शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१३)

[काश, समुद्र का जल पीने लायक़ होता...]

ईश्वर सामान्य-जन से भिन्न होते हैं। भिन्न होते हैं, तभी तो ईश्वर होते हैं। मेरे मित्र ईश्वर भी उस कच्ची उम्र से ही थोड़े भिन्न थे। उन्होंने कोई व्यसन नहीं पाल रखा था, पूजा-पाठी थे, कंठी-माला धारण करते थे और मेरे-शाही के धूमपान के व्यसन तथा कभी-कभी पान-तम्बाकू-भक्षण की भर्त्सना करते थे। मुझे लगता है, आरम्भ से ही उनका झुकाव भगवद्भक्ति की ओर था। बाद में सुनने में आया था कि उन्होंने इस दिशा में बहुत गति भी पायी थी।
खैर, उस रात ईश्वर के घर परा-संपर्क की सफलता से कई लाभ हुए। सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि ईश्वर का मुझ पर अटूट विश्वास जम गया, उनकी प्रीति और निकटता मुझे सहज सुलभ होने लगी तथा दूसरी यह कि उसी रात मैंने जाना कि मैं अभेद्य काली चादर को भेद सकता हूँ। युवावस्था की पहली पायदान पर ही ईश्वर को ऐसे कटु अनुभव से गुज़रना पड़ा था कि वह निःसंग और एकाकी रहने के अभ्यासी हो गए थे शायद।...
अब मेरे इस कार्य-व्यापार के दो नहीं, तीन अड्डे हो गए--एक तो मेरा कुँवारा क्वार्टर (मित्रवर विनोद कपूर का सुझाया प्रयोग) और दूसरा ईश्वर का निवास तथा श्रीलेखा दीदी का घर। जैसा स्मरण है, मैंने ईश्वर के निवास पर परलोक-निवासिनी उनकी बड़ी माँ से भी बात करवायी थी। तब किसी कारणवश शाही हमारे साथ नहीं थे, लिहाज़ा ईश्वर के अनुज हरि हमारे साथ बोर्ड पर बैठे थे और अपनी बड़ी माँ से प्राप्त हो रहे उत्तरों से चकित-विस्मित हो रहे थे।

बड़ी दीदी के पास जाना तो साप्ताहिक अवकाश में होता, लेकिन अब उपर्युक्त दोनों ठिकानों पर जोर-शोर से आत्मा का आह्वान होने लगा। मैंने लक्ष्य किया कि चालीस दुकानवाली आत्मा सिर्फ बैचलर क्वार्टर की बैठकों में आती थी, अन्यत्र नहीं। वह बहुत दिनों तक तो महज़ पुरुषों के अवगुण का गान और भर्त्सना करती रही। अपनी बात कहते हुए वह अभद्र भाषा का प्रयोग भी करने लगती और मुझे उसे रोकना-टोकना पड़ता। एक बार वह बोली--'दुनिया के तमाम मर्द नाक़ाबिले ऐतबार होते हैं।" मैंने उसे याद दिलाया कि 'एक अदद पुरुष तो मैं भी हूँ। फिर मेरा भरोसा आप कैसे कर रही हैं?' उसने तुरत उत्तर दिया--'आपकी बात और है। मुझे तो बस, आपका ही सहारा है। अपनी बात मैं और किससे कहूँगी भला?' इतना कहकर वह बोर्ड के दो अक्षरों को बार-बार छूने लगी--'hi-hi-hi....' ! थोड़ी देर में मैंने समझा कि वह ठिठिया रही है। उसकी पीड़ा बड़ी थी। जीवन में मिली हुई त्रासद पीड़ा से उसकी मुक्ति नहीं थी और वह बहुत बेचैन रहती थी। निरंतर मुझसे सहायता की याचना करती थी और मैं समझ नहीं पाता था कि मैं किस तरह उसकी मदद कर सकता हूँ। कभी वह कहती, 'मुझे बहुत सारा पानी पिला दीजिये।' एक बार मैंने उससे पूछा था--'आपको पानी पिलाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?' उसने कहा था--'मेरा नाम लेकर जल पीपल के पेड़ में डाल दीजिये। उसे मैं ग्रहण कर लूँगी।' मैंने पूछा--'आपका नाम तो मुझे ज्ञात ही नहीं है, लूँगा कैसे? अपना नाम तो बताइये।' थोड़ी देर वह ठिठकी रही, फिर बोली--'मैं तो अपना नाम भूल गई हूँ बिलकुल, 'आप चालीस दुकानवाली' का ही नाम ले लें न।" कल ही ऐसा करने का मैंने उससे वादा किया। दूसरे दिन ऑफिस जाने के पहले स्नान करके मैंने एक पात्र में जल लिया और फ़र की भीगी तौलिया लपेटे आहाते के एक छोर पर खड़े पीपल-वृक्ष तक गया तथा चालीस दुकानवाली का स्मरण कर पेड़ की जड़ों में जल डाल आया।

जल डालकर जब मैं लौट रहा था तो मैंने देखा कि बैचलर क्वार्टर के अहाते में खड़े लक्ष्मीनारायणजी मुझे घूर रहे हैं। जब मैं उनके पास से गुज़रा तो एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट के साथ वह बोले--'डर के मारे ही पूजा-पाठ भी करने लगे हो क्या…?' मैं कुछ बोला नहीं, उनके बगल से चुपचाप निकल गया।
दूसरे दिन की बैठकी में मेरी पुकार को नाकाम करते हुए चालीस दुकानवाली मेरी गिलसिया में आ बैठी। मैंने कहा--'मुझे किसी और से बात करनी थी और वह भी जरूरी बात… आप क्यों आ गईं ?' वह हठपूर्वक बोली--'लेकिन मुझे किसी और से नहीं, आप ही से बात करनी है और वह भी जरूरी बात है।' मैंने कहा--'शीघ्र कहिये, क्या कहना है आपको?'
बोली--'मैं आपकी शुक्रगुज़ार हूँ, आपने मुझे पानी दिया है न आज, इसलिए !'
मैंने पूछा--'चलिए अच्छा हुआ, वह जल आपको मिल गया, क्षुधा शांत हुई आपकी?'
उसने निराश भाव से कहा--'गला तर हुआ, प्यास नहीं बुझी... ! वो पानी बहुत कम था न !'
मैंने पूछा--'अरे, तो कितना जल उतनी दूर तक ले जाता मैं? कितने जल से प्यास बुझेगी आपकी ?'
वह बहुत वाचाल थी। उसने तत्काल कहा--'अनन्त प्यास है मेरी ! अगर समुद्र का जल पीने लायक़ होता और उसे आप मेरे नाम तर्पण करके दे देते तो शायद मेरी प्यास बुझती, मेरे शरीर का दाह कम होता, मेरे कलेजे को ठंढक मिलती।'
मैंने क्षुब्ध भाव से कहा--'आप जानती हैं, मुझ अपात्र से यह संभव नहीं है। वैसे, समुद्र के जल से आपका दैहिक ताप तो कम हो सकता था और आपके कलेजे को ठंढक भी पहुँच सकती थी, लेकिन आपकी प्यास नहीं बुझ सकती थी; क्योंकि वह जल पीने लायक नहीं है !' मेरी बात सुनकर उसने फिर -'hi-hi-hi....' की टेक पकड़ ली।
मैं समझ गया कि उसे फिर अपनी अनंत पीड़ा की कथा सुनानी शुरू कर देनी है… ! मैं उससे लौट जाने का आग्रह करने लगा।
लेकिन, उसे विदा करना मेरे लिए हमेशा बहुत कठिन रहा। वह दुखी आत्मा एक बार आ धंसे, तो फिर लौटना ही नहीं चाहती थी। उसकी बातों से, उसकी प्रगल्भता से और उसकी मारक पीड़ा से अब मुझे हमदर्दी होने लगी थी और औघड़ बाबा तथा श्रीलेखा दीदी के अनुसार ये अच्छे लक्षण नहीं थे।…
(क्रमशः)
[चित्र : (१) मित्रवर ईश्वरचंद्र दुबे--१९७४-७५ की छवि,

(२) गूगल से साभार]

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१२)


['हमदम मेरे, जो बात तुमको चहिये थी खुद बतानी,
वह हवा का एक कतरा था, कह गया सारी कहानी।']

पाँच-छह महीने बाद मैं, शाही और ईश्वर सर्वत्र एक साथ दिखने लगे। ईश्वर ने कानपुर की 'हरी कॉलोनी' (Green colony ) के एक क्वार्टर में अपना आशियाना बनाया था, जो हमारे ठिकाने से बहुत दूर नहीं था। उनके पास एक अच्छा पाकशास्त्री भी था, जो बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाता था। आये दिन उनके गाँव से कोई-न-कोई व्यक्ति स्वादिष्ट व्यंजन लिए चला आता और ईश्वर अपने घर हमें आमंत्रित करते। मेस के उबाऊ एकरस भोजन से पके हुए हम दोनों उत्साह से ईश्वर के घर जाते। शाम से देर रात तक वहीं जमे रहते और रात का भोजन करके लौटते। बातचीत में मैं ईश्वर से हमेशा पूछा करता कि वह इतना कम क्यों बोलते हैं, इस तरह गुमसुम रहने की वज़ह क्या है, अपने मन की परतें वह खोलते क्यों नहीं, मित्रों के बीच ऐसी परदादारी क्यों? वह बस मुस्कुराकर रह जाते। उनके मन के अवगुंठन की गाँठ खुलती ही नहीं थी।....
विगत पांच-छह महीनों में मैंने खूब ध्यान-साधन किया, आत्माओं का आह्वान कर उनसे बहुत-बहुत बातें कीं। रात्रि-जागरण का प्रभाव तो शरीर पर पड़ना ही था, वह तो पड़ा; लेकिन इससे अर्जन यह हुआ कि मेरी पुकार सटीक पड़ने लगी। वांछित आत्माएं मेरी पुकार पर आ जातीं और कभी-कभी 'राँग नंबर' भी लग जाते। निचले तल पर भटकती अवांछित आत्माओं में से कोई एक मेरी अनवधानता का लाभ उठाकर मेरे ग्लास में आ जाती और बोर्ड पर तीव्रता से दौड़ लगाती रहती। इतनी तीव्रता से कि ग्लास का पीछा करने में मेरा हाथ पिछड़ जाता। ऐसी आत्माएं अनर्गल भी बोलतीं और अपना दुःख-दर्द, राग-विराग भी सुनातीं।
लेकिन, अब तक ऐसा ही हुआ था कि मैं किसी आत्मा-विशेष को पुकारता और वह आ जाती अथवा कोई अन्य अनजानी-अपरिचित आत्मा आ धमकती। ऐसा कोई संयोग तब तक नहीं बना था कि बोर्ड पर उपस्थित अन्य कोई सहभागी किसी दिवंगत व्यक्ति के स्वरूप का ध्यान करे और मैं उसके ध्यान को लक्ष्य कर उस आत्मा का आह्वान करूँ। हाँ, ये ज़रूर है कि पांच-एक महीनों के प्रसार में चालीस दुकान वाली आत्मा ने मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ा था। वह बीस-पच्चीस बार मेरे पास आई थी और उसके अवतरित होते ही मैं उससे पिंड छुड़ाने के यत्न में परेशान होता।
प्रायः प्रतिदिन हम तीनों मित्र मिलते--लंच समय में, ऑफिस से छूटने के बाद और कार्यालय में काम करते हुए भी हम पिछली रात की कारगुजारियों की बातें करते, नयी-पुरानी आत्माओं के किस्से मैं विस्तार से सुनाता। ईश्वर बहुत रूचि लेकर उन्हें सुनते। शाही तो इन चर्चाओं के प्रत्यक्षदर्शी ही थे। वह मेरी बातों की तस्दीक करते, लेकिन बीच-बीच में यह टोका भी लगाते रहते कि 'अब दिन-रात यही बातें होंगी क्या?' चूँकि ईश्वर इस क्रिया-कलाप की सिर्फ कथाएं ही सुनते रहते थे, अतः उनकी जिज्ञासा प्रबल थी। वह विस्तार से सबकुछ जानना चाहते, बातें खोद-खोदकर पूछते थे।
एक दिन दफ्तर के मध्यावकाश में हमारा त्रय हमेशा की तरह एक ही टेबल पर एकत्रित था। भोजन करते हुए पिछली रात की बातें चल रही थीं। चालीस दुकान वाली आत्मा चर्चा के केंद्र में थी और वह शाही भाई के विनोद का कारण भी बनी रहती थी। ईश्वर अपनी जिज्ञासा को दबा नहीं सके, मुझसे बोले--"यार, किसी दिन यह कृत्य मेरे घर पर करो. मैं भी तो देखूँ यह सब कैसे होता है, कैसे करते हो तुम!'
मैंने कहा--'जब कहो, आ जाता हूँ तुम्हारे यहां। वैसे, तुम भी तो बैचलर क्वार्टर आ सकते हो। घर से खाना-वाना खाकर आ जाओ और रात हमारे साथ बिताओ। परमानंद होगा।'
ईश्वर ने कहा--'नहीं, यह तो मुश्किल है।'
शाही ने पूछा--'क्यों?'
ईश्वर बोले--'घर पर छोटा भाई भी है न। उसे अकेला छोड़कर आना ठीक नहीं होगा। तुम्हीं दोनों आओ और आज ही आओ। खाना वहीं बनवा लेता हूँ तुम्हारा।' यह प्रलोभन बड़ा था। तय रहा कि आज रात का बैठका ईश्वर के घर होगा।

वह १९७६ की वासंती शाम थी। मैंने दफ्तर से लौटकर स्नान किया। झोले में यन्त्र-तंत्र और धोती रखी और बोर्ड को पेपर-पैक किया तथा शाही के साथ ईश्वर के क्वार्टर पर पहुंचे। शाम ढलान पर थी। हमने वहाँ पहुँचते ही चाय पी और बातें करते रहे। वहीं पहली बार (संभवतः) हम ईश्वर के सुदर्शन और प्रतिभाशाली अनुज (हरिश्चन्द्र दुबे) से मिले, जिन पर ईश्वर की गहरी प्रीति थी। रात के भोजन के बाद मैं और शाही सिगरेट फूँकते हुए ईश्वर के साथ गप्प करते टहलते रहे और मध्यरात्रि की प्रतीक्षा में समय व्यतीत करते रहे।
रात बारह के बाद जब हम तीनों मित्र बोर्ड पर बैठे तो मेरे मन में अचानक ये ख़याल आया कि क्यों न आज एक नया प्रयोग करूँ, जैसा औघड़ बाबा ने मेरे साथ पहली-पहली बार किया था, वैसा प्रयोग! अर्थात, ईश्वर से ही कहूँ कि वह जिस आत्मा से बातें करना चाहते हैं, उस व्यक्ति का ध्यान करें और मैं उसे बुलाने का प्रयत्न करूँ। यह प्रयोग मेरी परीक्षा भी था और मेरी ध्यान-शक्ति का परीक्षण भी। मैंने ईश्वर से कहा--'चलो, आज ऐसा करता हूँ, तुम जिनसे बात करना चाहते हो, उनका ध्यान करो और उनकी छवि को अपने मानस-पटल पर स्थिर करके उनसे यहाँ आने का निवेदन करो। मैं उन्हीं को बुलाकर तुम्हारी उनसे बात करवाने की चेष्टा करता हूँ।' मेरे इस प्रस्ताव को सुनकर ईश्वर घबराये और आत्म-रक्षा के ख़याल से बोले--'नहीं, नहीं... ऐसा क्यों? तुम जो रोज़ करते हो, जिन्हें बुलाते हो, उन्हीं को बुलाओ। मैं तो सिर्फ यह देखना चाहता हूँ कि यह सब होता कैसे है।' मैंने उन्हें समझाया और अंततः कहा कि 'मैं स्वयं अपनी परीक्षा लेना चाहता हूँ भाई!' वह मेरी बात मानने को तैयार नहीं थे। तब शाही ने मेरा साथ देते हुए ईश्वर से कहा--'अरे भाई, तुम किसी का भी ध्यान करो न। रोज़ तो ओझा खुद किसी को बुला लेता है या कोई बिन बुलाये ही आ जाता है और यह उसी के साथ यह रात-भर जागकर बातें करता है।आज ओझवा की पंडिताई की परीक्षा ही हो जाए।'
बड़ी जद्दोज़हद के बाद ईश्वर किसी व्यक्ति का ध्यान करने को राज़ी हुए। मुझे या शाही को बिलकुल पता नहीं था कि ईश्वर किनका ध्यान कर रहे हैं, किसे आमंत्रित कर रहे हैं।
अब मेरा कौशल कसौटी पर था। मैं सघन ध्यान में निमग्न हुआ और परा में कॉल फेंकने लगा--निरंतर। यहां, उस क्षण-विशेष के अपने अनुभव को थोड़े शब्द देना चाहूंगा। क्योंकि वह मेरे लिए भी सर्वथा नवीन अनुभव था। ध्यान की सघनता जैसे ही बनी, मुझे प्रतीति हुई कि कोई काला परदा मेरे ललाट पर आ गिरा, फिर उसमें एक तिल बराबर छिद्र-सा दिखा। मैंने बंद आँखों से दोनों दृष्टि-धारों को एक साथ केंद्रित किया और उसी छिद्र से पुकार भेजने लगा।
यह सब कृत्य करने में पांच मिनट भी न लगा होगा कि मेरे चेतन-तल पर किसी आत्मा ने दस्तक दी। अब जानना यह था कि उपस्थित आत्मा वही है, जिसे बुलाया गया है अथवा कोई अन्य अनजानी अात्मा। मैंने उससे उसका परिचय पूछा। आत्मा ने बताया कि वह ईश्वर के गृह-प्रदेश बांदा से आई है और उसका नाम अमुक (नाम अब स्मरण में नहीं) है। मैंने और ध्रुव ने देखा कि आत्मा का नाम सुनकर ईश्वर विस्मित हुए थे। मैंने ईश्वर से इशारों में जानना चाहा कि वह वांछित आत्मा ही है न। ईश्वर ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
वह आत्मा भी एक व्यग्र आत्मा थी। उसमें भी अत्यधिक विचलन था। वार्तालाप के आरम्भ में ही वह आत्मा ईश्वर से लगातार क्षमा माँगने लगी और पश्चाताप प्रकट करने लगी। उसने अपने अपराध की स्वीकृति भी दी और कहा कि 'भइया, हमसे गलती हो गई थी, हमको माफ़ कर दीजिये । आप माफ़ न करेंगे तो मुझे चैन न मिलेगा।' मैं और शाही दोनों हतप्रभ थे कि आखिर ये माजरा क्या है? आत्मा इस तरह भाव-विगलित होकर ईश्वर से क्षमा-दान क्यों चाह रही है?
बातें परत-दर-परत खुलती गईं और रात के दो-ढाई बज गए। आत्मा ने ही सारी बातों का खुलासा किया। और, इस खुलासे से जो कथा उभरकर सामने आई, वह संक्षेप में इस प्रकार है--'ईश्वर के गाँव में, कई वर्ष पहले, होली के दिन नशे की हालत में दो गुटों के बीच हिंसक झड़प हो गई थी। कुछ दिनों बाद एक पक्ष के किसी युवक की मृत्यु हो गई थी। पुलिस-मुकदमा हुआ था। गाँवों में दांत-कटे की दोस्ती भी होती है और कट्टर दुश्मनी भी। इस फसाद में उस पक्ष के लोगों ने स्वार्थ-साधन के लिए द्वेषवश ईश्वर का नाम भी अकारण घसीट लिया था। न्याय की लम्बी लड़ाई लड़कर ईश्वर बेदाग़ बचकर निकल तो आये, लेकिन इसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था।' उस दिन जो आत्मा प्रकट हुई थी, वह उसी मृत व्यक्ति की थी। उस व्यक्ति को अपने किये का घोर पछतावा था; क्योंकि वह स्वयं उस विवाद का सूत्रधार था और इसीलिए बार-बार ईश्वर से क्षमा-याचना कर रहा था।
परा-जगत से संपर्क के इस अभियान से कोई ऐसी कथा निकलकर सामने आएगी, इसकी तो हमें कल्पना भी नहीं थी। हम हतप्रभ, हतवाक थे। ईश्वर ने कथा और उस व्यक्ति की पुष्टि की। वह स्वयं चकित थे और जो कुछ उन्होंने अपनी गंभीरता की चादर में छिपा रखा था, वह उस रात प्रकट हो गया था। हवा का एक कतरा कह गया था सारी कहानी।...

मैं अपने परीक्षण में सफल हुआ था और इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा था। उस रात (रात क्या, सुबह कहिये) जब हम बोर्ड से उठने को हुए तो मैंने ईश्वर-जैसे सबल और दृढ इच्छाशक्ति वाले अपने मित्र की आँखों में पहली और अंतिम बार नमी देखी थी। लेकिन वह कहीं गहरे असीम संतोष का अनुभव भी कर रहे थे, जैसे कोई बड़ा बोझ कलेजे से हट गया हो। ....
(क्रमशः)

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (११)

[कानपुर-प्रवास के जोड़ीदार--शाही और ईश्वर]


आगे की कथा कहने के लिए थोड़ी भूमिका अपेक्षित है। लेकिन आप यह न समझें, मैं कोई अवांतर कथा कहने लगा हूँ। जिनका उल्लेख कर रहा हूँ, वे सभी आगे चलकर इस परलोक चर्चा के महत्वपूर्ण पात्र सिद्ध होंगे।…

कानपुर-प्रवास में जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था। सप्ताह के पांच दिन दफ्तर में, काम की भीड़-भाड़ में और मित्रों के सान्निध्य में व्यतीत हो जाते तथा दो दिन श्रीलेखा-मधुलेखा दीदी के पास। बैचलर क्वार्टर तो लघु भारत ही था, वहाँ देश के हर प्रदेश के प्रतिनिधि आ बसे थे। वे टोलियों में बँटे हुए थे--ऐसा लगता था कि 'किसी धर्मशाला में रहकर यात्री मन बहलाते थे, अपने-अपने प्रांतों का वे वर्णन करते जाते थे !' उन्हीं टोलियों में से एक टोली के नायक थे राक्षसाकार लक्ष्मीनारायण ओज़ा (OZA)। वह राजस्थान के बीकानेर के मूल निवासी थे। मरुभूमि की राणा-परंपरा के अनुकूल दीर्घ देह-यष्टि की विशालकाय विभूति ! वह ज्यादातर अपनी टोली के साथ तफ़रीह करते और नवागंतुकों की टांग-खिंचाई का आनंद लेते। १०४ किलोग्राम वज़न के महाप्रभु, लेकिन स्थूल नहीं, कसी हुई देह के स्वामी! मेरा जब से वहाँ पदार्पण हुआ, लक्ष्मीनारायणजी का आनंद-लाभ द्विगुणित हो गया था। वह आते-जाते, मेस में भोजन के वक़्त और सुबह-शाम मुझे चिकोटी काटने से बाज़ न आते। मैं उनसे बचकर निकलने की फ़िराक़ में रहता; लेकिन वह कोई मौका न चूकते। मैं सोचता, कौन उस विराट महाप्रभु से पंगा ले, उनके मुंह लगे। लेकिन रोज़-रोज़ की उनकी बेअदबियों से मैं हलकान तो होता ही था। खैर, दिन कटते रहे। मैं कार्यालय से आने के बाद स्वदेशी क्लब चला जाता और शेष समय ज्यादातर अपने कमरे में कीलबद्ध रहता।
तभी एक दिन ध्रुवेंद्र प्रताप शाही अपने सरो-सामान के साथ आ पहुंचे। इन डेढ़-दो महीनो में उनसे मेरी प्रगाढ़ मित्रता हो गई थी। उनके आने से मैं सबल ही हुआ। उनके साथ मेरी गहरी छनने लगी।....

हाँ, बीच में यह क्षेपक भी जोड़ दूँ कि स्वदेशी में मुझे और शाही को काम करते एक महीना ही गुज़रा होगा कि लेख-विभाग में नयी नियुक्ति पाकर एक नवयुवक ने प्रवेश किया। उनका नाम था--ईश्वरचंद्र दुबे। दुबले-पतले युवा, आकर्षक व्यक्तित्व--खड़ी मूँछ और चढ़ी आँखें-- समवयसी। उन्हें देखते ही मेरी और शाही की आँखें चमक उठीं। हमें लगा, चलो एक और जोड़ीदार आया, अन्यथा एकमात्र वर्माजी को छोड़कर लेख-विभाग में अधिकतर उम्रदराज़ लोग थे; जिनसे हमारी पटरी तो खैर क्या बैठनी थी! लेकिन ईश्वर तो ईश्वर निकले। पन्द्रहियों दिन तक भले आदमी ने कंधे पर हाथ न रखने दिया। ईश्वर बहुत गंभीर बने रहते। सामान्य शिष्टाचार के कुछ प्रश्नों का उत्तर देकर वह विमुख हो जाते। किसी को निकट आने का अवसर न देते। मेरे साथ-साथ शाही ने भी (सच कहूँ तो मेरी वज़ह से) कुछ दिनों तक उनसे मित्रता की कोशिश की, किन्तु जब उन्हें ईश्वर से सकारात्मक संकेत नहीं मिला, तो वह 'फिरंट' हो गए। वैसे भी, शाही 'दीरा इस्टेट' के राज-परिवार के प्रतिनिधि थे, उनके पितामह किसी ज़माने में कानपुर के मेयर थे, बड़ा रौब-दाब था। लखनऊ के न्यू हैदराबाद इलाके में दीरा इस्टेट का जो विशालकाय भवन (यूनिटी लॉज) है (जिसमें सेवामुक्त होकर शाही आज भी निवास करते हैं), उसमें स्वतंत्रता-संग्राम के ज़माने में गांधीजी से लेकर तत्कालीन बड़े-से-बड़े काँगेस के नेता पधारते थे और वहाँ उनकी बैठकें होती थीं--यह बात मुझे शाही के बड़े पापा ने बाद में बतायी थी। कहने का तात्पर्य यह कि जमींदारी गई, राज्याधिकार न रहा, वे सुनहरे दिन भी चले गए; लेकिन मेरे शाही भाई का दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार-सा बना रहा। वही ठाकुराना तेवर, वही गाम्भीर्य, वही रौबोदाब!

ईश्वर एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिखे, तो फिर शाही तो शाही ठहरे! वह दो कदम पीछे ही ठिठक गए। लेकिन मेरी मनोरचना वैसी नहीं थी। मैं ईश्वर के निकट आने की कोशिश करता रहा और पंद्रह दिनों में उनके बारे में बस इतना भर जान सका कि वह बाँदा-जैसे दुर्धर्ष क्षेत्र के एक समृद्ध जमींदार परिवार के रत्न हैं। उनके पीछे निरंतर पड़े रहना अंततः फलीभूत हुआ। ईश्वर मेरे और शाही के साथ उठने-बैठने लगे, लेकिन संक्षिप्त सम्भाषण करते, प्रश्नों के उत्तर तो दे देते, लेकिन अपनी ओर से उन्हें कभी कुछ कहना ही न होता। ईश्वर का अंदाज़ निराला था--अपने-आप में कहीं खोये हुए, अपनी ही चढ़ी हुई आँखों में निमग्न-से; जैसे दुनिया में हों, दुनिया के तलबगार नहीं हों…!

शाही के बैचलर क्वार्टर में आ जाने से मेरी स्वतंत्रता में किंचित व्यवधान हुआ। व्यवधान इसलिए कि वह नियमबद्ध युवा थे और मैं निशाचर। समय से खाना, समय से सोना, नियमित व्यायाम और कसी हुई दिनचर्या के अभ्यासी। मैं फक्कड़, अलमस्त, अपनी ही धुन का रागी। जिस विधा में मैं गति पकड़ रहा था और जिसका नशा मुझ पर तारी था, उसमें उनकी कोई रुचि नहीं थी। वह मुझे उस दिशा में बढ़ने से रोकते थे। कभी-कभी खीझकर कहते--'तुम्हें मरना है तो मरो, मुझे इसमें मत घसीटो।' लेकिन मैं तो इस विधा में ऊँची छलांग लगाने पर आमादा था और शाही के सहयोग के बिना उसी एक अकेले कमरे में आत्माओं से संपर्क-साधन संभव नहीं था। मेरे निरंतर इसरार पर अंततः शाही मेरे साथ बोर्ड पर बैठने तो लगे, लेकिन उनकी एक शर्त का पुँछल्ला हमेशा लगा रहता कि वह रात बारह के बाद सब कुछ छोड़कर सो जाएंगे। कई बार तो वह मुझे राह पर लगाकर बिस्तर पर चले जाते और मैं धूनी रमाये रहता। वे अभावों के दिन थे, जागरण की रातें। ...

जहां तक स्मरण है, संभवतः मैंने अपनी ही ज़िद पर सिर्फ एक बार उनकी दिवंगता माता से बात करवायी थी। उसके बाद शाही को भी यह कृत्य बहुत निःसार और अविश्वसनीय नहीं लगा। वह थोड़ा अधिक वक़्त देने लगे। शाही अभिमानी बिलकुल नहीं थे, लेकिन स्वाभिमान उनमें प्रचुरता से अधिक था। वह अपनी पीड़ा किसी के साथ नहीं बाँटते थे। उन्होंने अपना निर्माण स्वयं किया था। कुछ-कुछ वैसी ही प्रवृत्ति के ईश्वर भी थे, फर्क सिर्फ इतना था कि आत्म-गोपन की कला तथा अल्प-भाषण में ईश्वर शाही से बहुत आगे थे। शाही मुखर थे और अपनी बात खुलकर कहते थे। दो-ढाई महीनों में हमारी तिकड़ी जम गई थी और इन दो अल्पभाषियों बीच मैं अतिभाषी संतुलन बनाये रखने की चेष्टा करता रहता था।

बहरहाल, तीन-साढ़े तीन महीनों तक लगातार बैचलर क्वार्टर नामक नीड़ में रात के २-३ बजे तक मेरे कमरे की जलती लाइट देखकर भी उसमें रहनेवाले चिड़ों को कोई संदेह नहीं हुआ कि वहाँ कुछ ऐसा-वैसा अनुष्ठान होता है। बस, लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी ने दो-तीन बार जिज्ञासा की थी, चिकोटी काटी थी और मुझसे पूछा था कि 'तुम्हारे कमरे में रात भर लाइट क्यों जलती रहती है, डर लगता है क्या ?' मैं उनकी बात का कोई उत्तर न देकर कन्नी काट जाता। एक बार तो लक्ष्मीनारायणजी के अधिक परेशान करने पर मेरी रक्षा में शाही उनसे जा भिड़े थे, इस बात की चिंता किये बिना कि यदि वह महामानव उनपर गिर पड़ा तो उनका क्या हश्र होगा।....
(क्रमशः)
[चित्र : मैं (१९७१), ध्रुवेन्द्रप्रताप शाही, (१९७२)

शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१०)



[वह डाली तो अभी हरी थी....]
सप्ताहांत समीप आ गया था और मैं तीन दिनों के रतजगे और लेखा-विभाग में दिन के वक़्त आँखफोड़ अंक-व्यापार से क्लांत हो गया था। शनिवार की शाम की आतुर प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँची। मैंने अपना बुद्धिजीवी झोला उठाया, उसमें सिल्क की धोती और अखबार की तह में लपेट कर शीशे की छोटी गिलासिया रखी। बोर्ड आकार में झोले से बड़ा निकला, उसे भी एक पेपर में पैक किया और साइकिल के करियर में दबा दिया। यथापूर्व मुझे श्रीलेखा और मधुलेखा दीदी के घर जाना था। मन में उत्साह था, चाहता था कि शीघ्र उनके पास पहुँचकर अपनी इस नयी उपलब्धि और नवीन अनुभवों के किस्से सुनाऊँ और यदि उनकी सहमति हो तो उनके सम्मुख पराजगत से सम्पर्क करके उन्हें आश्चर्यचकित कर दूँ।
शाम सात बजे तिलकनगर स्थित उनके निवास पर पहुँचा। दोनों दीदियाँ मेरी प्रतीक्षा करती मिलीं। मुझे देखते ही बड़ी दीदी ने कहा--'आज तुमने आने में देर कर दी आनंद! कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ कि तुम आ जाओ तो हम सब एकसाथ चाय पियें। मैं तो छह बजे ही कोर्ट से आ गई थी।' ऐसी ही अनन्य प्रीति करनेवाली थीं बड़ी दीदी! मधुलेखा दीदी ने मेरी हिमायत करते हुए कहा--'अच्छा, बैठने तो दो उसे। देखती नहीं, साइकिल चलाकर थक गया है।' उन्होंने चाय के लिए अपनी मेड को आवाज़ लगाई।
झोला तो मेरे कंधे पर टंगा घर में प्रविष्ट हो गया था, लेकिन बोर्ड मैं साइकिल के करियर पर ही संकोचवश छोड़ आया था। चाय का दौर चला, बातें हुईं और बैठक में मेरी चुहल पर हंसी के फव्वारे फूटे। शनिवार की रात का खाना बड़ी-छोटी दीदी मेरी पसंद का बनवाती थीं। कानपुर के मशहूर 'ठग्गू के लड्डू' ख़ास मेरे लिए मँगवा के रखे जाते थे। मेरे बड़े मज़े थे वहाँ। उनके घर के मध्य में लंबवत एक बड़ा-सा डायनिंग टेबल था, जिस पर आठ-दस लोग एक साथ भोजन कर सकते थे। उसी टेबल पर रात का भोजन हुआ। उसके बाद मधु दीदी ने अपनी पान की पुड़िया निकाली, पान-व्यवहार हुआ, फिर बातों का दौर शुरू हुआ। मैंने दोनों दीदियों के सम्मुख अपनी बात रखी, पिछले कुछ दिनों के अपने अनुभव बताये और कहा--'आप दोनों की इच्छा हो तो मैं मनचाही किसी भी आत्मा का आह्वान कर आपकी बात करवाने की कोशिश कर सकता हूँ। मैं पूरी तैयारी से आया हूँ।'
मुझे उम्मीद थी कि दोनों दीदी मेरे इस प्रस्ताव को सुनकर उछल पड़ेंगी, आश्चर्यचकित होंगी और किसी आत्मा के आह्वान के लिए उत्सुक-अधीर होकर मुझे इस अनुष्ठान की स्वीकृति देंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दोनों की शक्ल पर आश्चर्य का कोई भाव भी नहीं था। उन्होंने धैर्यपूर्वक मेरे सारे अनुभव सुने थे। मधु दीदी ने तो बीच-बीच में कुछ जिज्ञासाएँ भी प्रकट की थीं, लेकिन बड़ी दीदी गंभीरता से सारा वृत्तांत सुनती रहीं, कुछ बोलीं नहीं। मैं संकोच में पड़ा सोचने लगा कि मैंने नाहक ही अतिउत्साह में यह प्रसंग उन दोनों के सम्मुख छेड़ दिया। तभी श्री दीदी ने मधु दीदी से कहा--'मधु, वह पेंटिंग तो लाओ, उसे आनंद को दिखाऊँ तो सही…!' मैं सोचने लगा, मेरे प्रस्ताव से किसी पेंटिंग का भला क्या सम्बन्ध हो सकता है…?
मधु दीदी पल भर में कार्डबोर्ड का एक आयताकार टुकड़ा लेकर लौटीं। श्रीदीदी ने वह पेंटिंग मुझे दिखाकर पूछा--'देखो, कितनी सुन्दर कलाकृति है यह।' मैं सम्भ्रम में पड़ा था, थोड़ा अंटकते हुए बोला--'हाँ, अच्छी तो है, किसने बनायी है?' मेरा उत्तर सुनकर दोनों दीदियाँ हँसने लगीं। मैंने इस अकारण हँसी का कारण पूछा तो बड़ी दीदी ने कार्डबोर्ड का पृष्ठभाग मेरे सम्मुख कर दिया, जिसे देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। वह तो प्लेनचेट बोर्ड था। उस पर वही सब लिखा था, जो मेरे बोर्ड पर अंकित था। मैं दीदियों को चकित करने का इरादा लेकर गया था और खुद चकरा गया। मैं लपककर बारामदे में गया और साइकिल के करियर से अपना बोर्ड निकाल लाया। उसे मैंने दीदियों को दिखाया। मधु दीदी बोलीं--'फिर तो आत्माओं के आह्वान की हमारी-तुम्हारी पद्धति एक ही है।'
श्री दीदी और मधु दीदी ने मिल-जुलकर मुझे बताया कि वे दोनों तो बहुत समय से आत्माओं से संपर्क करती रही हैं। मधु दीदी ने पूछा--'तुमने ये गुर कहाँ से सीखा?' उनके इस प्रश्न पर मुझे मौन ही रहना था या झूठ बोलना था; लिहाज़ा मैंने चुप रहना ही उचित समझा। थोड़ी और बातों के बाद मैंने श्री दीदी से यह जानना चाहा कि उन्होंने पराजगत में प्रवेश करना कैसे सीखा, तो उन्होंने भी सीधा उत्तर न देकर बस इतना कहा--अरे, मैं और मधु तो बहुत समय से यह संपर्क-साधन कर रहे हैं। चलो, आज तुम्हारे साथ भी प्लेनचेट करते हैं।'... अपने-अपने मौन में हम तीनों समझ गए थे कि कोई भी गुरु-भेद का रहस्य खोलना नहीं चाहता।
बहरहाल, रात के बारह के बाद ही हम तीनों हाथ-पैर-मुँह धोकर बोर्ड पर बैठे। आत्मा का आह्वान हुआ। मधु दीदी माध्यम बनीं, सबसे पहले उन्होंने अपने पिताजी (स्व. हरिशंकर विद्यार्थीजी) को आवाज़ें दीं, फिर अपनी माताजी (श्रीमती रमा विद्यार्थीजी) को। बारी-बारी से दोनों आये और लम्बी बातें हुईं। उस रात करुणा, भावुकता और विह्वलता की ऐसी त्रिवेणी बही कि हम तीनों उसमें डूबते-उतराते रहे--एक दूसरे को ढाढ़स बंधाते, सांत्वना देते, संतुलित करते हुए। श्री दीदी अत्यधिक कोमल मन की थीं--सरल, सहृदया। मधु दीदी अपेक्षया अधिक सबल थीं, लेकिन बातें करते हुए बड़ी दीदी का कातर हो जाना मधु दीदी से देखा नहीं जाता था, वह भी भाव-विगलित हो जाती थीं। बिछुड़े हुए प्रियजनों से संवाद सचमुच हमें निरीह बना देता है। और उस रात यही हुआ था।
यह बैठक रात के तीन बजे तक चली। हम सभी अपने-अपने बिस्तर पर गए, नींद किसी को नहीं आ रही थी। बड़ी दीदी यह पूछते हुए कि 'मधु, तुम सो गईं क्या?' ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गईं। मधु दीदी भी उठकर वहीं आ गईं और बोलीं--'अरे, नींद कहाँ आ रही है!' दोनों दीदियों की बात सुनकर मैं भी उनके पास जा बैठा। श्री दीदी पुराने किस्से सुनाने लगीं और माता-पिता की चर्चा करते हुए फिर उद्विग्न होने लगीं। मधु दीदी ने उन्हें वर्जना देते हुए कहा--'अब तुम फिर शुरू मत हो जाना।' बड़ी दीदी ने उन्हें रोक दिया--'खैर, तुम तो रहने ही दो, जानती हूँ कितनी बहादुर हो तुम।' मधु दीदी चाय बनाने किचन में चली गईं। सुबह की चाय हमने साढ़े चार बजे पी और तबतक हमारी बातें परलोक चर्चा की परिधि में ही घूमती रहीं।मेरी इन चर्चाओं में दोनों दीदियों का भी बहुत बड़ा हिस्सा है। वे दोनों मुझसे अधिक अनुभवी थीं। उन्होंने दीर्घकाल तक ध्यान-साधन कर इसमें अच्छी गति पायी थी। उनसे भी इस विधा का मैंने यथेष्ट ज्ञान प्राप्त किया था। चालीस दुकान वाली आत्मा की हठधर्मी की बात सुनकर श्री दीदी ने ही मुझे सावधान किया था कि ऐसी आत्माओं दूरी बनाकर रखूं और यदि वे बलात आ धमकें तो यथाशीघ्र उन्हें वापस भेजने का यत्न करूँ। मेरे यह पूछने पर कि 'और अगर वह न जाना चाहे तो…?' बड़ी दीदी ने कहा था--'ऐसी स्थिति में माध्यम को अपने शरीर को कष्ट पहुँचाना होता है, जैसे दीपक की लौ पर अपनी हथेली रखना अथवा प्रज्ज्वलित अग्नि के अंगारे से शरीर को दाग देना।'
बाद के दो वर्षों में ये सिलसिला कुछ यूँ चल निकला कि पाँच दिनों तक मैं अपने बैचलर क्वार्टर पर धूनी रमाता और सप्ताहांत के एक दिन तिलक नगर में दीदियों के आवास पर, उनके सान्निध्य में, अलख जगाता। दीदियाँ इतना स्नेह करनेवाली महिलाएं थीं कि उनके अप्रतिम स्नेह को शब्दों में बाँधना मेरे लिए निःसंदेह कठिन है। बड़ी दीदी के पास कचहरी का बहुत सारा काम होता, वह व्यस्त रहतीं। सोमवार की सुबह मुंशी, पेशकार, टंकक उनके घर के दफ्तर पर फाइलें लेकर आ जाते और बड़ी दीदी मसरूफ हो जातीं; लिहाज़ा सप्ताहांत की बैठक ज्यादातर शनिवार की रात होतीं। मधु दीदी अपने महाविद्यालय से लौटतीं तो किसी भी बंधन से मुक्त होतीं। वह मुझसे थोड़ी ही बड़ी थीं। प्रांजल गद्य और छंदमुक्त नयी कविताएं लिखतीं। उन्हें मैं अपनी रचनाएं सुनाता और वह अपनी। अध्ययन, अध्यापन और लेखन उनकी आजीविका भी था और गहरी रूचि का हिस्सा भी। हम दोनों भाई-बहन तो थे ही, अच्छे मित्र भी बन गए थे। कानपुर -प्रवास के वे दो वर्ष अविस्मरणीय हैं। अविस्मरणीय है उनका स्नेह-सान्निध्य, प्रगाढ़ आत्मीयता और अनन्य प्रीति।
वक़्त कितनी तेजी से निकल जाता है, मौसम के रंग कब, कैसे बदल जाते हैं, नेह के बंधन अचानक टूट क्यूँ जाते हैं, इसे समझना कठिन है। संभव है, आज मेरी वे दोनों दीदियाँ स्वयं मेरी पुकार की प्रतीक्षा में हों कि मैं एक आवाज़ तो दूँ उन्हें! और, वे आ जाएँ मेरे बोर्ड पर, उतर आएँ मेरे शीशे के ग्लास में और मुझसे कहें अपने दुःख-शोक…! मैं हूँ कि अब किसी को आवाज़ नहीं देता। स्वयं समझ नहीं पाता कि अब निष्ठुर हो गया हूँ या बेज़बान ....!
इसे विधि का विधान कहूँ या दुर्योग की काली छाया, समझ नहीं पाता। सात वर्ष पहले एक दिन अचानक मुझे मधुलेखा दीदी के अवसान (११-६-२००८) की सूचना मिली थी। मैं पटना से कानपुर गया था और शोक-संतप्त श्रीदीदी से मिलकर भारी मन से लौट आया था। छोटी बहन का विछोह श्रीदीदी का कोमल और भावुक मन सह न सका। मधु दीदी को गुज़रे अभी एक वर्ष पूरा होने में दो दिन बचे ही थे कि श्रीदीदी के निधन (११-६-२००९) का मर्मन्तुद समाचार मिला। वह भी अपनी छोटी बहन के पास चली गईं, जिनमे उनके प्राण बसते थे। मनुष्य ऐसी मारक पीड़ा आजीवन सहने को कितना अभिशप्त है ? कितना विवश? अपनी किसी कविता में मैंने लिखा था--
"तुम उस डाली के फूल
जिसके नीचे बैठ कभी
मैंने अपनी थकन मिटाई
और कभी छाती में अपनी
शुद्ध-सुगन्धित हिम-शीतल-सी
वायु भरी थी,
जाने विधि की क्या इच्छा थी
औचक क्यों टूटी वह डाली
अभी हरी थी.....!"
[क्रमशः]
{चित्र-परिचय : 1. श्रीलेखा विद्यार्थी, 2. मधुलेखा विद्यार्थी]

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (९)


[पिताजी की वर्जना और चालीस दूकान की आत्मा ]
'कहेगा कौन-सा अलफ़ाज़ उस रात की दास्ताँ,
माँ, जब तुम थीं, मैं था और आँख के आंसू मेरे...!'
उस रात की वार्ता में जितना वक़्त लगा, माँ से उतनी बातें नहीं हुईं। कारण यह कि ग्लास की गति बोर्ड पर बहुत मंथर थी। मेरे एक प्रश्न के उत्तर के वाक्य बनने में खासा वक़्त लग रहा था। लेकिन इतना तय था कि बात माता से ही हो रही थी और वह बहुत महत्त्व की थी। महत्त्व की इसलिए कि माँ उस दिन मेरे प्रश्न के उत्तर में नहीं, बल्कि स्वयं ऐसे वाकये बता रही थीं, जिनका मुझे बिलकुल इल्म नहीं था। मेरे जन्म के पूर्व के वाकये। उनमें से कुछ तो बहुत निजी, नितांत पारिवारिक, जिन्हें सार्वजनिक करना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। उनकी कई बातों से मैं रुआँसा हो गया। जानता हूँ, माँ की आत्मा को भी कष्ट हुआ होगा; क्योंकि बोर्ड पर रखा पात्र देर तक अपनी जगह पर ठिठका रहा था। अपनी पीड़ा, रुदन और सिसकियों को व्यक्त करने के लिए बोर्ड पर कोई शब्द-विशेष अंकित नहीं था। माँ ने सिर्फ 'सैड' (SAD) लिखा और, थोड़ी देर बाद, आगे अपनी बात जारी रखी। उन्होंने कई रोचक सन्देश भी मुझे पिताजी के लिए दिए। कहा, अपने बाबूजी को ये सन्देश दे देना। उन्होंने मेरी छोटी बहन के स्वास्थ्य के विषय में गहरी चिंता व्यक्त करते हुए आगाह किया कि हमें 'महिमा' की बहुत केयर करनी होगी, अन्यथा वह असाध्य रोग से ग्रस्त हो सकती है। उनकी चिंता अकारण नहीं थी। एक-सवा वर्ष बाद छोटी बहन सांघातिक रूप से बीमार हुई थी और जीवन-मृत्यु के बीच झूलकर, अनेक उपचारों के बाद प्रकृतिस्थ हुई थी।
यह वार्ता रात के तीन बजे तक चलती रही। अंततः माँ के आदेश पर मैंने उन्हें विदा किया और तत्पश्चात निद्रानिमग्न हुआ।
दूसरे दिन दफ्तर से मैंने पिताजी को विस्तृत पत्र लिखा, जिसमें पिछली रात की माता से हुई सारी बातें (कथोपकथन के साथ) विस्तार से लिखीं। पिताजी को पत्र लिखते हुए मैं अति उत्साहित था। सोचा था, पिताजी आश्चर्यचकित हो जायेंगे और पत्र के मजमून से प्रभावित भी होंगे। पराजगत में प्रवेश कर मैंने माँ से स्वयं बातें की हैं--मेरी दृष्टि में मेरा यह कृत्य बहुत मूल्यवान था, महत्त्व का था। मुझे उम्मीद थी कि पिताजी मुझे शाबाशी देंगे और माँ के दिए संदेशों को अमूल्य मानेंगे। प्रायः दस दिनों की प्रतीक्षा के बाद पिताजी का उत्तर आया। मैंने व्यग्रता से पत्र पढ़ना शुरू किया और पंक्ति-दर-पंक्ति नीचे उतरते हुए मेरी उत्कंठा का ज्वर भी कम होता गया। पिताजी ने बहुत संतुलित और पुष्ट तर्कों पर आधारित पत्र लिखा था। संक्षेप में कहूँ तो पिताजी ने लिखा था--"यह बहुत दुविधा की दुनिया है। भारत-प्रसिद्ध और विश्व-प्रसिद्ध अनेक लोगों ने इस दिशा में बहुत हाथ-पाँव मारे हैं और कोई किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका है। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जो आजीवन इसी प्रयत्न में लगे रहे हैं कि पराजगत का कोई ओर-छोर पा सकें, लेकिन उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी है। मेरा निश्चित मत है कि आप भी इस अनुसंधान से विरत हो जाएँ और कानपुर-प्रवास में वही काम करें, जिसके लिए आप वहाँ गए हैं।"
पिताजी के पत्र से मुझे गहरी निराशा हुई थी। लेकिन पिछले दस दिनों में पराजगत की यात्रा में मेरी गाडी कई पड़ावों को पार कर गई थी, अब इससे विरत होना मेरे लिए कठिन था। मैंने पिताजी को प्रत्युत्तर नहीं दिया और मनमानियां करता रहा।
अब एक नियम-सा बन गया कि दफ्तर से लौटूँ तो चाय पीकर स्वदेशी क्लब में टेबल टेनिस खेलने चला जाऊं। थका-माँदा वहाँ से आऊँ तो थोड़े विश्राम के बाद स्नान करूँ, भोजन करूँ और फिर द्वार-खिड़कियाँ बंद कर उचित समय की प्रतीक्षा करूँ और फिर वेताल की डाल पर जा बैठूँ। मैंने स्मरण के आधार पर एक सूची ऐसे लोगों की बनायी, जो मेरे आत्मीय और निकट के थे, दिवंगत हो चुके थे और जिनसे सम्पर्क की मेरी उत्कट अभिलाषा थी।
जिस रात माता से बातें हुई थीं, उसके दूसरे दिन रात्रिकाल में मैंने अपने पूज्य पितामह (साहित्याचार्य पं चंद्रशेकर शास्त्री) को पुकारा था। कई बार के प्रयत्न के बाद भी बाबा प्रकट न हुए। मुझे फिक्र हुई कि पिछली रात की मेरी निष्ठा और पुकार की व्यग्रता आज कहीं मंद तो नहीं पड़ गई है…? लेकिन नहीं, ऐसा नहीं था। मैं मिथ्या-चिंतन कर ही रहा था कि एक अपरिचित आत्मा स्वयं प्रकट हुई।
मैंने पूछा--'आप कौन हैं? अपना परिचय तो दें।'
आत्मा ने उत्तर दिया--'मैं 'चालीस दुकान' से आई हूँ। मुझे बहुत जरूरी बातें करनी हैं आपसे।'
इस उत्तर से मैं चकराया। मैंने कहा--'लेकिन मैं तो आपको जानता भी नहीं।'
आत्मा हठधर्मी से बोली--'जान जाएंगे। '
मैंने कहा--'कहिये, क्या कहना है आपको?'
उस चालीस दुकानवाली आत्मा ने कहना शुरू किया--'मेरा रोम-रोम जल रहा है। इतना ताप, इतना दाह है कि मैं आपको बता नहीं सकती।'
मैंने हस्तक्षेप किया--'ऐसा आप क्यों कह रही हैं ?'
आत्मा क्षण-भर को भी नहीं रुकी, बोलती गई--धाराप्रवाह--'उसे मेरे चरित्र पर संदेह था, लेकिन मैं पाक-साफ़ थी। उसने मुझे अपनी सफाई देने का अवसर भी नहीं दिया। मुझे जलाकर मार डाला। आज भी मेरा रोम-रोम जल रहा है।'
मैंने पूछा--"उसने, किसने ?'
आत्मा ने उत्तर दिया--'अरे. उसी मरदूद ने, मेरे पति ने और किसने!'
मैं हतप्रभ था। मैंने बात आगे बढ़ाई--'क्या आपके मायकेवालों को भी संदेह नहीं हुआ कि आपकी ह्त्या की गई है?'
आत्मा तड़पकर बोली--'अरे, मेरी ससुरालवाले बड़े शातिर निकले। सच को झूठ की चादर में लपेटकर उन्होंने मेरे घरवालों के सामने रखा। उन्होंने यक़ीन कर लिया। मैं आग से जली हुई ऐंठकर रह गई। क्या करती, किससे कहती अपने मन की...? मैं तो तभी से भटक रही हूँ…! आज आप मिले हैं तो कह रही हूँ अपने मन की...। आप मेरी मदद करेंगे न?'
कानपुर की जूही कालोनी से डेढ़-दो किलोमीटर के फासले पर 'चालीस दूकान' नामक एक स्थान है, जहां चालीस दुकानें एक क्रम से बनी हुई हैं। यदा-कदा मैं वहाँ जाता भी था, लेकिन दूर-दूर तक मेरे खयालों में भी कहीं नहीं था कि वहाँ से कोई आत्मा मेरे संपर्क में आएगी और बलात मुझसे बातें करेगी। उसकी बातों से इतना तो स्पष्ट हो गया था कि वह एक प्रताड़ित और अपमृत्यु को प्राप्त आत्मा है। मैं कमरे में अकेला था। उसकी बातों से थोड़ा भयभीत भी हो रहा था। तभी मुझे बाबा की हिदायतें याद आयीं--'ऐसी आत्माओं से परहेज करना चाहिए।' उसे वापस भेज देने के मेरे कई प्रयत्न निष्फल हुए। वह तो नाछोड़ बंदी निकली। मुझ अकेले के स्पर्श से भी बोर्ड पर ग्लास की गति इतनी अधिक थी कि कई बार मेरी ऊँगली का स्पर्श छूट जाता और ग्लास आगे निकल जाता था। चालीस दुकान की उस आत्मा से पीछा छुड़ाने में खासा वक़्त लगा। जब मैं आश्वस्त हो गया की वह प्रस्थान कर गयी है तो मैंने चैन की सांस ली और बिस्तर पर गया।
(क्रमशः)]

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (८)


[जब सुनी गई पहली पुकार...]
उस शाम बाबा ने पराजगत के विषय में जो कुछ बतलाया, वह गूढ़ ज्ञान चकित करनेवाला था। वह तो एक सम्पूर्ण लोक ही है, जिसके कई तल (layer) हैं, कर्मानुसार शरीर-मुक्त आत्माएं विभिन्न तलों में प्रतिष्ठित होती हैं और अपना समय वहाँ व्यतीत करती हैं। परमशांत, आप्तकाम, जीवन्मुक्त आत्माएं समस्त तलों के पार चली जाती हैं अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाती हैं। ऐसी आत्माएं कभी संपर्क में नहीं आतीं। उन्हें पुकारना व्यर्थ है। अपमृत्यु को प्राप्त आत्माएं सबसे निचले तल पर भटकती रहती हैं। उनमें अत्यधिक विचलन होता है, वे जगत-संपर्क के लिए किसी माध्यम की तलाश में व्याकुल रहती हैं। ऐसी आत्माएं किसी माध्यम को पाते ही शीघ्रता से, स्वयं प्रेरित होकर, उपस्थित हो जाती हैं और फिर लौटना नहीं चाहतीं। उनकी अत्यधिक व्यग्रता सम्हाले नहीं संभलती। इन बिन-बुलाई आत्माओं से परहेज करना चाहिए और यदि वे संपर्क साधने में बलात सफल हो जाएँ तो उन्हें वापस भेजकर ही आसन का त्याग करना चाहिए। ये आत्माएं बहुत हठी होती हैं, लौटना ही नहीं चाहतीं; किन्तु उन्हें विदा कर यह सुनिश्चित कर लेना भी आवश्यक है कि वे चली गयीं अथवा नहीं। सचमुच, मुझे आश्चर्य हुआ वहाँ भी इतनी व्यापक व्यवस्था है…!
बाबा उस दिन बहुत मुखर थे। उपर्युक्त बातें समझाकर उन्होंने कहा था--'जो कोई अपनी समस्त चेतना और ऊर्जा को समेटकर एक विन्दु पर केन्द्रित कर सकेगा, और पूरी तड़प के साथ अपनी पुकार 'ट्रांस' (परा ) में भेज सकेगा, वह वांछित आत्मा से संपर्क साधने में सफल होगा। इस भ्रम में मत रहना कि इस क्रियाकलाप में अन्य कोई जादू अथवा तंत्र-मंत्र है। हाँ, साधना की गहराई इस क्रिया को गति देती है, पुकार को अचूक बनाती है।'
वे मुझे पूजन-स्थल पर ले गए। उन्होंने मुझे ध्यान-आसन की मुद्रा बतायी। चित्त को एकाग्र करने और ध्यान को प्रगाढ़ करने की विधि बतायी। मृतात्मा के स्वरूप को मानस-पटल पर स्थिर करना और उसे पुकारते हुए एकाग्रचित्त बने रहना कैसे संभव है, सब समझाया। मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए पूछा--'बाबा, आपने वह मंत्र तो बताया ही नहीं, जिसे आप निःशब्द बोलते रहते हैं?' उन्होंने कहा--'अभी उसकी तुझे ज़रूरत नहीं।' वह मुझे बताने लगे कि बोर्ड पर एक साथ तीन व्यक्ति बैठ सकते हैं, लेकिन दक्षिण की दिशा खाली रखनी होगी--अवरोधविहीन। वही काल-भैरव की दिशा है, वही आत्माओं के आने-जाने का मार्ग है। मैंने पुनः पूछा--'जिन आत्माओं ने पुनर्जन्म ले लिया है अर्थात जीवन-जगत में लौट आई हैं, क्या उनसे भी संपर्क किया जा सकता है?' बाबा ने तत्काल उत्तर दिया था--'अनुभव भी बहुत कुछ सिखाता-बताता है। जब तेरी पहुँच बनेगी, इस प्रश्न का उत्तर भी तुझे मिल जाएगा...!'
तत्पश्चात, उन्होंने एक संक्षिप्त अभ्यास भी मुझसे करवाया था। उन्होंने कुछ हिदायतें दी थीं और अंततः एक शपथ दिलवाई थी। हिदायत ये कि आत्मा से संपर्क के दौरान कक्ष में किसी-न-किसी रूप में अग्नि प्रकट रहनी चाहिए। प्रकट हुई आत्मा को उसके लोक में वापस भेजकर सुनिश्चित कर लेना आवश्यक होगा कि वह विदा हो गई है अथवा नहीं।
और शपथ ये कि आत्मा का आह्वान कभी किसी लोभ-लाभ के लिए, स्वार्थ-साधन के लिए या किसी को पीड़ित करने के लिए मैं नहीं करूँगा। बाबा ने यह अहद भी उठाने को कहा कि इस प्रसंग में कभी उनका नामोल्लेख मैं नहीं करूँगा। उनकी हर बात का मान मैंने चालीस वर्षों तक रखा। अपने निकटतम मित्रों को भी मैंने कभी जानने नहीं दिया कि यह गुर मुझे भैरोंघाट पर किन्हीं बाबा की कृपा से प्राप्त हुआ था। लेकिन इस दस्तावेज़ के लेखन के लिए उनका उल्लेख तो अत्यावश्यक था अन्यथा यह दस्तावेज़ पूरा कैसे होता? फिर भी, नामोल्लेख तो हुआ ही नहीं; क्योंकि नाम तो अज्ञात था!
इस सम्पूर्ण क्रियाकलाप में रात के ९ बज गए थे। बाबा ने हवन-कुण्ड से भभूत उठाई और मेरे मस्तक पर लगाकर आशीर्वाद दिया। उनके टप्पर से चलने को हुआ तो बाबा ने कहा--'सुन, शरीर और वस्त्र की स्वच्छता होनी चाहिए। हाँ, शुरूआती दौर में पात्र में विचलन हो, किन्तु उसे चलने में कठिनाई हो रही हो तो अपनी एक ऊँगली का स्पर्श पात्र के ऊपरी भाग पर दिए रहना।' मैंने पूछा--'ऐसा क्यों बाबा? क्या मेरी गिलासिया स्वयं नहीं चल पड़ेगी?'
बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा था--'तेरी साधना में ऐसी शक्ति अभी उत्पन्न नहीं हुई है। उसके लिए गहरी और लम्बी साधना करनी होगी और दीर्घकालिक अभ्यास भी जरूरी है।' कुटिया से बाहर आते-आते बाबा ने कहा था--'अपना ख़याल रखना बच्चे...!'
क्वार्टर पर पहुंचा तो साढ़े नौ से ज्यादा हो चुके थे। रास्ते-भर ऐसे उड़ता चला आया, जैसे मुझ में पंख लगे हों। शीघ्रता से स्नान करके मेस में गया और जल्दी-जल्दी तीन रोटियां खायीं। अपने कमरे में आकर मैंने दरवाज़े बंद कर लिए और लेटकर बारह बजने की प्रतीक्षा करने लगा। व्यग्रता, उत्कंठा, उत्साह और उमंग ने मुझे व्याकुल कर रखा था और आतुर प्रतीक्षा की घड़ियाँ व्यतीत ही नहीं होती थीं।
घड़ी का काँटा बारह बजने का एलान करता, इसके पहले ही मैंने सारी व्यवस्था जमा ली थी।मोमबत्तियाँ जल रही थीं और अगरबत्ती की सुगंध कमरे में भर रही थी। बारह बजते ही मैं आसन पर जमकर बैठ गया और प्रारंभिक प्रार्थना के बाद ध्यान केंद्रित कर अपनी माँ को पुकारने लगा। वह तो बैचलर क्वार्टर था, आधी रात तक वहाँ खटपट लगी रहती थी। किसी भी स्वराघात से मेरा ध्यान-भंग होता तो चित्त को पुनः एकाग्र करना पड़ता। एक घंटे के ध्यान के बाद मेरे शरीर और हाथ के गिलास में हल्का-सा कम्पन हुआ। मैंने सचेत होकर गिलास को बोर्ड पर रखा और मेरे मुख से प्रश्न उच्चरित हुआ--'क्या आप आ गई हैं माँ?' गिलास रखने के बाद मैंने दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में जोड़ लिए थे और आँखें फाड़कर ग्लास को देख रहा था। पांच-छः सेकेण्ड बाद भी ग्लास में कोई हरकत न देखकर मुझे थोड़ी निराशा हुई। मुझे बाबा की बात याद आई और मैंने अपने दायें हाथ की प्रथमा (ऊँगली) से गिलास के शीर्ष भाग का स्पर्श कर वही प्रश्न दुबारा पूछा। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि गिलास ने हिलना शुरू किया। उसकी गति बहुत मंद थी, किन्तु वह चल पड़ा था और धीरे-धीरे अंकित किये हुए 'YES ' की ओर बढ़ रहा रहा था।
वह मेरी परम प्रसन्नता का क्षण था। मैं चकित भी था और हर्षोन्मत्त भी। मैंने अपने प्रयत्न से पहली बार पारा-जगत से संपर्क साधने में सफलता पायी थी। ...
(क्रमशः)]
[इन चर्चाओं में एक चित्र मेरा भी तो बनता है न?--आ.]

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (७)
[बड़े भाग पाया गुर-भेद...]
'रात गयी और बात गयी'-जैसा मेरे साथ कुछ भी नहीं हुआ। रात तो बेशक गयी, बात ठहरी रही--अपनी अपनी पूरी हठधर्मिता के साथ। हमारी संकल्पना पूरी तरह साकार न हो, तस्वीर वैसी न बने जैसी हम चाहते हों, तो बेचैनी होती है। यही बेचैनी मुझे भी विचलित कर रही थी। जितने प्रश्न पहले मन में उठ रहे थे, वे द्विगुणित हो गए। मैंने सोचा था, औघड़ बाबा अब कुछ ऐसा अद्भुत-अलौकिक करेंगे, जिससे मेरी माता, धुंधली छाया बनकर, झीने आवरण में ही सही, स्वयं उपस्थित होंगी अथवा मुझे उनका मंद स्वर सुनने को मिलेगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और जो कुछ हुआ, वह अविश्वसनीय चाहे न रहा हो, मेरी कल्पना के रंगों से मेल नहीं खाता था। मेरे मन का यह विचलन मुझे बार-बार बाबा की धूनी पर ले जाने लगा।
बाबा से जब कभी उनके बारे में जानना चाहा, वह बड़ी सहजता से मेरे प्रश्नों को टाल जाते। मैंने कई बार उनका नाम जानने की चेष्टा की। वह मुस्कुराते हुए कहते--'अरे, नाम में क्या धरा है? सभी मुझे 'बाबा' कहते हैं, तू भी कहा कर।'
भैरों घाट पर कई दुकानें थीं, उनमें एक दुकान पान-सिगरेट वाले की भी थी। जब से मैं घाट पर जाने लगा था, उस दुकान पर प्रायः जाता था। उस ज़माने में मैं ताम्बूल-भक्षक तो था नहीं, हाँ, कालेज के दिनों से पीछे लगी धूमपान की लत मुझे उस दुकान पर बार-बार ले जाती थी।
एक दिन मैंने पानवाले से औघड़ बाबा के बारे में पूछा, तो वह कहने लगा--'भइया, ई मलंगों का कोई नाम-पता थोड़े ही होत है! रमता जोगी, बहता पानी। कब किस घाट पर जा लगें, कौन जानत है? वैसे, तीन-एक साल से यहीं धूनी रमाये हैं। ज्यादातर लोग उनका बाबा ही कहत हैं, लेकिन कुछ लोग लालबाबा भी पुकारत हैं, असली नाम त कोऊ नहिं जानत। हाँ, एक बात है, पढ़े-लिखे मालूम पड़त हैं। एक दिन दू अँगरेजन से अंगरेजी में बतियावत हमरी दुकान पर आये थे। बंगला भी जानत हैं। ख़ोपड़िया सनकी रहे, त कछु बोलिहें, नाहीं त चुप्पेचाप भइया...!'
बाबा का बस यही इतना परिचय था। मैंने सात से दस दिनों तक उनका पीछा किया। कभी वह मिलकर बातें कर लेते, कभी मुँह फेरकर दूसरी दिशा में चल पड़ते और कभी नदारद होते। उन्हें शीशे में उतारना आसान नहीं था। जिस रात माँ से उन्होंने मेरी बात करवाई थी, उसके दूसरे दिन ही मैंने बाबा से बड़े दीन भाव से पूछा था--"बाबा, मेरी माँ ने अपनी मौत के बारे में ऐसा क्यों कहा कि प्यास के कारण दम घुटने से उनकी मृत्यु हुई, जबकि डॉक्टरों का मत था कि वह 'सडन कार्डिएक अरेस्ट' था।" बाबा ने मुझे समझाया था--'देख, आत्मा जब शरीर छोड़ती है, तब वह जो महसूस करती है, वही बताती है। वह डॉक्टरों की भाषा में नहीं बोलती, उसकी भाषा अनुभूति की भाषा होती है। तू नाहक ही इस बात को दिल से लगाये बैठा है। किसी दुर्घटना में हुई मौत वाली आत्मा दुर्घटना का पूरा विवरण देगी, लेकिन मौत का कारण वह भी अपनी अनुभूति से ही बताएगी। ऐसी आत्माओं का विचलन तू देखेगा, तो हैरत में पड़ जाएगा। तेरी माँ तो एक शांत आत्मा हैं, उनके लिए शोक मत किया कर…?'
अगली एक बैठकी में बाबा ने मुझे समझाया था--"मृत्यु के बाद जीव जगत से चला जाता है, लेकिन उसका सूक्ष्मजीवी शरीर नष्ट नहीं होता। उसका जुड़ाव और उसकी अवस्थिति इस जगत से बनी रहती है। हमारे पुकारने-बुलाने पर वही सूक्ष्म-शरीर संपर्क में आता है। वही हमारी शंकाओं का समाधान करता है और प्रश्नों के उत्तर दे जाता है। यह संपर्क-साधन आसान नहीं है। यह क्रिया गहरे मनोयोग की मांग करती है, गहन ध्यान से मन की बिखरी हुई वृत्ति को समेटकर एक विन्दु पर केंद्रित करना होता है और यह सब बहुत सहजता से नहीं होता।"
हर मुलाक़ात में बाबा ऐसी छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ तो दे देते, लेकिन जैसे ही मेरी जिज्ञासा किसी गूढ़ रहस्य की परतें खोलने की कोशिश करती, वह बात का रुख पलट देते अथवा उठकर चल देते। मैं कश-म-कश में पड़ा रहता कि उनके सामने अपनी हसरत कैसे रखूँ ! और वह ख्वाहिश जो मैंने बचपन से ही पाल रखी थी, मन में ही दबी रह जाती। मुझे ऐसा भी लगता कि मैं लक्ष्य के बहुत निकट हूँ, लेकिन लक्ष्य का संधान नहीं कर पा रहा।...
एक दिन हिम्मत जुटाकर मैंने उनसे कह ही दिया--"बाबा, आत्माओं से सम्पर्क का गुर मुझे दे दीजिये न! मैं भी जब चाहूँ, उनसे संपर्क करूँ।" बाबा ने मुझे घुड़क दिया था--"हद्द बेवकूफ़ी की बात है, शोले को हथेलियों में रखना चाहता है? आफतों को न्योता नहीं देते।" फिर, मैं उन्हें मनाने की फ़िक्र में लग जाता।
दिन गुज़रते जा रहे थे और बाबा कंधे पर हाथ नहीं रखने दे रहे थे। संभवतः नौवें-दसवें दिन की बात है। शाम के वक़्त मैं निश्चय करके स्वदेशी कालोनी से निकला कि आज बाबा से पराजगत से संपर्क का गुर लेकर ही लौटूँगा। उनके पास पहुँचते ही मैंने रामधड़ाका अपनी बात उनके सामने रख दी। वह तो एकदम उखड़ गए। मुझे दुत्कारते हुए बोले--'भाग जा यहां से। नादानी की हद हो गई। जान जहन्नुम में डालने को आमादा है तो मैं तेरी मदद नहीं करनेवाला। ... "
मैं उनके पास से लौटा तो बहुत क्षुब्ध था। रात का खाना खाकर जब बिस्तर पर गया तो देर रात तक नींद नहीं आई। सोचता ही रहा कि अब क्या करूँ ? अंततः नींद आने के पहले मैं इस निश्चय पर पहुँच गया था कि आत्माओं से सम्पर्क का यह कार्य-व्यापार स्वयंसिद्ध करूँगा अपनी निष्ठां, मनोयोग और अटूट ध्यान से।
दूसरे दिन ही मैंने बाज़ार जाकर सारा इंतज़ाम किया--प्लाई का एक बोर्ड, जिसका एक तल बहुत चिकना था, बहुत पतले शीशे की एक छोटी-सी गिलसिया और खादी सिल्क की एक धोती खरीदी। अगरबत्ती, मोमबत्ती और धूपबत्तियाँ भी लेकर लौटा। बोर्ड पर वही सब पेंट से लिखा, जैसा बाबा के यहां मैंने देखा था। रात होने पर स्नान करके मैंने सिल्क की धोती बाँधी, कमरे के दोनों दरवाज़े बंद किये, मोमबत्तियां-अगरबत्तियां जलाईं और बोर्ड बिछाकर हाथ में शीशे का गिलास लेकर ध्यान-मुद्रा में देर तक बैठा। ध्यानावस्था में मुझे बार-बार लगता जैसे शरीर में हल्का-सा कम्पन हुआ हो, जैसे कोई आत्मा मेरी पुकार सुनकर आ गई हो। मैं गिलास को बोर्ड के मध्य में उलटकर रख देता और पूछता--'अगर आप यहां हैं तो हामी भरिये ('If u are here, say yes!')। लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी गिलास की स्थिति में कोई फर्क न पड़ता। निराश होकर मैं फिर ग्लास उठा लेता और पुनः ध्यान में लीन होने की चेष्टा करता। पहली रात गहरी निराशा के साथ ही मुझे सोना पड़ा।
लेकिन मैंने अपना हठ न छोड़ा। तीन दिनों तक यही क्रम चलता रहा और निराशा मेरी संगिनी बनी रही। किसी भी दिन २-३ बजे के पहले नहीं सोया। अंततः यही समझ में आया कि अनेक गुर ऐसे होते हैं जो हठधर्मी से आयत्त नहीं किये जा सकते। वे गुरु-कृपा से ही सिद्ध होते हैं।
चौथे दिन मैं शाम के वक़्त फिर घाट पर जा पहुंचा। सीधे बाबा के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। मायूसी में गंगा-तट पर टहलता रहा और बाबा के सामने जाने की हिम्मत जुटाता रहा।लेकिन मुझे उनकी धूनी पर जाना न पड़ा, अचानक वही मेरे सामने आ खड़े हुए। मुझे देखते ही बोले--'तू वेताल की डाल नहीं छोड़ेगा न…?' मैंने झुककर उनके चरण छुए। उन्होंने हठात प्रश्न किया--'मनमानी कर आया तू, क्यों नहीं समझता कि ये रास्ता काँटों से भरा है…?' उनकी इस बात से मैं अचरज में पड़ा चुपचाप उन्हें निहारता रहा, बोला कुछ नहीं। थोड़ी देर मौन रहकर बाबा ने आदेश के स्वर में कहा--'जान गया, तू मानेगा नहीं। चल, आ जा, समझाता हूँ तुझे परा-जगत में प्रवेश का रहस्य।'...
मैं कृतज्ञता से भरा उनके पीछे चल पड़ा। ...
(क्रमशः)