शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

अंतर्यात्रा...

वो जो तुम कहते रहते हो न
मुझसे बार-बार--
"अपने अंदर में झाँकूँ,
करूँ अंतर्यात्रा और
खोजूँ अपने आप को--
देखूं-जानूँ कौन हूँ मैं,
कहाँ हूँ मैं,
क्यों यहां हूँ मैं...?"

मैं अंतर की गहराइयों से ही तो
निकाल लाता हूँ
कविताएँ, कथाएं और गल्प,
अंतर में झांकता-डूबता-खोजता नहीं
तो लिखता कैसे हूँ भाई...?
यह अंतर्यात्रा नहीं तो और क्या है...?

तुम्हारा प्रतिवाद रहता है तैयार
कहता है मुझसे--
"तुम मन की भावनाओं तक ही तो जाते हो
वहाँ से कुछ भाव, अभाव अपने
उठा लाते हो
उन्हें मस्तिष्क की भट्ठी में पकाते हो
और फिर जगत की थाली में
परोस जाते हो;
ऐसा करके तुम आत्मतुष्ट होते हो,
आत्ममुग्ध होते हो--
आत्मानुसंधान नहीं करते...!"

मैं चकराया-सा घूरता हूँ
प्रतिवादी को,
मन में उठते हैं प्रश्न--
आकाश अपनी तलाश
कब करता है निस्सीम व्योम में..?
समुद्र अपनी तलहटी में
कहाँ खोजता है अपनी सत्ता...?
वायु कहाँ ढूंढती है अपने प्रवाह में
अपने होने को...?
प्रज्ज्वलित अग्नि भी तो
नहीं करती अपने उत्स की खोज...?
और यह धरती भी
जो सौर-मंडल में
निरंतर डोल रही है--
कब करती है--अंतर्गमन...?

फिर छिति, जल, पावक, गगन, समीर से
रचित--मैं, क्यों करूँ अंतर्यात्रा...?
क्यों खोजूँ अपने आपको--
कहाँ हूँ मैं...?
जब तक जीवन में हूँ
चलचित्र-सा चलने दो मुझे
बहने दो मुझे मेरी त्वरा में...!

इतना आसान भी तो नहीं होता,
अचानक
चित्र से
विचित्र हो जाना...!