुँच गया था और बैठक के बगलवाले कमरे में छिपकर देखता रहा था कि क्या होनेवाला है। संस्कृत का बोध न होने पर भी उनकी चेष्टाओं और भाव-भंगिमाओं से इतना तो मैंने भांप ही लिया कि वह पिताजी से कुछ पूछ रहे हैं और उनके उत्तर से आश्वस्त न होकर उसे अस्वीकार कर रहे हैं। पिताजी उन्हें बैठने को कहकर दूसरे कमरे में चले गए और धोती-कुर्ता पहनकर अपनी गद्दी पर आ बैठे। किन्तु उस दिन पिताजी के पास जाने का साहस मैं नहीं जुटा पाया। छिपकर ही देर तक उनकी बातें सुनता रहा।
दूसरे दिन, प्रायः उसी समय, वह गौरांग सज्जन फिर पधारे और एक-डेढ़ घंटे की बातचीत के दौरान, मुझे लगा कि बीच-बीच में वह पिताजी से झगड़ते रहे। उस दिन उनके कंधे से काली और चौकोर, डिब्बे-जैसी, कोई चीज लटक रही थी, जिसे सहज कौतूहल से देखता मैं पिताजी के निकट पहुँच गया था।
कुछ बरसों बाद बातचीत के सिलसिले में, मैंने इस घटना का उल्लेख करते हुए पिताजी से पूछा था कि वह गौरांग व्यक्ति कौन थे और आपसे क्यों झगड़ रहे थे। पिताजी ने बताया कि वह जर्मनी के एक संस्कृत विद्वान थे और मेरी पत्रिका 'शारदा' के पाठक भी। भारत-भ्रमण के लिए आये तो मुझसे मिलने चले आये। मुझे उन्होंने जिस वेश में पहली बार देखा, मुझे घर का नौकर समझा था। फिर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह जिससे मिलने आये हैं, वह मैं ही हूँ तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ था फिर वे आश्चर्यचकित रह गए थे।
दूसरे दिन वह कैमरा लेकर पिताजी का चित्र खींचने आये थे। पिताजी को चित्र खिंचवाने में सदा ही घोर आपत्ति रही थी। वस्तुतः जीवन में उनके कुल तीन चित्र खींचे जा सके थे औए वे भी ऐसी परिस्थितियों में, जिनमें अस्वीकृति संभव ही नहीं थी। जर्मन महोदय को उन्होंने किसी तरह चित्र खींचने की अनुमति नहीं दी थी।
जर्मनी लौटकर उन सज्जन ने एक जर्मन पत्रिका में पिताजी के सम्बन्ध में एक विस्तृत लेख लिखा था। लेख का मूल स्वर यह था कि "शास्त्रीजी को देखे बिना यह कल्पना नहीं कि जा सकती कि कोई इतना बड़ा विद्वान इतना सरल, निरभिमान और आडम्बरहीन हो सकता है। किसी विषय को समझने कि उनकी क्षमता अपूर्व है। संस्कृत-साहित्य के, विशेषतः पुराणों के, सम्बन्ध में मेरे मन में जो शंकाएं थीं, उनसे मिलने के बाद वे निर्मूल हो गई हैं।"
लेकिन इस विवरण की एक पूर्व-पीठिका है। पिताजी जब वाराणसी के क्वीन्स कॉलेज में पढ़ रहे थे और आचार्य के प्रथम खंड में थे तो वहाँ के प्रिसिपल डॉ. वेनिस ने एक आदेश जारी किया था! पिताजी को वह आदेश अनुचित और असम्मानजनक प्रतीत हुआ और न केवल उन्होंने स्वयं उसे अमान्य करने का निश्चय किया, बल्कि छात्रों का ऐसा जनमत तैयार किया कि सब ने उस आदेश को ठुकराने का निर्णय ले लिया! जब प्रिंसिपल को इस बात का पता चला, उन्होंने पिताजी को बुलाकर बहुत झिड़का और अंत में धमकी देते हुए कहा, "जानते हो, इसके लिए मैं तुम्हें कॉलेज से निकाल दे सकता हूँ!"
पिताजी ने शांतिपूर्वक प्रिंसिपल की बातें सुनीं और दृढ-संयत स्वर में कहा--"आपको केवल मुझे नहीं, सभी छात्रों को निकालना होगा; क्योंकि इस अनुचित और असम्मानपूर्ण आदेश को कोई छात्र स्वीकार नहीं करेगा!" कहकर, प्रिंसिपल की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना, पिताजी उनके कमरे से बाहर निकल आये।
दो-तीन दिन बाद डॉ. वेनिस ने फिर पिताजी को बुलवा भेजा। इस बार उनका रूप और स्वर, दोनों ही एकदम बदले हुए थे। वह बिलकुल मित्र-भाव से मिले। उन्होंने कहा--"मैंने अपने निर्णय पर फिर विचार किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि तुमलोगों को पसंद नहीं है तो मुझे अपना आदेश वापस ले लेना चाहिए।" फिर वह घर-परिवार की बातें करने लगे और अंत में उन्होंने पूछा कि "क्या वे दो-तीन जर्मन छात्रों को साहित्य और दर्शन पढ़ाना पसंद करेंगे। उनसे पैसे अच्छे मिल जाएंगे।"
डॉ. वेनिस की कृपा से पिताजी को तीन जर्मन छात्र मिल गए, जिन्होंने बड़ी रूचि और लगन के साथ विद्या अर्जित की। पिताजी कहते थे, वैसी सूझ-बूझवाले और कोने-अँतरे तक कुरेदकर विषय को समझने की इच्छा रखनेवाले विद्यार्थियों को पढ़ाने में आनंद आता था।
पढाई ख़त्म करके वे छात्र जर्मनी लौट गए थे और कालान्तर में जब इलाहाबाद से पिताजी ने संस्कृत की मासिक पत्रिका 'शारदा' निकाली थी, तो उनलोगों ने जर्मनी में उसके १४०० ग्राहक बनाये थे, जबकि सारे भारत में उसके कुल ३५० के लगभग ग्राहक थे। प्रथम विश्व-युद्ध आरम्भ होने पर, स्वभावतः 'शारदा' का प्रकाशन बंद हो गया था।

उन्हीं दिनों की एक और घटना याद आती है। सीतामऊ के महाराज (प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. रघुवीर सिंह के पिता, जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा) एक बार तीर्थाटन करते हुए प्रयाग आये थे। एक दिन उनके सेक्रेटरी ने पिताजी के पास आकर कहा कि महाराज उनसे मिलना चाहते हैं। बारह वर्षों के श्रम से उन्होंने एक संस्कृत पुस्तक लिखी है।  वह पिताजी को उसे दिखाना और उनकी सम्मति प्राप्त करना चाहते हैं।
पिताजी ने उत्तर दिया--"तुम्हारे महाराज राजा हैं, इसलिए मैं उनसे मिलने नहीं जाऊंगा; लेकिन वे विद्या-व्यसनी हैं और इतनी दूर की यात्रा करके एक विद्या-व्यसनी से मिलने आये हैं तो मैं उनसे अवश्य मिलूंगा। "
अगले दिन ८ बजे सबेरे आने का वादा लेकर सेक्रेटरी चले गए।
पिताजी यथासमय महाराज के जॉर्ज टाउन स्थित निवास पर पहुंचे।  वहाँ कोठी के फाटक पर, एक संगीनधारी सिपाही पहरे पर तैनात था। एक अत्यंत साधारण वेश-भूषा के व्यक्ति को अंदर जाने का प्रयास करते देखकर उसने पिताजी को रोका।  पिताजी ने कहा कि उन्हें महाराज ने बुलवाया है तो उसने अविश्वास के साथ कहा, "महाराज अभी पूजा पर हैं, अभी किसी से नहीं मिल सकते।"

पिताजी ने उससे कहा कि वह महाराज को खबर तो करा दे, लेकिन उसने उद्दंडतापूर्वक कहा कि यह उसका काम नहीं है। पिताजी वापस लौट आये।
शाम को सेक्रेटरी महोदय फिर आये। किंचित उलाहने के, किन्तु अत्यंत विनयपूर्ण स्वर में, उन्होंने कहा--"आप सबेरे पधारे नहीं, महाराज आपकी प्रतीक्षा करते रहे।"
सेक्रेटरी की बात सुनकर पिताजी का ब्रह्मतेज जाग उठा।वह सेक्रेटरी पर बरस पड़े। सेक्रेटरी ने बहुत अनुनय-विनय की, कहा कि गलती हो गई, आप अभी मेरे साथ चलिए, या आज्ञा दीजिये तो मैं कल सबेरे स्वयं आकर आपको ले चलूँ; लेकिन पिताजी पर कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने कहा--"जहां से मैं अपमानित होकर लौटा हूँ, वहाँ फिर पाँव नहीं रख सकता। जाकर अपने राजा से कह दो कि उन्हें गरज हो तो खुद आएं।" सेक्रेटरी बेचारा दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ।
दूसरे दिन सबेरे सीतामऊ-नरेश ने यह साबित कर दिया कि वे केवल राजा ही नहीं, विद्वान भी हैं और विद्वान ब्राह्मण का सम्मान करना भी जानते हैं। इस बार सेक्रेटरी को साथ लेकर वह अवयं आये।
उस समय हमलोग जिस मकान में रहते थे, वह मुख्य सड़क से कुछ हटकर गली के अंदर था। सेक्रेटरी ने आकर महाराज के पधारने की सूचना दी। पिताजी ने कहला दिया कि इस समय उन्हें फुर्सत नहीं है, वे किसी से नहीं मिल सकेंगे।
महाराज लौट गए, लेकिन शाम को फिर आये। उनकी सज्जनता और विनम्रता ने शायद पिताजी के क्रोध को गला दिया था। इस बार वह स्वयं बाहर जाकर महाराज को आदरपूर्वक अपनी बैठक में ले आये। उनके बैठ जाने पर पिताजी ने कहा--"महाराज, आप राजा हैं, मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ। अब तक आपको 'सरकार हुज़ूर और अन्नदाता' कहनेवाले लोग ही मिले होंगे। एकमात्र चंद्रशेखर ही ऐसा व्यक्ति है, जो आपको बता सकता था कि दरवाज़े से लौटाए जाने पर किसी को कितना बुरा लगता है और केवल इसी कारण मैं सबेरे आपसे नहीं मिल था।"
महाराज ने बहुत-बहुत क्षमायाचना की और थोड़ी देर तक पिताजी से बातें करने के बाद वे उन्हें अपने साथ ले गए। इसके बाद वे दोनों आजीवन बड़े अच्छे मित्र बने रहे।
ये कुछ असम्बद्ध स्मृतियाँ हैं जो अनायास मन में उभर आई हैं। इनसे पिताजी के जीवन और चरित्र पर किंचित प्रकाश पड़ता है। लेकिन ऐसी स्मृतियों की श्रृंखला अटूट है। अन्य लोगों के सन्दर्भ में उनकी चर्चा आगे भी आ सकती है।...

शुक्रवार, 20 जून 2014

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री -- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[मित्रों, मेरे पितामह साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री संस्कृत और हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान थे। उनका जन्म बिहार के भोजपुर जिले के निमेज ग्राम में एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में १८८३ में हुआ था। मात्र ५१ वर्ष की आयु में, १९३४ में, उन्होंने शरीर-त्याग किया। पितामह के परलोकगमन की यथार्थ तिथि अज्ञात है, लेकिन पिताजी से सुनता था कि वे गर्मियों के दिन थे, जब उन्होंने देवलोक में निवास पाया था। यह वर्ष उनकी पुण्य-तिथि का ८०वाँ वर्ष है। विगत ग्रीष्म के इन दिनों में मैं उनकी स्मृतियों का तर्पण करना चाहता हूँ...! मेरे पूज्य पिताजी (पंडित प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') ने दो किस्तों में उन पर दो संस्मरण लिखे थे। उन्हीं आलेखों को यहां रखकर मैं पितामह का पुण्य-स्मरण कर रहा हूँ।  पितामह का तपःपूत जीवन अत्यंत प्रेरक और विस्मयकारी है। चाहता हूँ, इन संस्मरणों को आप भी पढ़ें और ग्रहण करने योग्य तत्वों को गाँठ की पूँजी बना लें। संस्मरणों के पहले पिताजी की छोटी-सी टिप्पणी प्रस्तुत है, तत्पश्चात उनके दोनों संस्मरण क्रमशः पोस्ट करूंगा...! आलेख लम्बे है, चाहूँगा आप इन्हें धैर्यपूर्वक पढ़ें...।  --आनंद]

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री
-- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[इस शीर्षक के अंतर्गत पिताजी के सम्बन्ध में मेरे दो लेख जा रहे है : पहला 'नवनीत', मुंबई के तत्कालीन संपादक सुप्रसिद्ध लेखक-कवि वीरेन्द्र  कुमार जैन के आग्रह से १९८१ में लिखा गया और 'नवनीत' में प्रकाशित हुआ था; दूसरा पिताजी के शरीरांत के तत्काल बाद, उस समय के मासिक 'चाँद' के संपादक बाबू नवजादिक लाल श्रीवास्तव के अनुरोध से लिखा गया था और 'चाँद' के अगस्त १९३४ के अंक में छपा था। यहाँ  सप्रयोजन लेखों के मुद्रण का क्रम बदल दिया गया है--यानी पहले लिखा गया लेख बाद में और उसके ३५-३६ वर्षों बाद लिखा गया लेख पहले दिया जा रहा है। इस स्मारिका के प्रकाशक, अपने पुत्र चिरंजीव आनन्दवर्धन का यह तर्क स्वीकार करके मैं दोनों लेखों के शीर्ष पर ये कतिपय पंक्तियाँ लिख रहा हूँ कि इनसे पिताजी के जीवन और चरित्र को समझने में कुछ सहायता मिलेगी। 
अपने पिता के बारे में कुछ लिखना आसान नहीं होता और ऐसे पिता के बारे में लिखना तो निहायत मुश्किल होता है, जो बनी-बनायी लीक से हटकर चलता हो, जिसकी आन-बान अनूठी हो,जिसे किसी से कुछ लेना-देना न हो और जो अपने उसूलों का इतना पक्का हो कि उन पर खरोंच भी लगे तो सामनेवाले के परखच्चे उड़ा दे या खुद अपना सिर उतारकर रख दे।
मेरे पिता ऐसे ही थे। उनके बारे में लिखना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा। आज भी नहीं है। उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व को, उनके तपःपूत तथा सदा सजग-सावधान आचरण को, उनके विचारों के निरालेपन को, उनकी सादगी, उनकी तेजस्विता, उनकी सहज-स्नेह-सिक्त कुसुम-कोमलता और  वज्रादपि कठोरता को सहेज-संभालकर उनके व्यक्तित्व का एक सम्पूर्ण और विश्वसनीय चित्र उकेरने के लिए मैं अपने को बहुत बौना पाता  हूँ।
पिताजी असाधारण विद्वान थे, लेकिन उन्हें देखकर या उनसे सामान्य बातचीत करते हुए किसी को आभास तक नहीं हो पाता था कि  वह इतने बड़े विद्वान को देख रहा या उससे बातें कर है। अपनी खामियों का वर्णन वह बहुत रस लेकर किया करते थे, लेकिन आत्मप्रशंसा के दो-चार शब्द भी शायद ही कभी किसी ने उनके मुँह से सुने हों। दरअसल,आत्मगोपन की कला में वह इतने दक्ष थे कि हम भाई-बहनों को भी कभी ठीक-ठीक यह पता नहीं चल सका कि उन्होंने कौन-कौन से विषय पढ़े हैं, कितनी परीक्षाएं पास की हैं, उनके अध्ययन और ज्ञान का विस्तार कितना है। वह तो उनकी मृत्यु के १५-२० वर्षों के बाद उनके कुछ सहपाठियों और निकट मित्रों के द्वारा मुझे मालूम हुआ कि साहित्य के अतिरिक्त उन्होंने ज्योतिष और वैद्यक की भी पढाई पूरी की थी, आचार्य-परीक्षा केवल साहित्य में इसलिए दी कि आनेवाले दिनों में जीवन-निर्वाह के लिए ज्योतिष अथवा वैद्यक का सहारा लेने में उनकी रूचि नहीं हुई। वह षट्शास्त्री थे और आरंभिक काल में संस्कृत में उच्च कोटि कि काव्य-रचना करते थे। संस्कृतवालों से मोहभंग होने के बाद उन्होंने अपनी सारी गद्य-पद्य संस्कृत पांडुलिपियां जला डालीं। जैसे उनमें धन-संग्रह तथा अन्य भौतिक वस्तुओं के संग्रह के प्रति अरुचि थी, वैसी ही हर तरह के संग्रह और प्रदर्शन के प्रति थी। वह अपने नाम के साथ न तो जाति-गोत्रसूचक कोई शब्द लिखते थे, न कोई डिग्री अथवा उपाधि। एक बार किसी के पूछने पर उन्होंने कहा था--"मैं जो कुछ दीखता हूँ,बस वही और उतना ही हूँ. शेष सब कुछ तो अवांतर बातें हैं। मैं ब्राह्मण हूँ या चमार अथवा मैंने क्या और कितना पढ़ा है, कितनी परीक्षाएं पास की हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है? जानने और देखने की बात यह है, होनी चाहिए, कि मैं अपने आस-पास के, समाज के, देश के और उससे भी आगे बढ़कर सारी मानवता के लिए अपने को कितना उपयोगी बना सका हूँ, मैंने अपने मन को पूरी तरह जीत लिया है या नहीं, मेरा आचरण कैसा है, व्यवहार कैसा है, और अपनी शिक्षा-दीक्षा, शक्ति तथा सामर्थ्य से, पूरी निष्ठां के साथ, मैं व्यक्ति और समाज की सेवा कर रहा हूँ या नहीं। अगर मैं ऐसा कर रहा हूँ तो ठीक-ठाक आदमी हूँ, वरना लाखों-करोड़ों मानव-कीटों की तरह मैं भी एक कीड़े से अधिक कुछ नहीं हूँ।" ज़ाहिर है, इस कथन को टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है।]

[एक]

अपनी अनपहचानती आँखों से मैंने इस दुनिया को पहली बार ७ जनवरी १९१० के दिन दारागंज में देखा था।इलाहाबाद में गंगा के किनारे बसा एक छोटा-सा मुहल्ला दारागंज। दो-ढाई साल तक की उम्र की कोई स्मृति मेरे मन में नहीं है, लेकिन थोड़ा होश आते ही सबसे पहले मैं जिस व्यक्ति से जुड़ा, वह मेरे पिता थे। वह संस्कृत
के प्रकांड पंडित और अत्यंत आधुनिक विचारों के थे। उनके जीवनकाल में और, १९३४ में उनके निधन के बाद भी, लोग आश्चर्य के साथ यह चर्चा  किया करते थे कि संस्कृत का एक विद्वान इतने प्रगतिशील विचारों का कैसे बन सका था।
पिताजी सच्चे अर्थों में सात्विक ब्राह्मण थे। ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होना ही उनके लिए ब्राह्मणत्व कि परिभाषा नहीं थी। ब्राह्मण वह उसे कहते-मानते थे जो सच्चरित्र, सत्यव्रती, अपरिग्रही और तेजस्वी हो; जो किसी भी स्थिति में असत से समझौता न करे; जिसके सिद्धांत अंगद के पाँव की तरह अटल हों--और, मेरे जीवन के चौबीस वर्ष साक्षी हैं, उनमे ये गुण अपनी पराकाष्ठा में थे। वह निहायत सादगीपसंद, निरभिमान, विनयी और स्नेहालु थे, लेकिन उनके मन के किसी कोने में प्रचंड क्रोध भी छिपा रहता था। बेशक, वह क्रोध उमड़ता तभी था, जब वह किसी को सन्मार्ग से रंचमात्र भी विचलित होता देखते थे। ऐसा विचलन उनके लिए सदा असह्य होता था। इसके लिए वह किसी को भी क्षमा नहीं कर सकते थे। यद्यपि उनका क्रोध असंगत नहीं होता था, लेकिन आत्यंतिक तो होता ही था।जीवन में कितनी ही बार मनुष्य को समझौता करना पड़ता है, लेकिन पिताजी के लिए यह असंभव था। वह टूट सकते थे, समझौता नहीं कर सकते थे। उन्होंने कभी किया भी नहीं।
मेरे पिता अपूर्व पुरुष थे। मैंने अपने लम्बे जीवन में वैसा दूसरा व्यक्ति नहीं देखा। इलाहबाद में पिताजी का बड़ा रोब-दाब था, बड़ा दबदबा था। लोग उन्हें इलाहाबाद का बे-ताज़ का बादशाह कहते थे। सभी वर्गों के लोग उन्हें अपना परम आत्मीय, अपना संरक्षक, अपना अभिभावक मानते थे। सभी उनका सम्मान करते थे। उनके लिए सबकुछ करने को तैयार रहते थे और,किसी अंश में उनसे डरते भी थे। उनकी उपस्थिति में स्वभावतः लोग सचेत रहते थे कि उनके मुंह से कहीं कोई ऐसी बात न निकल जाए, जिससे शास्त्रीजी नाराज़ हो जाएँ। उनकी नाराज़गी कोई मोल नहीं लेना चाहता था। मैं बार-बार सोचता रहा हूँ, आज भी परम आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि उस विद्या-तपोधन निरीह व्यक्ति में, उस सीधे-सादे, सरल-निश्छल, आडम्बर-रहित और आत्म-प्रचार-भीरु व्यक्ति में वह कौन-सा आकर्षण था, कौन-सा तेज था, जो प्रत्येक व्यक्ति को इस तरह आकर्षित, आतंकित और श्रद्धा-नमित बना देता था। क्या वह उनकी विद्वत्ता थी? उनका वाग्जाल था? उनका प्रचंड क्रोध था? नहीं। उनके समय में उन-जैसे तथा उनसे बड़े विद्वान भी देश में वर्तमान थे, वाग्जाल से उनका दूर का भी रिश्ता नहीं था., लिखने-बोलने में वह सरल-सामान्य भाषा का प्रयोग करते थे, और उनका क्रोध तो केवल वहीँ प्रकट होता था जहां वह अनौचित्य देखते थे, अन्यथा सब के लिए उनके ह्रदय में स्नेह और वत्सलता का सागर लहराता रहता था। निश्चय ही उनकी सात्विक जीवन-प्रणाली, सत्य के प्रति उनका कुलिश-कठोर आग्रह, उनकी निर्भीकता, उनकी तेजस्विता, उनका तपःपूत जीवन, दोष-लेश-हीन उनका आचरण ही लोगों को उनके प्रति आकर्षित तथा श्रद्धा-नमित करता था।
श्रद्धा के उल्लेख से 'तुराब' की याद आती है। तुराब--इलाहबाद का प्रसिद्ध गुंडा! लम्बा-तगड़ा जवान. यत्नपूर्वक सँवारे गए केशों से चुहचुहाता सुगन्धित तेल, झकाझक साफ़ अद्धी का चुन्नटदार कुर्ता, रंगीन लुंगी, पैरों में ठनठनिया का बहुत मोटा और बहुत चमकदार स्लीपर और हाथो में अपने क़द से बड़ी तेल-पिलायी लाठी--यह उसकी धज थी। शहर में उसका बड़ा आतंक था।अनेक अपराधों से उसका सम्बन्ध जुड़ा रहता था। लेकिन वह तो शेर था। सीना तानकर शहर में चलता था। किसी में हिम्मत नहीं थी किउसका बाल भी बांका करे। शायद पुलिस भी उस पर हाथ डालने से हिचकिचाती थी।
लेकिन वही तुराब जब राह चलते पिताजी को देख लेता तो अपनी शानदार पोशाक और सड़क कि गलीज़-गन्दगी का ख़याल छोड़कर पेट के बल सड़क पर लोट जाता और 'गुरु महाराज जै' कहकर उनके पैर पकड़ने की कोशिश करता था। कभी-कभी पिताजी बचकर निकल जाते और कभी उसकी पकड़ में आ जाने पर उसे झिड़कते हुए कहते--"चलो हटो, रास्ता दो...!" सदा पिताजी के साथ रहनेवाला मैं कई बार इसका साक्षी बना था।
उसी तुराब ने एक बार तूफ़ान खड़ा कर दिया था। दारागंज में एक नए दारोगा तबादले पर आये थे।शायद नए-नए भर्ती हुए थे, इसलिए अकड़ उनमें बहुत थी। वह ज़माना भी ऐसा था कि दारोगा तो दारोगा, पुलिस के सिपाही से भी लोग आतंकित रहते थे। इसलिए नए दारोगा आये तो मोहल्ले के प्रतिष्ठित लोग बारी-बारी से उनसे मिलने जाने लगे।जब यह हुजूम ख़त्म हुआ थो एक दिन दारोगाजी ने किसी से पूछा कि मोहल्ले में और कोई बड़ा आदमी नहीं है? उसने पिताजी का नाम लेकर कहा कि "वह तो कहीं आते-जाते नहीं, दूसरे लोग ही उनसे मिलने जाते हैं।" दारोगाजी को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कह दिया--"अरे, ऐसे शास्त्री-फास्त्री मैंने बहुत देखे हैं।"
यह बात जिन्होंने सुनी थी, उन्हीं तक सीमित न रही, बाहर फैली। किसी तरह तुराब के कानों में भी पड़ी। और उस शाम, जब घोड़े पर सवार होकर गश्त पर निकलने की तैयारी में दारोगाजी ने रकाब पर पाँव रखा ही था कि अचानक तुराब का आविर्भाव हुआ। उसने एक हाथ से पकड़कर दारोगाजी को ज़मीन पर पटका दूसरे हाथ से अपने पैर से मोटे तल्लेवाला ठनठनिया का स्लीपर निकालकर उन पर प्रहार करना आरम्भ किया। उसके मुंह से गालियों की वर्षा हो रही थी और वह चीख रहा था--"साले, गुरु महाराज के खिलाफ बोलेगा तो ज़बान खींचकर बाहर निकाल लूंगा।"
सरेबाज़ार दारोगाजी का इस तरह पिटना एक अनहोनी घटना थी। बाज़ार में तहलका मच गया। भीड़ इकट्ठी हो गई।दारोगाजी किसी तरह जान बचाकर थाने में जा छुपे. तुराब सीना फुलाये अपने रास्ते लगा।
इस घटना की खबर पिताजी को दूसरे दिन सबेरे मिली। वह बहुत नाराज़ हुए। पहली बार उन्होंने किसी को भेजकर तुराब को घर बुलवाया। वह फ़ौरन हाज़िर हुआ। पिताजी उसपर बरस पड़े। लेकिन उस पर उनके क्रोध की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह नाटकीय मुद्रा में दोनों हाथो से अपने दोनों कान पकड़कर एक टांग पर खड़ा हो गया। अब पिताजी थे कि उसे डांटते जा रहे थे और वह था कि एक ही वाक्य दुहराये जा रहा था--"आप चाहे मेरा सिर कलम कर लो गुरु महाराज, लेकिन जो साला आपकी शान में गुस्ताखी करेगा, उसकी ज़बान मैं उखाड़कर रख दूंगा।"
लगता है कि तुराब के इस एकरस नाटक से शीघ्र ही पिताजी का धीरज जाता रहा। शायद उन्हें हंसी आने लगी थी। यह कहकर वह दूसरे कमरे में चले गए कि "जाओ, भागो यहां से। मैं फिर कभी ऐसी बात नहीं सुनना चाहूंगा।"
तुराब भी यह कहता हुआ सीढ़ियां उत्तर गया कि "नहीं गुरु महाराज, लेकिन जो साला...!"
भद्र समाज के सभ्य, सुसंस्कृत, शिक्षित लोग पिताजी पर श्रद्धा रखते थे, उनका सम्मान करते थे, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन तुराब-जैसे व्यक्ति के मन में भी पिताजी के प्रति ऐसी निष्ठा क्यों थी, यह मैं आज भी नहीं समझ पाया हूँ...!"
(क्रमशः)