सोमवार, 30 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२४)

[जब कृतज्ञता अश्रु बन छलकी थी... ]

पितामही और माता के बाद जीवन के चौबीसवें वसंत को लांघते ही पहली बार किसी ने मुझसे कहा था--'मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ'--चाहे यह वाक्य पराजगत से आयी चालीस दुकानवाली आत्मा ने ही क्यों न कहा हो। एक अबूझे रोमांच से भरा हुआ था मैं.… लेकिन यह सुरूर यथार्थ पर दृष्टिपात करते ही उतर जाता था, फिर सत्य से विमुख होते ही इस वाक्य के मर्म का ज्वर मुझ पर चढ़ने लगता था। चालीस दुकानवाली से घनिष्ठ रूप से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मैं पराजगत के बारे में अधिकाधिक जान सकूँ, वहाँ के भेद बटोर सकूँ, किसी आत्मा से वैसे ही बातें कर सकूँ जैसे मेरे चाचाजी किया करते थे; लेकिन उठान की उस उम्र में, कल्पना-लोक में विचरण भी सिहरन का विचित्र सुख देता था; फिर भी मन में प्रश्न उठता कि इस वायवीय प्रेम की अर्थवत्ता क्या है? प्रेम की इस स्फुरणा की ज़मीन कहाँ है; लेकिन जैसा चालीस दुकानवाली ने कहा था, मैं मान लेता हूँ कि 'प्रेम तो आत्मा की अमूल्य निधि है ! आत्मा से आत्मा में प्रेम प्रतिष्ठित होता है।' मैं भी अपनी आत्मा में उसकी आत्मा का प्रेम प्रतिष्ठित करने लगा था और ऐसा अनायास हो रहा था, सप्रयास नहीं।…

बहरहाल, जिस रात देर तक चालीस दुकानवाली आत्मा से मेरी बातें हुई थीं और मुझे समस्त जानकारियां उस मज़दूर की बिटिया के बारे में मिली थीं, उसके दूसरे दिन दफ्तर में मजदूर भाई मुझसे मिलने लेख-विभाग में आये। मैं उन्हें साथ लेकर पहले माले से नीचे उतरा और एकांत में उन्हें सारा वृत्तांत सुना दिया। उसमें पिछली पीढ़ी में हुई घटना की कथा को प्रक्षिप्त रखना था, जिसकी हिदायत मुझे चालीस दुकानवाली से ही मिली थी। निवारण का उपाय जानकार वह कुछ चिंतित दिखे। मैंने पूछा--'यह सब करना कठिन तो नहीं है, फिर आप फिक्रमंद क्यों है?'
वह कुछ सोचते हुए बोले--'कोई बात नहीं सर, मैं परिवार में राय-बात कर लूंगा, सब हो जाएगा सर ! फिकर की कोई बात नहीं है।'
मैंने कहा--'हाँ, तो ठीक है। कोई अच्छा दिन देखकर यह कृत्य कर लीजिये। उसके बाद जब फुर्सत मिले, मिल लीजियेगा।'
उन्होंने थोड़े संकोच से पूछा--'इस पूजा के लिए अपनी पत्नी को भी गंगा के घाट पर साथ ले जाऊँ तो कोई हर्ज़ तो नहीं?'
उत्तर में मैंने बस इतना कहा--'हाँ भाई, जरूर ले जाइए, लेकिन जिन सावधानियों को बरतने की बात मैंने कही है, उनका ध्यान रखियेगा।'
मज़दूर भाई ने मुझे आश्वस्त किया और नमस्कार करके चले गए। मैं भी अपनी राह लगा।

उसके बाद १०-११ दिन बीत गए। मज़दूर भाई कहीं दिखे नहीं, कभी मिले नहीं। पिछले दस-एक दिनों में चालीस दुकानवाली आत्मा से मेरी बातें तो होती ही रहीं। मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह अब पहले से अधिक प्रगल्भ और बेतकल्लुफ़ हो गयी थी। वह रस लेकर मीठी बातें करती थी तथा प्रसन्नता से भरी जीवंत (कैसे कह दूँ कि 'फ़ुल ऑफ़ लाइफ' थी?) प्रतीत होती थी। आज उसके बारे में लिखते हुए मुझे मानना पड़ेगा कि मैं उसके प्रबल आकर्षण में आबद्ध हो गया था--उसको लेकर मेरे मन में भी कहीं प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होने लगा था, अच्छी तरह यह जानते हुए भी कि इस अ-लौकिक प्रेम का भविष्य कुछ भी नहीं। लेकिन जानता हूँ और मानता भी हूँ कि उन दिनों मैं प्रगाढ़ प्रेम की राह पर था--एक दिशाहीन राह पर....!

ठीक-ठीक तो स्मरण नहीं, लेकिन शायद बारहवें दिन अर्द्ध रात्रि की वार्ता में अचानक चालीस दुकानवाली ने कहा--'मैंने कहा था न, गंगा के तट पर मेरा बताया अनुष्ठान करने से उस भटकती आत्मा को मुक्ति मिल जायेगी। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि उसे मुक्ति मिल गई है।'
मैंने लगभग चौंकते हुए कहा--'मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं है। वह मजदूर भाई पिछले दस-बारह दिनों से मिले ही नहीं। मिलें, तो पूछूं!'
'ही-ही' करते हुए चालीस दुकानवाली ने कहा--'प्रतीक्षा करो, लौटेंगे वह। वह अपने गॉंव चले गए थे, वहीं की गंगा के तट पर उन्होंने सारा कृत्य विधि-विधान से किया है।'
मैं अपनी उत्सुकता का संवरण नहीं कर सका, हुलसकर पूछ बैठा--'उसकी बिटिया का कष्ट दूर हुआ क्या?'
चालीस दुकानवाली ने फिर 'ही-ही' करते हुए कहा--'तुम अपने मजदूर भाई से ही पूछ लेना। मैं भी देखना चाहूँगी कि उनके मुख से सारा वृत्तांत सुनकर तुम कितने खुश होते हो!'

दो दिन और गुज़र गए। मैं बेसब्री से मज़दूर भाई की प्रतीक्षा करता रहा और उन्होंने भी मेरे सब्र का खूब इम्तेहान लिया। पन्द्रहवें दिन मुझे इल्हाम हो रहा था कि हुज़ूर ज़रूर तशरीफ़ लायेंगे, लेकिन दफ़्तर का सारा वक़्त बीत गया और मज़दूर भाई के दर्शन नहीं हुए। मैं निराश अपने क्वार्टर पर लौट आया। मैंने चाय बनाकर पी ली और एक सिगरेट जलाकर बिस्तर पर लेट गया। मुझे चालीस दुकानवाली आत्मा पर गुस्सा आ रहा था कि उसने क्यों नहीं पूरी बात बताकर इस अध्याय का पटाक्षेप उसी रात कर दिया। कम-से-कम मुझे इस उजलत से छुटकारा तो मिल जाता।

आधी सिगरेट ही अभी फुंकी थी कि द्वार पर दस्तक हुई। मुझे लगा शाही आये हैं। वह ऑफिस से ही बाज़ार चले गए थे। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने मज़दूर भाई खड़े मिले। उनके हाथ में दो पैकेट था। कमरे में प्रविष्ट होते ही उन्होंने टेबल पर दोनों पैकेट रख दिए और किंचित क्षिप्रता से आगे बढ़कर मेरे दोनों पैर पकड़कर ज़मीन पर ही धम्म-से बैठ गए। उनकी आँखों में आँसू थे और कण्ठ अवरुद्ध था। उनकी भाव-विगलित दशा देखकर मैं घबराया। कन्धों से पकड़कर उन्हें उठाते हुए मैंने कहा--'अरे-अरे यह क्या करते हैं भाई, आप उम्र में मुझसे बड़े हैं। कुछ तो ख़याल कीजिये। उठिए, आराम से ऊपर बैठकर बातें करते हैं।'
लेकिन अपने मेहनतकश हाथों से उन्होंने मेरे चरण न छोड़े और थोड़ी कठिनाई से दो वाक्य बोल सके--'बहुत कृपा है आपकी, बहुत बड़ा उपकार है ओझाजी, बहुत बड़ा…!'

सच मानिये, मुझे बलपूर्वक उन्हें अपने पांवों से विलग करना पड़ा था और भूमि से उठाकर शाही की चौकी पर बिठाना पड़ा था। उन्होंने संयत होने में दस-एक मिनट लगा दिए। मेरे कुशल-क्षेम पूछने पर उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया--
"उस दिन आपसे बात करके जब मैं घर पहुँचा तो अपनी घरवाली को मैंने सारी बात बताई थी। दो दिन यही सोचते बीत गए कि आपकी बतायी पूजा कहाँ करूँ। कानपुर के सब घाटों पर तो हमेशा हलचल रहती है। फिर पत्नी ने ही गाँव चलने की सलाह दी। मेरे गांव से एक मील की दूरी पर ही गंगा की धारा है। मैं मिल से पंद्रह दिनों की छुट्टी लेकर अपने गाँव चला गया था। जैसा आपने बताया था, उसका पूरी तरह पालन करते हुए वहीं मैंने पत्नी और बेटी के साथ पूजा की थी। आज दोपहर में ही गाँव से लौटा हूँ। पूजा के बाद दस दिनों तक गाँव में रहा। इन दस दिनों में मेरी बेटी ने फिर कभी वह दृश्य नहीं देखा--न काला धुआँ, न उसके बीच घूमती किसी महिला की छाया। आपने सच में मेरे परिवार का बड़ा उपकार किया है ओझा साहब! मेरी घरवाली भी आपका दर्शन करना चाहती थी, लेकिन इस कॉलोनी में आने के लिए मुझे ही साहब का स्वांग रचना पड़ता है, उसे साथ कैसे लाता? किसी दिन मिल के गेट पर ही वह आपको प्रणाम करने आ जायेगी सर!"
मैंने कहा--'अरे भाई, इसकी क्या आवश्यकता है? आप नाहक मुझे सिद्ध-वृद्ध बनाये दे रहे हैं। मैं तो एक सामान्य युवक हूँ। आपसे और भाभी साहिबा से बहुत छोटा...!'
कुछ और बातों के बाद वह जाने को उठ खड़े हुए। दरवाज़े से निकलने के पहले ठिठके, ठहरे, अपनी जेब से उन्होंने एक छोटा-सा लिफ़ाफ़ा निकाला। उसे पहले से रखे हुए दो पैकेटों के ऊपर रखकर बाहर निकलने को उद्धत हुए। मैंने उन्हें रोका और पूछा--'इस लिफ़ाफ़े में क्या है भाई? और अपने ये पैकेट तो आप यहीं छोड़े जा रहे हैं।'

वह बहुत संकुचित हुए और हिचकिचाते हुए बोले--'सर, मुझ गरीब के पास है ही क्या। मैं तो आपकी किसी सेवा के लायक भी नहीं हूँ। बस, बहुत थोड़े से रुपये हैं लिफाफे में और ये डब्बे भी आपके लिए मेरी घरवाली ने भेजे हैं।' वह शर्मिंदगी से सिर झुकाये खड़े थे और मैं हतप्रभ था।
मैंने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा, उसमें एक सौ एक रुपये थे, एक डब्बे में सफ़ेद धोती और दूसरे डब्बे में मिठाइयाँ थीं। मैंने धोती और लिफ़ाफ़ा उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा--'मैं इस विद्या का व्यवसाय नहीं कर सकता, ऐसा ही मेरे गुरु का आदेश है। इसे तो आप ले जाएँ, हाँ मैं थोड़ी-सी मिठाइयाँ इस डब्बे से अपने लिए रख लेता हूँ।' इतना कहकर मैं एक प्लेट उठाने के लिए बढ़ा ही था कि मज़दूर भाई ने आगे बढ़कर मुझे रोक दिया और भावुक होते हुए बोले--'यह सबकुछ मैं आपके लिए ही लाया था, लेकिन आपने ऐसी बात कह दी है कि मैं मजबूर हो गया हूँ। लेकिन मिठाई का डब्बा भी अगर लौटाकर ले गया तो.… !'
इतना कहते-कहते उनका गला रुंध गया। उनकी सारी कृतज्ञता आँसू बनकर आँखों में छलक आयी। मैं उनकी दशा देखकर स्तंभित था। घबराकर मैंने कहा--'ठीक है भाई, मिठाई का डब्बा मैं रख लेता हूँ। अब तो ठीक है न?' वह कुछ बोले नहीं, एक बार फिर झुककर उन्होंने मेरे पैर छूने का प्रयत्न किया। मैंने पीछे हटकर अपने चरणों की रक्षा करते हुए कहा--'बस, बस भाई! प्रसन्न रहिये, आपकी बिटिया स्वस्थ-सानंद रहे। प्रभु से यही प्रार्थना है।'

वह कृतज्ञ-भाव से भरे लौट गए और मैं देर तक यही सोचता रहा कि क्या इसी कमरे में, यहीं कहीं हवा में तैरती चालीस दुकानवाली आत्मा ने भी यह सब दृश्य देखा होगा…? उसकी 'ही-ही' मेरे कानों में घंटी-सी बजने लगी और मुझे रोमांच हो आया। मैं उसके प्रति कृतज्ञता से आकंठ भरा जा रहा था। उसने जो कुछ कहा था, अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ था। ...
(क्रमशः)

शनिवार, 28 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२३)

["चालीस दुकानवाली आत्मा का 'विशुद्ध प्रेम"...]

जिन दिनों चालीस दुकानवाली आत्मा के साथ मेरी प्रगाढ़ प्रिय-वार्ता चल रही थी, उन्हीं दिनों की बात है। स्वदेशी में अनियमित वेतन-भुगतान के कारण मजदूरों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। मिल-गेट पर आये दिन उनका धरना-प्रदर्शन होता था और मजदूर-नेताओं के गर्मजोशी से भरे भाषण होते थे। लाल झंडे-बैनरों तले माहौल गर्म होता जा रहा था। सांकेतिक हड़ताल की अनपेक्षित छुट्टियाँ भी हमें मिल जाती थीं और हम उनका बड़ा आनंद उठाते थे। शाही, मेरी और ईश्वर की दिन-भर की गोष्ठियां लगतीं । मज़े का दिन गुज़रता और रातें तो परा-जगत में विचरण की रातें थीं ही।

एक दिन की बात है, मिल का एक मज़दूर शाम के झुटपुटे में झिझकता हुआ मेरे क्वार्टर पर आया। नमस्कारोपरांत मुझसे बोला--'आप ही ओझाजी हैं न? आपके बारे में मैंने बहुत सुना है।'
जानता था, 'बहुत सुनने' लायक़ मेरी हस्ती तो थी नहीं, फिर भी मैंने कहा--'हाँ कहिये, क्या बात है?'
वह बोला--'सर, मेरी एक समस्या है। मुझे लगता है, आपके पास उसका कोई-न-कोई उपाय जरूर होगा। मिल के लोगों ने ही मुझे आपसे मिलने को कहा है।'
उसकी बात से मुझे यह शंका होने लगी थी कि वह अवश्य मेरी 'ओझागिरी' के लिए कोई नयी चुनौती लेकर आया है और चुनौतियाँ मुझे हमेशा से प्रिय रही हैं। मैंने कहा--'कहिये न, बात क्या है!'
उसने इशारे से मुझे बाहर चलने को कहा। मैं बैचलर क्वार्टर के अहाते से बाहर आया और उसके साथ सड़क पर टहलने लगा। थोड़े संकोच के साथ उसने कहना शुरू किया--'सर, मेरी सत्रह वर्ष की एक बेटी है। स्वस्थ है,उसे कोई रोग-दोष नहीं है, लेकिन उसे हर वक़्त एक तरफ से दूसरी तरफ नज़रें घुमाते हुए काले धुँए में लिपटी हुई एक औरत क्षण-भर को दिख जाती है और फिर ओझल हो जाती है। उसके साथ ऐसा किसी भी समय होता है--दिन, दोपहर, रात किसी भी वक़्त। इस विचित्र दर्शन से वह लड़की हैरान-परेशान हो जाती है। वह अपनी माँ से पिछले कई वर्षों से यह बात कहती रही है। पहले तो हम सबों ने इसे उसका भ्रम ही समझा, लेकिन अब उसकी यह शिकायत बढ़ती जा रही है। आप उसके लिए कुछ कीजिये न सर, आपका बड़ा उपकार होगा।' उसके स्वर में विनय-भाव तो था ही, वह स्वयं भी नत-शिर हो रहा था

उसकी बात सुनकर मुझे अपनी ही ज़ात पर हँसी आयी, क्या लोग मुझे अब झाड़-फूँक करनेवाला ओझा-गुणी समझने लगे हैं? मैंने उस मिल-मज़दूर को यह समझाकर विदा किया कि 'भाई, मेरा नाम 'ओझा' ज़रूर है, लेकिन मैं झाड़-फूँक नहीं करता और जो कुछ करता हूँ, अगर उससे तुम्हारी बेटी की परेशानी दूर हो गयी तो मुझे ख़ुशी ही होगी। तुम दो-तीन दिन बाद मुझसे ऑफिस में एक बार मिल लेना।"

उस मिल वर्कर से जिस शाम ये बातें हुई थीं, उसके एक नहीं, दो दिनों के संपर्क-साधन में चालीस दुकानवाली आत्मा ने जो कुछ मुझे बताया, वह मुझे ही विस्मय-विमूढ़ कर गया। पहले दिन जब मैं चालीस दुकानवाली से देर रात में चर्चा-निमग्न था, तभी अचानक मुझे मिल-मज़दूर की बात याद आई। मैंने पूरी बात उसे बतायी और पूछा कि 'क्या तुम मुझे बता सकती हो कि यह चक्कर कैसा है और उस लड़की के साथ यह सब क्यों हो रहा है?' दो क्षण की चुप्पी के बाद चालीस दुकानवाली ने कहा--"मुझे चौबीस घंटों का वक़्त दो। मैं तुम्हें कल बताऊँगी कि माजरा क्या है।"

दूसरे दिन उसने मुझसे कहा था--"तुम नहीं जानते, मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी और कितना भटकना पड़ा, लेकिन मैंने इस बाधा का कारण-सूत्र ढूँढ़ निकाला है। उस लड़की के परिवार की पूर्व-पीढ़ी में किसी कन्या की प्रेम-त्रिकोण में उलझ जाने के कारण हत्या हुई थी। वह लड़की गॉंव के ही एक युवक से प्रेम करती थी, लेकिन उस पर एक अन्य दबंग लड़के की भी नज़र थी। वह दुष्ट आते-जाते उसे परेशान किया करता था। जिन दिनों उस लड़की के विवाह का संयोग बनाने को परिवारवाले प्रयत्नशील थे, उन्हीं दिनों वह दुष्ट गाँव की उस बिटिया को बलात् अपनी इच्छा समझाने के लिए बल-प्रयोग करने लगा। जब बात उसके अनुकूल नहीं बनी तो उसने अपने कुछ उद्दण्ड और उच्श्रृंखल मित्रों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी थी। उसकी हत्या से पूरे गांव में बड़ा शोर-शराबा हुआ था। हत्यारे पलायन कर गये थे और गाँव में पहली बार पुलिस ने प्रवेश किया था। आनन-फानन में परिवारवाले अपने परिजनों के साथ शव-दाह के लिए गए, लेकिन पुलिस के हस्तक्षेप के कारण शव को अधजला ही छोड़ आये थे। उसी लड़की की आत्मा आज तक भटक रही है। वह बहुत अतृप्त है। वही काले धूम में लिपटी मज़दूर की बेटी को दिख जाती है।"

चालीस दुकानवाली आत्मा से यह रोमांचक विवरण सुनकर मैं हैरत में था। मैंने विस्मय जताते हुए पूछा--"तुम तो कह रही हो कि यह घटना पीढ़ियों पहले घटी थी, तो क्या तभी से आज तक उस अभागी बिटिया की आत्मा भटक रही है--इतने लम्बे समय से?"
चालीस दुकानवाली बोली--"हाँ, यह उसके भाग्य का भोग है।"
मैंने पूछा--"लेकिन इस भटकाव से उसे मुक्ति कब मिलेगी? वह अनंतकाल तक यूँ ही भटकती रहेगी क्या?"
वह थोड़ा हँसते हुए बोली--"नहीं, अपनी मुक्ति के लिए ही तो वह इस पीढ़ी की मज़दूर की बेटी को प्रेरित कर रही है।
मैंने फिर प्रश्न किया--"यह उसकी मुक्ति का प्रयत्न है या इस लड़की के लिए भयप्रद त्रास? तुम तो मुझे बस इतना बताओ कि इस भय-बाधा से इस पीढ़ी की बिटिया को मुक्ति कैसे मिलेगी?"
चालीस दुकानवाली ने ही दोष-निवारण का उपाय भी बताया था--"मज़दूर से कहो कि अपनी बेटी को लेकर किसी तालाब, पोखर पर चला जाए। ज़्यादा अच्छा होगा कि गङ्गा के किसी जन-शून्य घाट पर जाए। अपने साथ लकड़ी का कोयला और बेल-वृक्ष की छोटी, पतली-सी हरी टहनी ले जाए। नदी के किनारे उस कोयले को चौरस बिछाकर उसके बीच में वह टहनी रख दे, फिर उसे जलाये। जब कोयला जलेगा तो उससे काला धुँआ उठेगा। किसी दफ़्ती से हवा करके कोयले को अंगारों में परिवर्तित कर दे और बेल की टहनी को पूरी तरह जल जाने दे। जब सबकुछ भस्मीभूत हो जाए तो जल का सिंचन करे। जल के छींटे पड़ते ही उससे श्वेत धुआँ उठेगा। उस धुँए को शाष्टांग प्रणाम कर बेटी वापस लौटे और लौटते हुए पलटकर पीछे न देखे। मुझे लगता है, इससे उस आत्मा की मुक्ति हो जायेगी और इस लड़की की भय-बाधा भी दूर होगी।"

मैंने चालीस दुकानवाली को धन्यवाद देते हुए कहा--"मैं जान गया, तुम्हें भागीरथ प्रयत्न करना पड़ा है, फिर भी मेरे अनुरोध का तुमने मान रखा, मैं आभारी हूँ। किन्तु, यह सब तो असफल प्रेम का दुष्परिणाम ही है और क्या?"
चालीस दुकानवाली अपने कटु अनुभवों की तड़प में बोल पड़ी--"सुनो, तुम्हारा आभार मेरे किसी काम का नहीं। प्रेम तो तुम्हारे जगत का सबसे विषैला नाग है, क्योंकि वह प्रेम है ही नहीं, वह तो सिर्फ़ वासना है, भूख है! प्रेम तो आत्मा की अमूल्य निधि है ! आत्मा से आत्मा में प्रेम प्रतिष्ठित होता है अन्यत्र जो कुछ है, वह प्रेम के नाम पर छल है, फरेब है, धोखा है, देह की भूख है।"
मैंने कहा--"शायद तुम ठीक कहती हो, शायद यही सच हो।'
वह निश्चयात्मक स्वर में बोली--"शायद' मत कहो, यही सत्य है। देखो न, मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ, उसमें मलिन क्या है? माँग क्या है? लालसा कहाँ है? यह आत्मा का आत्मा से निष्कलुष प्रेम है-- विशुद्ध प्रेम!"

मेरे प्रति चालीस दुकानवाली आत्मा की यह विचित्र आसक्ति मेरी समझ से परे थी। उसका वायवीय 'विशुद्ध प्रेम' मेरे मस्तिष्क में प्रश्न बनकर ठहर गया था। सच में, मैं अवाक, हतप्रभ और विस्मित रह गया था उस दिन… !
(क्रमशः)

बुधवार, 25 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२२)

['मैं भयावह काली बिल्ली-सी नहीं,
भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित'... ]

पिछले डेढ़-दो महीने की वार्ता में चालीस दुकानवाली आत्मा ने कई टुकड़ों में मुझे अपनी पूरी जीवन-कथा सुनायी थी। उसकी कथा में जीवन के सारे रंग थे--उत्साह-उमंग के, सुख के, दुःख के और गहरे अवसाद के रंग। खून के जमे हुए थक्कों-से स्याह रंग बहुत व्यथित करनेवाले रंग थे, जो आँखों में आंसू बनकर उतर जाना चाहते थे। मात्र तेईस-चौबीस वर्ष के जीवन में उसने बहुत कुछ सहा-भोगा था। मुझे कई बार लगता कि वह अपनी कहानी सुनाने के लिए ही मुझ से जुड़ी है, लेकिन शायद मैं बहुत सही नहीं था। यह गहरी संपृक्ति कई तरह के आभास देती और मेरा बोध बार-बार डगमगा जाता था।
बहुत संक्षेप में उसकी जीवन-गाथा कहूँ, तब भी वह थोड़ी विस्तृत ही होगी। उत्साह, उमंग और हर्ष से शुरू हुआ उसका जीवन पीड़ा की पराकाष्ठा पर पहुंचकर समाप्त हो गया था। वह अपने माता-पिता की एकमात्र कन्या-संतान थी। गोरी-चिट्टी, सुदर्शना बिटिया! नाज़ों की पली बिटिया! तब उसने जीवन में खुशियों का ही रंग देखा था। इण्टर की परीक्षा में उत्तीर्ण होते ही उसका विवाह हुआ था। उसका पति सुदर्शन युवक था। जल्द ही दोनों में गहरी प्रीति पनपी थी। लेकिन अभी वह स्नातक तक पढ़ना चाहती थी। इसकी स्वीकृति ससुरालवालों ने उसे दे दी थी। कॉलेज में उसके मुहल्ले का एक समवयस्क युवक उसके जीवन में आया। वह भी बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। एक ही मुहल्ले का परिचय-सूत्र पकड़कर वह पढाई में आपसी सहयोग के लिए उसके मायकेवाले घर आने-जाने लगा था। उन दोनों की मित्रता निष्कलुष मित्रता थी--अध्ययन की परिधि तक सीमित। किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि जितनी शीघ्रता से नव-दम्पति के बीच प्रीति पनपी थी, उससे भी कम समय में उसके पति के मन में शंका के व्याल ने अपना फण उठाना शुरू कर दिया। अभी प्रथम वर्ष का छह महीना ही बीता था कि उसका पति परोक्ष रूप से उससे सहपाठी के विषय में अनुचित प्रश्न करने लगा और कभी-कभी हंसी-मज़ाक करता हुआ व्यंग्य-बाण छोड़ने लगा। शुरूआती दौर में तो यह सब सामान्य चुहलबाज़ियों-सा लगता रहा, लेकिन वक़्त के साथ इस हंसी-मज़ाक का रंग बदलता गया। अब उसे साफ़ दिखने लगा कि पति के मन में ये खामखाह की शंका जड़ जमाती जा रही है। उसने इन बातों का प्रतिरोध शुरू किया तो छोटे-मोटे विवाद होने लगे। ये विवाद पति-पत्नी के बीच ही रहे, परिवारवालों तक इसकी आंच नहीं पहुंची। थोड़ा वक़्त और गुज़रा तो उसे स्पष्ट परिलक्षित होने लगा कि उसका पति उसके प्रति उदासीन रहने लगा है। उसने कई बार इसका कारण भी जानना चाहा, किन्तु पति से कोई संतोषजनक उत्तर उसे नहीं मिला। उसके मन की कामनाओं की कल्प-लता मुरझाने लगी थी।

किसी तरह पढाई का पहला वर्ष व्यतीत हुआ। जब वह द्वितीय वर्ष में आई, तभी की बात है। एक दिन वह अपने सहपाठी के साथ महाविद्यालय-प्रांगण से बाहर आई तो उसने देखा कि उसका पति बाहर उसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। वह उसके पास पहुँची, लेकिन उसे छोड़ता हुआ वह बड़ी तेजी से उसके मित्र के पास जा पहुँचा और दोनों में थोड़ी कहा-सुनी होने लगी। वह क्षिप्रता से दोनों के पास आयी और बीच-बचाव करके पतिदेव को अलग खींच ले गयी। बात यहीं ख़त्म हो गई। रास्ते भर वह अपने पति को समझाने का प्रयत्न करती रही कि जैसा वह समझ रहा है, वैसा कुछ है नहीं, वह नाहक शक कर रहा है और एक सामान्य मित्रता को मलिन रंग देने की अनावश्यक चेष्टा कर रहा है। उसकी बातों का पति के ऊपर कोई प्रभाव होता नहीं दीख रहा था, वह मुँह फुलाये रहा, बोला कुछ नहीं।
इस घटना के बाद के तीन महीने कष्टकर गुज़रे--अलगाव, मनमुटाव और नोक-झोंक के। इन्हीं कारणों से अब उसका मन भी पढाई में नहीं लग रहा था। वह सोचने लगी थी कि पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए पढाई ही छोड़ दे। अभी वह किसी निर्णय पर पहुँच पाती , इसके पहले ही एक रात वह अघटनीय घटना घट गई, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। रात के नौ बजे थे, वह किचेन में काम कर थी। तभी उसका पति पीछे से आया था। उसने तीव्र ज्वलनशील कोई तरल पदार्थ उस पर डाल दिया था और उसकी साड़ी का पल्लू जलते हुए बर्नर पर रख दिया था। देखते-देखते अग्नि ने विकराल रूप धारण कर लिया और एक मासूम जीवन-दीप उस अग्नि में जल बुझा था।

चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझे तफ़सील से बताया था कि उसके बाद उसके पति ने कैसे-कैसे नाटक किये थे, मूर्च्छित अवस्था में किस तरह उसे अस्पताल पहुँचाया था, इस हादसे को किन प्रयत्नों से उसने दुर्घटना का रंग दिया था, तमाम रिश्तेदारों, उसके मायकेवालों के सामने कितना अभिनय किया था वगैरह ! उसने मुझसे कहा था--'सुबह होने के पहले जब मैंने शरीर छोड़ा था, तो अपनी ही सुन्दर काया की ऐसी दुर्दशा देखकर चीख पड़ी थी, लेकिन मेरे आसपास बैठे और रो रहे परिजन मेरी चीख सुन नहीं सके थे। मैं अपनी माँ, पिताजी और भाई के आसपास देर तक मँडराती रही और उन्हें घटना की सच्चाई बताने को चिल्लाती रही, लेकिन मैं कंठ-विहीन हो चुकी हूँ, यह थोड़ी देर बाद मैं जान सकी। तुम्हारे जगत के सारे सूत्र मुझसे छूट गए थे। मैं हताश, लाचार, निरुपाय और असहाय हो गई थी।'
मेरी जिज्ञासा पर उसने कहा था--'इसी विवश दशा में, मैं क्षोभ से भरी हुई, लम्बे समय तक भटकती रही, तभी एक दिन तुम मुझे मिले थे। मैंने पहली बार अपनी पीड़ा तुम्हें ही बतायी थी। मैं अपने पति से बदला लेना चाहती थी और इसीलिए तुमसे मदद माँग रही थी, लेकिन जब तुमने मुझे जल दिया, मेरी जलन कुछ कम हुई। तुमसे बातें करके मुझे शांति मिलने लगी, द्वेष और बैर-भाव तिरोहित होने लगा। तुम मुझसे बस बातें करते रहो, मुझे सचमुच अच्छा लगता है।'
मैंने उससे पूछा था--'ये बैर-भाव, ये द्वेष-द्वंद्व तुम्हारे लोक में भी तो होगा न ?'
उसने तत्काल उत्तर दिया था--'नहीं, ये सब तुम्हारे जगत की निधियाँ हैं। ये जाति-सम्प्रदाय, बैर-उत्पीड़न, द्वेष-द्वन्द्व, कलह-घृणा, कुंठा-अवसाद और निर्मूल शंका-प्रतिशोध--सब तुम्हारे लोक के विष-भूषण हैं। मैं तो निस्सीम आकाश में तैरती हूँ, जहाँ कोई अवरोध नहीं है। न सूर्य का ताप मुझे जलाता है और न वर्षा की बूदें मुझे भिगोती हैं। ओलों की बौछार भी मुझे बींध नहीं सकती। यहां कोई क्लेश नहीं, दुःख-द्वंद्व नहीं, राग-द्वेष नहीं; आनन्द ही आनन्द है। हम यहां बहुत बड़ी संख्या में हैं--अनगिनत आत्माएँ ! हम एक-दूसरे से हिले-मिले रहते हैं, एक-दूसरे के पार चले जाते हैं। कोई किसी के मार्ग का बाधक नहीं बनता। किसी प्रकार का अंतर्विरोध भी नहीं। काश, तुम मेरे साथ होते और इस परमानंद में मेरे साथ विचरण करते, आनंद का शतदल कमल खिल जाता--विश्वास करो मेरा !"

सचमुच, चालीस दुकानवाली आत्मा की बातों में जादू था, सम्मोहन था। मेरे मन का आकर्षण यह था कि मैं उसके लोक के जीवन को गहराई से जानना-समझना चाहता था। मैंने उससे कहा था--'तुम कहती हो, मैं तुम्हारे साथ होता तो… लेकिन मैं तुम्हारे साथ कैसे हो सकता हूँ, मैं तो इस जगत में हूँ और तुम न जाने किस परा-जगत में। कभी-कभी तुम मुझे उस काली बिल्ली-सी लगती हो, जो स्याह अंधेरों से आती है, अपनी तीखी आँखें चमकाती हुई, कभी मीठी म्याऊँ करती हुई और कभी अपने नुकीले पंजे मारती हुई…! और, जो बातें करने के बाद उसी काले अँधेरे में विलीन हो जाती है।'
उसने हँसकर कहा था--'तुम्हें भ्रम है, मैं भयावह काली बिल्ली-सी नहीं, भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित.... ! मुझे देखोगे तो आँखें चुँधिया जायेंगी तुम्हारी।'
मैंने भी हँसते हुए उससे कहा था--'तब तो तुम्हें देखना चाहूंगा किसी दिन। देखूँ , कैसे चुँधियाती हैं मेरी आँखें....?'
मेरी बात सुनकर वह 'ही-ही' करती हँस पड़ी थी।…
(क्रमशः)

सोमवार, 23 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२१)

[अजब था हाल दिल का, गज़ब थी दोस्ती उसकी... ]

सन १९७० में आचार्य रजनीश पटना पधारे थे। तब तक वे आचार्य ही थे, 'भगवान्' या 'ओशो' नहीं हुए थे। उन दिनों आकाशवाणी, पटना के हिंदी प्रोड्यूसर पिताजी थे। उन्होंने हिन्दी वार्ता विभाग के लिए आचार्य के 'मुक्त-चिंतनों' का ध्वन्यांकन किया था और घर आकर उनकी वक्तृता की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तभी पता चला कि पटना के लेडी इंस्टीफिंसन हॉल में तीन दिनों तक शाम के वक़्त आचार्यश्री के भाषण होंगे। मैंने अपने अभिन्न मित्र कुमार दिनेशजी के साथ घर से ८ किलोमीटर दूर जाकर तीनों दिन उनके भाषण सुने थे। आचार्य समय-सिद्ध वक्ता थे। बिना घड़ी देखे ठीक एक घंटे का सम्भाषण करते थे और अपने कथन की प्रस्तावना में वह छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते थे। सरस्वती की उन पर बड़ी कृपा थी। वह धाराप्रवाह बोलते थे, किञ्चित नःस्वर के साथ। उनके तर्क अकाट्य थे--अनेक प्रमाणों से पुष्ट और लघु कथाओं से सिद्ध। तीन दिनों में उन्होंने कई छोटी-छोटी कथाएँ सुनाई थीं, उनमें से कई जीवन भर के लिए स्मृति में ठहर-सी गयी हैं। उन कथाओं का प्रभाव भी मेरे आचार-विचार और व्यवहार पर पड़ा था। उनकी एक कथा इस प्रकार थी--
"एक व्यक्ति तीव्र गति से एक गलियारे में चला जा रहा था। गलियारे के दोनों ओर कमरे बने हुए थे, जिनके द्वार बंद थे। वह सभी दरवाज़ों पर दृष्टि डालता शीघ्रता से बढ़ा जा रहा था। तभी एक द्वार पर दृष्टि पड़ते ही वह ठिठक गया। दरवाज़े के बाहर लिखा हुआ था--'अंदर आना मना है!' यह पढ़ते ही उस व्यक्ति के मन में पहली प्रतिक्रिया हुई कि 'अंदर जाना वर्जित क्यों है? क्या है वहाँ?' और दूसरी यह कि 'अब तो अंदर देखकर जानना ही होगा कि अंदर प्रवेश की मनाही क्यों है।' मैं आपसे यही कहना चाहता हूँ कि जहाँ वर्जना है, वहीं विद्रोह है। वर्जना विद्रोह की जननी है। वर्जना अवज्ञा की उत्प्रेरिका है।.…" इन पंक्तिओं बाद आचार्यजी अपना सम्भाषण मूल कथ्य की ओर ले चले…!
पिताजी-प्रभाकरजी की वर्जना, अमित भइया की चेतावनी और मित्रवर शाही की निरंतर रोक-टोक मुझे परा-जगत में विचरण से जितना दूर रहने को प्रेरित कर रही थी, मन उतनी ही तीव्रता से उधर खिंचा जाता था।..... मेरी कुण्डली और मनोरचना में भी संभवतः ऐसे कुछ तत्व अवश्य रहे होंगे कि सीधी राह से हटकर वक्र चलना ही मुझे अच्छा लगता था। अतिरिक्त यह कि आचार्यश्री की इन लघु-कथाओं का प्रभाव मेरी वक्र चाल की संपुष्टि भी कर रहा था।
एक-डेढ़ महीने के लम्बे विश्राम के बाद एक रात जब सोने के लिए शय्या पर लेटा तो कुछ अजीब-सा हाल मन का होने लगा। जैसे दिल में कोई ऐंठन-सी हो रही हो, कोई बेचैनी, कोई तड़प मुझे पुकार रही हो, कुछ बोझ-सा महसूस होने लगा था। विचित्र मनःदशा थी। शाही तो सुखी प्राणी थे, लेटते ही सो जाते थे। मैं लेटकर पहले पढता था, फिर कुछ विचार उपजे तो लिखने बैठ जाता था--गद्य में अथवा पद्य में। मैंने निद्रा-देवी के आवाहन के लिए पत्रिका उठाई, तो उसमें भी मन न रमा। कुछ लिखने की भी बिलकुल इच्छा नहीं थी। फिर आँखें मूँदकर आपदाओं को हरनेवाले प्रभु श्रीराम की वंदना का एक मंत्र (पिताजी से सुना हुआ--कंठाग्र मंत्र) जपने लगा। लेकिन, उस रात तो किसी विधि चैन ही न आता था।

अंततः सारी वर्जनाओं की अवज्ञा और चेतावनियों की अनदेखी कर मैंने पलेन्चेट का बोर्ड बिछा ही लिया, उस पर पड़ी धूल झाड़ी, अगरबत्ती जलाई और ध्यान-योग के लिए तत्पर हुआ। अभी किसी को पुकारने की सोच ही रहा था कि एक आत्मा बिना बुलाये ही आ पहुँची। वह कोई और नहीं, चालीस दुकानवाली आत्मा थी। वह आते ही आँधी-तूफ़ान-सी मुझ पर बरस पड़ी। 'आप-आप' की मर्यादाएं उसने तोड़ दीं और 'तुम-ताम' पर उतर आई। मुझे उसका यह परिवर्तित आचार प्रिय नहीं लगा। मैंने कहा--'आप यह किस तरह मुझसे बात कर रही हैं?'
वह तो आपे से बाहर थी, तैश में बोली--'अरे छोडो, मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में भटक रही हूँ और तुम हो कि मुझसे बात करने की कोई सुध ही नहीं है तुम्हें। ये आप-आप छोड़े, अब तो ऐसे ही बात होगी तुमसे!'
मैंने अपने ऊपर संयम रखते हुए शांत भाव से उससे पूछा--'आखिर हुआ क्या है ? बताओ तो सही, आ तो गया हूँ तुमसे बात करने।' मैं भी पुरानी पटरी से 'तुम' पर उतर आया था।
वह थोड़ी नरम पड़ी। उससे यह जानकार मैं आश्चर्य से अवाक रह गया कि पिछले डेढ़ महीने से वह लगातार मेरे पीछे लगी रही है। मैं जब दिल्ली गया था, तब वह भी मेरा पीछा करती वहाँ तक गई थी। मेरे परिवार के हर व्यक्ति के बारे में वह जानती है, इस विस्मय-बोध से मैं किंचित आक्रान्त हुआ। मैंने उससे कहा--'मुझसे बातें करने को तुम इतनी व्यग्र हो, यह मैं कैसे जान सकता था भला?'

क्रमशः उसका क्रोध शांत हो रहा था। वह बेबसी से बोली--'और मैं क्या कर सकती थी, तुम्हें जगाने के मेरे पास क्या साधन थे? आज मैंने भी ठान लिया था कि तुम्हें इतना बेचैन कर दूँगी कि मुझसे बात करने को विवश हो जाओगे तुम!'
मैंने कहा--'अच्छा, तो वह तुम्हीं थीं, जो मुझे परेशान कर रही थीं। लेकिन इस तरह व्यग्र होना और मुझे परेशान करना तो ठीक नहीं है। अब बता भी दो, तुम्हारी व्यग्रता का कारण क्या है?'
लेकिन उसे कारण कुछ बताना नहीं था, सिर्फ मुझसे बातें करनी थी। और, बातें भी क्या? अनर्गल, बे-सिर-पैर की। मैंने कारण जानने की ज़िद की तो वह बोल पड़ी--'तुमसे बात किये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता, मैं उद्विग्न रहती हूँ। तुम्हें क्या मालूम, पिछले डेढ़ महीने मैंने किस बेकली से बिताये हैं।'
मैंने कहा--'और वह जो तुम मुझसे मदद मांगती रही हो, वह क्या है ! मैं किस तरह तुम्हारी मदद कर सकता हूँ? जिस रूप में चाहो, तुम्हारी सहायता के लिए मैं तैयार हूँ। तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँगा, तो संभव है, तुम्हारे मन को थोड़ी शान्ति मिले, लेकिन वही करने को कहना जो कर पाना मेरे लिए संभव हो। तुम बताओ तो सही!'
--'हाँ, हाँ, समय आने दो, वह भी बताऊँगी। अभी तो तुम मुझसे वादा करो कि सप्ताह में तीन दिन मुझसे जरूर बातें करोगे, भूलोगे नहीं।'
मैंने कहा--'मुझे इस तरह बंधन में न बाँधो। रोज़ कोई-न-कोई व्यस्तता रहती है। चलो, सप्ताह में एक बार बात ज़रूर करूँगा तुमसे, वादा रहा।'
वह इठलाकर बोली--'इतने से काम नहीं चलेगा। मुझे तो बहुत-सी बातें करनी हैं तुमसे। बहुत सारी बातें! वादा करो, सप्ताह में तीन दिन।'
ऐसी ही अनावश्यक बातें करते हुए रात के दो बज गए थे और चालीस दुकानवाली देवी न जाना चाहती थीं और न उल्लेखनीय कुछ कहना। उसका प्रलाप सुनते-सुनते मुझे उजलत होने लगी थी। जैसे ही मैं उससे लौट जाने को कहता, वह बोल पड़ती--'पहले वादा करो।' अंततः मुझे हार माननी पड़ी और वादा करना ही पड़ा कि प्रति सप्ताह तीन बार उससे बात करूँगा।
चालीस दुकानवाली आत्मा का मुझमें इतनी रुचि लेना मुझे असहज भी लग रहा था और प्रीतिकर भी। लेकिन, मैंने अपना वादा मुस्तैदी से निभाया। डेढ़-दो महीनों तक उससे लगातार वार्तालाप होता रहा। अब उसे बुलाने-पुकारने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ती थी। बोर्ड बिछा नहीं कि वह मेरे ग्लास में आ बैठती। मुझे ऐसा लगने लगा था कि वह मेरे कमरे की हवाओं में ही तैरती रहती थी कहीं और बोर्ड बिछने की तत्परता से प्रतीक्षा करती थी। अब वह मेरी अच्छी मित्र बन गई थी। कई मसलों में उसने मेरी सहायता भी की थी। परा-जगत से संयोग और सूत्र भी मेरे लिए ढूँढ़ लाती थी। कतिपय समस्याओं का समाधान तुरत बता देती, मेरे सामने दूसरों के राज़ फ़ाश कर देती और मैं चकित रह जाता। आज सच कहूँ तो मेरे जोड़ीदार शाही भाई के ही कुछ पोशीदा मामले उसने मेरे सामने उजागर कर दिए थे और जब चालीस दुकानवाली का उल्लेख किये बिना मैंने उन मसलहों पर शाही को धर दबोचा, तो अंततः उन्हें उसकी सत्यता स्वीकार करनी पड़ी थी।
हम दोनों मित्रता के प्रगाढ़ बंधन में बंध गए थे, लेकिन अजब थी यह मित्रता भी और गजब थे इसके उलझे हुए तंतु भी--कठोर भी, कोमल भी।.…
(क्रमशः)

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (२०)

[परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है... ]

मुझे सुदूर अतीत में फिर लौटना होगा।
बहुत दिनों से मेरे कमरे में परलोक-चर्चाएँ नहीं हुई थीं, लेकिन परिसर में उनकी चर्चाओं का बाज़ार गर्म था। ज्यादातर लोग मेरे पीठ पीछे इनकी चर्चाएँ करते थे। जो ज्यादा निकट थे, वे तो मित्रता में अधिकारपूर्वक मुझे 'बाबा भूतनाथ' भी पुकार लेते। मुझ पर इस पुकार का कोई प्रभाव न होता। इसे मैं उनकी प्रीति का पुरस्कार ही मानता था, लेकिन शाही को यह सम्बोधन नागवार गुज़रता। वह प्रायः मुझसे कहते, 'अब यह सब बंद करो, नहीं तो पूरा दफ़्तर और मिल के लोग तुम्हें 'भूतनाथ ही कहने लगेंगे।' मैं मुस्कुराकर उन्हें शांत रहने की सलाह देता।
स्वदेशी क्लब के एक अल्पभाषी मित्र थे--अमित भइया ! वह मिल के स्टोर-प्रबंधक थे और बैचलर क्वार्टर के पीछे बने ऑफिसर्स क्वार्टर में सपत्नीक रहते थे। सुदर्शन युवा थे। उनसे सिर्फ क्लब में मिलना होता। मैं उनके साथ टेबल टेनिस खेलता। हमारी जोड़ी खूब जमती थी। टेबल के दोनों सिरों से हम दूर-दूर खड़े हो जाते और टॉप स्पिन के लम्बे-लम्बे शॉट लगाते रहते। कई बार तो एक-एक सर्विस दस-दस मिनट तक चलती रहती। हम दोनों को एक दूसरे के साथ खेलना प्रिय था। लेकिन यह निकटता क्लब तक ही महदूद थी। बोलते वह बहुत कम थे, उम्र में मुझसे चार-पांच साल ही बड़े होंगे। मैं उन्हें अमित भइया कहता था।
मेरी परलोक चर्चाओं की खबरें उनके कानों तक पहुंची होंगी। एक दिन खेलकर हम दोनों पसीने-पसीने हुए कुर्सियों पर बैठ गए थे। अचानक अमित भइया ने मुझसे पूछा--'तुम्हारे बारे में सुनता हूँ कि तुम मृतात्माओं को बुलाकर उनसे बातें करते हो ?' मैंने प्रश्न का उत्तर न देकर प्रतिप्रश्न किया--'अच्छा, तो ये खबर आप तक भी पहुँच गई! किसने कहा आपसे ?'
अमित भाई बोले--'मिल ऑफिस में ही सुना है। कोई तुम्हारा नामोल्लेख करके यही सब बात कर रहा था। तुम मुझे बताओ, क्या यह सच है ?' मैंने हामी भरी तो वह बोले--'आश्चर्य है, लेकिन यह सब तुम्हें गोपनीय ढंग से करना चाहिए। लोग तुम्हारी चर्चा करने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि लोग अपनी-अपनी समस्याएँ लेकर तुम्हारे कमरे तक पहुँचने लगें और यह बात प्रबंधन तक पहुँचे।'
मैंने कहा--'आत्माओं का आह्वान तो मैं मध्य रात्रि में ही करता हूँ और इसका उल्लेख भी किसी से नहीं करता, लेकिन मिल गेट पर जो वाक़या हो गया था, उसके बाद ही यह बात लोगों के संज्ञान में आ गई है।'
अमित भइया का उठना-बैठना मिल के बड़े अधिकारियों के बीच होता था। उन्होंने मुझे सचेत किया--'बड़े अधिकारियों के कानों तक ये बातें न पहुंचें, इसका ख़याल रखना।' मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि 'मैं तो इन बातों की चर्चा किसी से नहीं करता, लेकिन अब और एहतियात बरतूँगा।'
चलते-चलते अमित भइया ने कहा--'मैं चार-पांच दिन क्लब नहीं आ सकूँगा। दिल्ली से मेरे माता-पिताजी आनेवाले हैं।' मैंने औपचारिकतावश उनसे पिताजी का नाम पूछ लिया। अमित भइया बोले--'वह जाने-माने साहित्यकार हैं। तुम तो हिंदी में रुचि रखते हो, तुमने उनका नाम अवश्य सुना होगा। उनका नाम है--श्रीविष्णु प्रभाकर।'
उनसे यह जानकार मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि वह स्वनामधन्य विष्णु प्रभाकरजी के सुपुत्र हैं। मैंने हुलसकर कहा--'वह तो मेरे पिताजी निकट मित्र हैं। १९७१ में उनसे मेरी एक मुलाकात भी हुई है--सस्ता साहित्य मण्डल कार्यालय में--कनॉट प्लेस में। संभव है, उन्हें इसका स्मरण न हो, लेकिन आप मेरे पिताजी का नाम लेंगे तो वह निश्चय ही पहचान लेंगे।'
अमित भाई ने मेरे पिताजी का नाम पूछा। मैंने पिताजी का पूरा नाम बताकर उनसे कहा--"आप उनसे सिर्फ 'मुक्तजी' कहेंगे तो भी वह पहचान जायेंगे।"
इसके बाद दो दिन बीत गए। अमित भइया के क्लब में दर्शन न हुए। मैं समझ गया कि वह अपने माता-पिताजी के साथ व्यस्त होंगे। मेरे मन में यह इच्छा अवश्य थी कि एक बार फिर विष्णु प्रभाकरजी के दर्शन होते। दूसरे दिन शाम के वक़्त अमित भाई ने अपने सेवक को मेरे पास भेजा और सूचित किया कि पिताजी चाहते हैं, कल सुबह की चाय मैं उनके साथ पियूं। मैं प्रफुल्लित हो उठा और सेवक से मैंने कल आने की स्वीकृति भेज दी।
सुबह तैयार होकर मैं पहली बार अमित भइया के घर पहुँचा। उस दिन विष्णु प्रभाकरजी से मिलकर परमानन्द हुआ। वह सौम्य-मूर्ति, संयत-सम्भाषी और अति स्नेही व्यक्ति थे। वह पिताजी से महज़ एक वर्ष छोटे थे, लेकिन पिताजी का बड़े भाई की तरह बड़ा आदर-सम्मान करते थे। उस पीढ़ी के लोगों में आचार-व्यवहार की यह मानक परम्परा थी और लोग इसका पालन बहुत सावधानी से किया करते थे। १९४८ में दोनों ने एक साथ आकाशवाणी में 'हिंदी-सलाहकार' के पद का कार्य-भार सम्हाला था--पिताजी ने पटना में और प्रभाकरजी ने संभवतः दिल्ली में। पिताजी और प्रभाकरजी की मित्रता उन्हीं दिनों की थी। यह उसी मित्रता का प्रभाव था कि उस दिन वह बहुत प्रेम से मिले, पिताजी और मेरे काम-धंधे के बारे में पूछते रहे। इसी बीच अमित भाई बोल पड़े--'आनंद तो यहाँ बड़े साहस का काम कर रहे हैं। आत्माओं को बुलाते हैं और उनसे बातें करते हैं। पिछले दिनों ऐसा ही एक प्रसंग मिल के गेट पर उपस्थित हुआ था और तब से इनकी बहुत ख्याति हो गई है!'
विष्णु प्रभाकरजी ने मुझसे पूछकर वह पूरा प्रसंग सुना था, फिर ठीक पिताजी की तरह ही मुझसे कहा था--"मनुष्य को प्रकाश की तरफ बढ़ाना चाहिए, अंधकार की ओर नहीं। परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है और एक अँधेरी दुनिया में भटकने का कोई लाभ नहीं है। संभव है, इससे किसी का हित हो जाए, किसी को मनःशांति मिले, लेकिन किसी की हानि भी तो हो सकती है। इस दुविधापूर्ण दिशा में बढ़ने का क्या लाभ?'
मैं संकोच से गड़ा जा रहा था, शांत था; लेकिन चाहता था कि किसी तरह बात की दिशा बदल जाए। तभी बड़ा अच्छा हुआ कि श्रीमती प्रभाकर (पूजनीया चाचीजी) अपनी बहूजी के साथ चाय-नाश्ता लेकर आयीं। मैंने उनके चरण छुए और उनका आशीष पाकर धन्य हुआ। अब बात की दिशा स्वतः बदल गई थी। चाचीजी बहुत मृदुभाषिणी महिला थीं। उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे बहुत कुछ खिलाया और चाय पिलाई। जब चलने को हुआ तो बोलीं--'तुम मेस का भोजन करते हो न, कैसा खाना बनता है वहाँ?' मैंने कहा--'ठीक-ठाक, उदर-पूर्ति हो जाती है।'
मेरे उत्तर से उन्होंने जाने क्या अभिप्राय ग्रहण किया कि तत्काल मुझसे कहा--'तो ठीक है, आज रात का खाना तुम हमारे साथ ही कर रहे हो--घर का भोजन ! तुम्हें खाने में क्या पसंद है, मैं वही बनाऊँगी, बोलो !' उनकी सहज और अनन्य प्रीति से मैं अभिभूत हो उठा था। मैंने कहा--'आप जो भी बनाएंगी, मैं प्रसन्नता से खाऊँगा।'
उनकी ममतामयी मूर्ति देखकर और उनकी बातें सुनकर मुझे अपनी माँ की याद आ रही थी।
अमित भइया के यहाँ रात के भोजन के वक़्त भी अमित आनंद हुआ। उन दिनों प्रभाकरजी की पुस्तक 'आवारा मसीहा' बहुत चर्चा में थी। वहाँ से परम तृप्त और आप्यायित हुआ जब लौटने लगा तो मैंने उनसे अपने लिए 'आवारा मसीहा' की एक प्रति मांगी तो बोले--'यहां तो प्रतियाँ हैं नहीं, तुम जब दिल्ली आओगे, तो उसकी प्रति तुम्हें अवश्य दूँगा। '
दो दिनों में श्रद्धेय विष्णु प्रभाकरजी के दो बार दर्शन पाकर और उनके सान्निध्य से मन बहुत प्रसन्न हुआ था, लेकिन उनकी वर्जना के शब्द कानों में निरंतर गूँज रहे थे--'मनुष्य को अन्धकार की ओर नहीं, प्रकाश की दिशा में बढ़ना चाहिए और…परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...!' मेरे मन की विचित्र दशा थी, वह दुविधा में पड़ा था।....
(क्रमशः)

सोमवार, 16 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१९)

[बाद मुद्दत के वह पुरानी रात लौटी ... ]

दफ़्तर में दूसरा दिन धूसर-सा बीता। अनिद्रा का प्रभाव तो था ही, पिछली रात की बातों का अवसाद भी अंतरात्मा पर छाया था। उस बालक की आत्मा ने जो कुछ कहा/बताया था, उसका बहुलांश तो मेरे लिए भी अजाना था। शैलेन्द्र ने मुझसे सिर्फ घटना का उल्लेख किया था और अपनी त्रासद आंतरिक पीड़ा की बात बतायी थी। आत्मा ने तो पूरी घटना का सत्य सबके सामने उजागर कर दिया था, उसने अपने पुनर्जन्म की बात और शरीर छोड़ने के बाद कुछ बोलने की चेष्टा की बात कहकर मुझे भी आश्चर्य में डाल दिया था। शैलेन्द्र के घर के उस कमरे में इतना रुदन, इतनी बेकली न पसरी होती, तो पुनर्जन्म की बात को मैं और कुरेदता। इस सम्बन्ध में महत्त्व के कुछ और प्रश्न भी पूछता। लेकिन, वह अवसर हाथ से निकल गया था।
एक दिन और बीता। मैं अपेक्षाकृत तरोताज़ा होकर दफ़्तर पहुँचा था। एक-डेढ़ घंटा ही बीता था कि नीचे से मेरे नाम की पुकार हुई। मुझे स्वागत-कक्ष में पहुँचने को कहा गया। मैं यह सोचकर चिंतित हुआ कि कहीं वही बुज़ुर्ग सज्जन फिर तो नहीं आ गए! ख़ैर, आदेश था, तो नीचे जाना भी था। स्वागत-कक्ष में पहुंचा तो शैलेन्द्र को वहाँ प्रतीक्षारत देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। अभी परसों रात ही हम मिले थे, इतनी सारी बातें हुई थीं, फिर ऐसा क्या हुआ कि शैलेन्द्र ५ किलोमीटर चलकर जूही आ गये! मैं उनके पास पहुँचा तो वह बड़ी प्रसन्नता से मिले, हुलसकर मुझसे हाथ मिलाया और बोले--'परसों तो तुमने कमाल ही कर दिया। मैं बस यह कहने आया हूँ कि माता-पिताजी तुमसे मिलने को व्यग्र हैं। आज शाम ही आर्यनगर आओ न।'
शैलेन्द्र जल्दबाज़ी में थे, अपना आग्रह रखकर चले गए। उसी दिन शाम को आर्यनगर जाना संभव नहीं हुआ। संभवतः उसके बाद किसी दिन जब आर्यनगर गया तो शैलेन्द्र के माता-पिता से मिला। दोनों बुज़ुर्गों ने मुझसे बहुत सारी बातें कीं, अनेक प्रश्न पूछे, परा-जगत से संबंधित अपनी जिज्ञासाएँ शांत करने की चेष्टा की और अंततः मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया। उन दोनों के मन में मेरे प्रति इतनी अधिक कृतार्थता का भाव था, जितने की मेरी पात्रता नहीं थी; मैं उनकी बातों से शर्मसार हुआ जाता था। ठीक विदा होते वक़्त शैलेन्द्र की माँ ने मुझसे कहा--'बेटा, तुमने हम हम सबों का बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हें दे सकूँ; बस तुम्हें आशीष देती हूँ, खुश रहो !' यह कहकर उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा।
मैंने कहा--'बस, वही चाहिए माताजी!' विदा का वह क्षण आज भी यथावत आँखों में अंकित है! उनसे दूर होते हुए मैंने पलटकर देखा था, वह आँचल से अपनी आँखें पोंछ रही थीं। मैं सोच रहा था, मनुष्य मोह-ममता की कितनी मजबूत डोर से बँधा रहता है! काल का अनंत प्रवाह पीड़ा की तीव्रता को कम कर सकता है, लेकिन मोह के बंधन ढीले नहीं कर पाता।...
फिर पूरे अड़तीस साल गुज़र गए। ज़िन्दगी टेढ़ी-तिरछी राहों से निकलती, जाने कहाँ की कहाँ आ गयी। कितने तीखे मोड़ों, संकरे रास्तों, सर्पिल राहों, शूल-काँटों भरे रपटों से बढ़ती ज़िन्दगी युवावस्था का लिबास उतार आई थी और उसने पहन लिया था अधेड़ावस्था का मटमैला सर्वोदयी कुरता-पायजामा। अड़तीस साल--एक समूची ज़िन्दगी का तकरीबन आधा हिस्सा ! काली दाढ़ी, काले केश अब श्वेतवर्णी हो गए थे और मैं एक बार फिर कानपुर की धरती पर था--पिछले वर्ष (२०१४) अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में ! ऐसा नहीं कि इन अड़तीस वर्षों में कभी कानपुर जाना ही न हुआ हो, पटना से अपनी ससुराल जाते हुए बीच का पड़ाव कानपुर ही होता था और बाद के दिनों में कानपुर में एक रिश्तेदारी भी हो गई थी, लेकिन जब गया, एक मुसलसल दौड़ में रहा। यह पहला मौका था कि दो दिनों का खाली वक़्त हाथ में था, जब मुझे अपनी गृहस्वामिनी के अस्वस्थ और वृद्ध माता-पिता को अपने साथ पूना लिवा लाना था। वे मेरे साढ़ू भाई (सुनील कुमार तिवारी) के हर्षनगर स्थित आवास पर ठहरे हुए थे, जो आर्यनगर से महज़ एक-डेढ़ किलोमीटर के फ़ासले पर था।
एक दिन सुबह दस बजे पुरानी यादें ताज़ा करने मैं आर्यनगर की सैर पर अकेला निकला। रिक्शे से उतर कर मैं उसी तिराहे पर घूमता रहा, जहां वर्षों पहले मटरगश्तियां कर गुज़रा था। परिवर्तन की आंधी ने वहाँ बहुत कुछ नहीं बदला था। तिराहे से शाही की गली तक गया और उन लंबवत सीढ़ियों को देख आया, जो शाही के बड़े पापा के घर ले जाती थी। जानता था, अब वहाँ कोई नहीं है। शाही स्वदेशी के लखनऊ ऑफिस में स्थानांतरित हो गए थे। उनकी सुदर्शना बड़ी माँ का निधन हो चुका था। शेष सारा परिवार लखनऊ जा बसा था। उस जानी-पहचानी गली से निकला तो मन में एक हूक उठी। शाही तो दूरभाषिक संपर्क में रहे, लिहाज़ा उनके बारे में ताज़ा जानकारियाँ मुझे थीं, लेकिन अन्य मित्रों से कोई सम्पर्क नहीं रह गया था। मैं नहीं जानता था कि वे सब मित्र कहाँ, किस हाल में हैं।
स्मृतियों का हाल यह था कि शैलेन्द्र का नाम भी पूरी तरह विस्मृत हो चुका था। स्मृति पर बहुत जोर डालने पर कई नाम मस्तिष्क में उभरते, लेकिन मन किसी एक नाम पर स्थिर नहीं होता। तिराहे का तीनों कोना आज भी वैसा ही था। बस, दुमंज़िले-तिमंज़िले मकानों के नीचे नयी दुकानें बन गयी थीं। शैलेन्द्र के मकान को चिन्हित कर लेने में मुझे विभ्रम नहीं हुआ। मैं ठीक उस दुमंजिले मकान के नीचे खड़ा था, मन उत्कंठा से भरा था। इच्छा हो रही थी, नीचे बनी मिठाई की एक दूकान से शैलेन्द्र के बारे में पूछूँ; लेकिन ठिठका हुआ था कि क्या-कैसे पूछूँ ! भले आदमी का नाम तो विस्मृति के धुंधलके में जा छुपा था। मैं वहीँ खड़ा अभी सोच ही रहा था कि दुकानदार की आवाज़ कानों में पड़ी--'कहिये, क्या चाहिए आपको?'
मैं जैसे तन्द्रा से जागा। मैंने कहा--'भाई, मैं दुविधा में हूँ। ३५-३८ साल पहले इसी मकान के ऊपरी माले पर मेरे एक मित्र रहते थे, मैं इस भवन को तो ठीक-ठीक पहचान रहा हूँ, लेकिन उन मित्र का नाम ही भूल गया हूँ। अब ऊपर कौन रहते हैं?'
मेरी बात सुनकर दुकानदार बंधु ने तत्काल कहा--'ऊपर तो शैलेन्द्र दीक्षित रहते हैं, लेकिन अभी तो वह काम पर गए होंगे।'
'शैलेन्द्र दीक्षित' नाम सुनते ही मेरे दिमाग़ की बत्तियां जल उठीं। मैंने कहा--'हाँ, हाँ, वह शैलेन्द्र दीक्षित ही हैं। वह कब मिलेंगे ?'
'शाम पांच-छह बजे तक आ जाते हैं। आप शाम के वक़्त आएं, तो उनसे मिलना हो जाएगा।'
मैंने हामी भरी और नमस्कार करके चलने को हुआ तो दुकानदार भाई ने कहा--'ज़रा ठहरिये। शायद शैलेन्द्रजी के बेटे हों घर पर, मैं पुछवा लेता हूँ।'
उन्होंने अपनी दूकान के एक बच्चे को ऊपरी माले पर भेजा। थोड़ी ही देर में वह बालक लौट आया और बोला--'भइया बोले कि आ रहे हैं।'
पाँच मिनट बाद ही गठीली देह-यष्टि के एक सुदर्शन युवा सीढ़ियों से नीचे उतरे और मेरे समीप पहुंचकर बोले--'कहिये, क्या मुझसे मिलना है ?' मैं कुछ कहूँ, उसके पहले ही दुकानदार मित्र उनसे बोले-- 'अरे, ये तुम्हारे पिताजी के पुराने दोस्त हैं, बहुत सालों बाद पूना से आये हैं और उनसे मिलना चाहते हैं। तुम इनकी पापा से बात करवा दो।'
यह जानकार कि मैं शैलेन्द्र का मित्र हूँ, युवक ने मुझे नमस्ते की और मोबाइल से अपने पिताजी से संपर्क साधा, बात की, फिर मेरा ज़िक्र करके सेल मुझे पकड़ा दिया। मैंने पूछा--'तुम वही शैलेन्द्र दीक्षित हो न? मैं ओझा हूँ, पहचाना मुझे ?'
यह सुनते ही शैलेन्द्र तड़पकर बोले--'कौन? स्वदेशीवाले हर्षवर्धन ओझा?'
मैंने कहा--'हर्षवर्धन नहीं, आनंदवर्धन ओझा!'
बोले--'हाँ, वही, ओझा न ?'
मेरी स्वीकृति पाते ही वह हर्ष-विह्वल, मुग्ध-विस्मित, शत-मुख हो उठे। कहने लगे--'कहाँ छुप गए थे तुम कठोर? इतने वर्षों बाद याद आई है मेरी ? ऊपर घर में जाओ बेटे के साथ, कुछ खाओ, चाय पियो और शाम में मिलो।'
मैंने कहा--'सुबह का जलपान हो चुका है, अभी चाय की इच्छा भी नहीं और कल सुबह की ट्रेन से पूना लौट जाना है। बहुत-सी पैकिंग भी करनी है, मौका मिला तो तुमसे मिलकर जाना चाहूँगा।'
शैलेन्द्र ने कहा--'तुम्हें कसम है, बिना मिले मत चले जाना। बहुत-सी बातें करनी हैं तुमसे।शाम में मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।'
मैंने सेल उनके सुपुत्र को लौटा दिया। सुपुत्र भी संस्कारवान युवा लगे, चलते वक़्त उन्होंने मेरे पाँव छुए। रिक्शे पर बैठकर हर्ष नगर को चला तो मन प्रफुल्लित था और आश्चर्यचकित भी कि शैलेन्द्र की स्मृति में इतने वर्षों बाद आज भी कहीं छिपा बैठा था मैं।...
शाम सात के बाद शैलेन्द्र के एक-के-बाद एक फ़ोन आने लगे। वह मिलने को बेचैन थे और व्यग्रता से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने सामान की अव्यवस्था को सहेजने का जिम्मा श्रीमतीजी को सौंपा और रिक्शे पर जा बैठा। पंद्रह-बीस मिनट की रिक्शा-यात्रा में भी शैलेन्द्र मेरे सेल की घंटी लगातार बजाते रहे। उनके घर के नीचे रिक्शा रुका, तो ऊपर की खिड़की से झांकते शैलेन्द्र दिखे, मुझे आवाज़ लगाते हुए।
सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो वह प्रवेशद्वार पर खड़े मिले। पास पहुंचते ही उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया। वह अपनी भावुकता पर अंकुश नहीं रख सके और विलाप करने लगे। उनके आँसुओं में अड़तीस वर्षों का संचित संताप था। उन्होंने मुझे उसी कमरे में बिठाया, जिसमें मैंने कभी उनके दिवंगत अनुज को बुलाया था और बातें की थीं। अब उनके परिवार में सिर्फ तीन प्राणी थे--शैलेन्द्र स्वयं, उनकी पत्नी और सुपुत्र। माता-पिता दिवंगत हो चुके थे। वह मुझे अंदर ले गए--माता-पिता के चित्रों के सम्मुख, जिनपर मालाएं चढ़ी थीं। मैंने हाथ जोड़कर अपनी श्रद्धा निवेदित की। विह्वल स्वर में शैलेन्द्र बोले--'देखो माँ, ओझा आ गया है। तुम्हें शिकायत रहती थी न उससे... स्वयं देख लो, यह भूला नहीं है हमें।'
शैलेन्द्र कातर हुए जा रहे थे। मैं उन्हें बलात वहाँ से खींच लाया। फिर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आधी रात के बाद तक चलता रहा। हम दोनों अब साठोत्तर जीवन जी रहे थे, दोनों के पास अपने-अपने अनुभव के कोश थे और सिर्फ एक रात में उनका आदान-प्रदान संभव नहीं था। उन्होंने विगत वर्षों का इति-वृत्त सुनाया और कहा--'तुम नहीं जानते आनंद, मेरे परिवार में और जीवन में तुम कितना बड़ा परिवर्तन करके चले गए थे। माँ शेष जीवन में जब भी छोटे भाई की याद करतीं, तुम्हारी चर्चा करना नहीं भूलतीं। सच कहूँ तो मुझसे बहुत ज्यादा उन्होंने तुम्हें याद किया था। तुम्हारे आते ही मैं तुम्हें उनके चित्र के पास इसीलिए ले गया था।'
मैं जानता था, शैलेन्द्र मातृ-भक्त बालक थे, लेकिन जीवन में घटी एक अकल्पनीय दुर्घटना ने उन्हें माता-पिता का कोपभाजन बना दिया था और वह सबों से दूर होते चले गए थे। शैलेन्द्र ने इसी मुलाकात में मुझे बताया था कि उस एक रात की परलोकचर्चा ने उनके भावी जीवन में किस तरह स्थितियों को परिवर्तित कर दिया था। ऐसा परिवर्तन जो विश्वसनीय नहीं है, लेकिन है सच। कालान्तर में शैलेन्द्र माता-पिता दोनों के सर्वाधिक प्रिय पुत्र बने थे और उन्होंने दोनों की भरपूर सेवा की थी। उन्होंने मुझसे कहा था--'जाते-जाते छोटे भाई की आत्मा ने मुझसे जो कहा था, उसे मैं कभी भूल नहीं सका।' बात करते-करते वह बार-बार रो पड़ते थे और इस व्यापक परिवर्तन का श्रेय मुझे दे रहे थे, जबकि सच तो यह था कि मैंने जो कुछ किया, जो कुछ मेरे प्रयत्न से उस रात हो गया, वह सिर्फ उमंग-उत्साह में किया गया एक सामान्य प्रयोग ही था। हाँ, उसमें मित्र की हित-कामना भी कहीं समाहित अवश्य थी।...
शैलेन्द्र की पत्नी और पुत्र, जो मुझे (और जिन्हें मैं) पहली बार देख रहे थे, चकित थे। सोच रहे थे, ये कौन-से, कब के मित्र आ मिले हैं, जिनसे चल रही वार्ता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। आधी रात के बाद ही शैलेन्द्र के सुपुत्र मुझे अपनी मोटर साइकिल से गंतव्य पर छोड़ आये। शैलेन्द्र के घर से लौटते हुए मुझे लगा था, अरसे बाद वही अड़तीस साल पुरानी रात फिर लौट आई है।
सुबह-सुबह यात्रा पर निकलना था। शैलेन्द्र के घर से लौटकर नींद नहीं आ रही थी। मैं शय्या पर लेटा-लेटा सोचा रहा था कि युवावस्था की तरंग में की हुई मेरी परलोक-चर्चाओं से यदि एकमात्र शैलेन्द्र के जीवन में सुख-शांति लौट आई थी तो मेरा वर्षों का प्रयत्न निष्फल नहीं गया था।.…
(क्रमशः)
[चित्र : मेरी छवि, पटना-२०१५, मित्रवर कुमार दिनेश की मंजूषा से साभार
]

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१८)

[जब मूर्तिमान अवसाद आँसुओं से धुल गया था ... ]

२०-२५ दिनों से प्लैन्चेट का बोर्ड उदास पड़ा था। मैं भी शाही की इच्छा-पूर्ति में चाहे-अनचाहे उनका साथ दे रहा था। लेकिन कई बार मन बेचैन हो उठता था, लगता था एक समूची दुनिया के व्यग्र लोग मेरी प्रतीक्षा में होंगे और मैं अपने द्वार बंद किये बैठा हूँ। ख़ास तौर से चालीस दुकानवाली की फिक्र मुझे हलकान करती। मैं जानता था, वह मुझसे बहुत नाख़ुश होगी और बोर्ड के बिछते ही आ धमकेगी और खूब झगड़ेगी। कभी-कभी रात में सोते हुए अचानक पूरे शरीर में सिहरन होती, कभी लगता कोई मुझे झकझोर कर जगा रहा है। इन विचित्र अनुभवों के बाद भी मैंने मन को बांधे रखा था, लेकिन अब तो उठ खड़े होने का समय आ गया था। अगले रविवार के पहले ही शाही को मुझे अपने प्रभाव और विश्वास में लेना था। यह बहुत मुश्किल तो नहीं था, लेकिन चाहता था, शाही साथ हों और उनकी सहमति भी; क्योंकि शैलेन्द्र के मित्र तो वही थे।
एक शाम मैंने बात उनके सामने पसारी, लेकिन उसे आवरण में भी रखना था और यही कठिनाई थी। रविवार की शाम के लिए अंततः मैंने उन्हें मना ही लिया, बिना विस्तृत विवरण दिए। वह महज़ इतना ही जान सके कि शैलेन्द्र की किसी समस्या के समाधान के लिए मुझे वहाँ प्लैन्चेट करना है। उन्होंने इतना भर कहा--'देखो, पूरी रात का इंतज़ाम मत कर देना। ११ बजे शुरू करना और घंटे-भर में उसका काम निबटा देना, ताकि रात में सोने का वक़्त मिले। कल दफ़्तर भी तो है।' मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि ऐसा ही करूँगा।
दो दिन बाद रविवार भी आ पहुंचा। मैंने अपना झोला तैयार किया और शाही के साथ आर्यनगर पहुंचा। शैलेन्द्र व्यग्रता से प्रतीक्षा करते मिले। मिलते ही उत्साह से बोले--'तुम तैयारी से आये हो न?' मेरे हामी भरते ही बोले--'मैंने भी घरवालों को राज़ी कर लिया है किसी तरह, लेकिन पिताजी का पता नहीं कि वह इसे स्वीकार करेंगे या नहीं! हाँ, छोटे भाई का एक पासपोर्ट साइज का चित्र भी खोज निकाला है मैंने!'
मैंने कहा--'ठीक है, मेरा झोला ले जाओ और अपने घर में सुरक्षित रख दो। अभी वक़्त है, उचित समय पर चलेंगे तुम्हारे घर!'
मेरा झोला लेकर शैलेन्द्र अपने घर गए। आर्यनगर के मुख्य मार्ग पर तिराहे के एक कोनेवाले दुमंजिले मकान के ऊपरी तल पर उनका आवास था। वह शीघ्र ही झोला रखकर लौट आये। शैलेन्द्र के पिताजी अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे, अतः थोड़े कठोर भी प्रतीत होते थे। माता तो सबकी माता-जैसी ही थीं--सरल और स्नेही; लेकिन जीवन में मिले कठोर आघात से उन्होंने भी अप्रसन्नता की एक चादर ओढ़ रखी थी और उनकी अप्रसन्नता अपने ही ज्येष्ठ पुत्र से थी, जो स्पष्ट दृष्टिगोचर होती थी।
बहरहाल, रात ११ बजे तक बाजार-भ्रमण के बाद हम (मैं और शाही) शैलेन्द्र के घर की सीढ़ियों पर चढ़े। ड्राइंग रूम के सोफे किनारे खिसका दिए गए थे और मध्य में जो स्थान निकल आया था, उसमें दरी और कालीन बिछा दी गई थी। अगरबत्तियाँ वहाँ पहले से ही जल रही थीं। कक्ष को देखने से ही पता चलता था कि शैलेन्द्र ने इस अनुष्ठान के लिए परिश्रमपूर्वक सारी व्यवस्था की है। मैं घर के वाश-रूम में गया, अपने हाथ-पैर धोकर मुंह पर पानी के छींटे मारे और सिल्क की अपनी धोती बाँधकर बाहर आया। घर के कई लोग वहाँ उपस्थित थे, जिसमें शैलेन्द्र की माताजी भी थीं, हाँ पिताजी वहाँ नहीं दिखे। इतने लोगों की उपस्थिति में आत्मा के आह्वान का यह पहला मौका था। संभवतः इसी कारणवश थोड़ी घबराहट भी थी। खैर, बोर्ड को मध्य में स्थापित कर मैंने कुछ धूप-बत्तियाँ जलाईं और शैलेन्द्र के अनुज के छोटे-से चित्र पर ध्यान केंद्रित करने लगा, जैसे ही तादात्म्य स्थापित हुआ, मैंने गहरे ध्यान में जाने की चेष्टा की; लेकिन पता नहीं, वहाँ क्या व्यवधान था कि मेरे ध्यान की लय प्रगाढ़ नहीं हो पा रही थी। लगातार आधे घंटे तक किया हुआ प्रयास निष्फल हुआ जाता था और अंततः मैंने हथियार डाल दिए। इससे भला मुझे तो क्या निराशा होनी थी, लेकिन मैंने देखा वहाँ एकत्रित परिवार-जनों को घोर निराशा हुई। ऐसी ही निराशा के लक्षण मैंने शैलेन्द्र के चेहरे पर भी देखे। लेकिन आत्मा को बुलाने की ज़िद पर अड़े रहने से कोई लाभ नहीं था। मैं यह कहते हुए बोर्ड से उठ खड़ा हुआ कि 'रात बारह के बाद एक बार फिर प्रयास करूँगा।'
मैंने फिर अपने वस्त्र बदले और दोनों मित्रों के साथ सीढ़ियाँ उतर आया। बाजार बंद हो चुका था, लेकिन पान-सिगरेट की दूकान अभी खुली थी। हम तीनों ने एक-एक सिगरेट सुलगाई और बातें करते भीड़-विहीन होती सड़क पर बढ़ चले। शैलेन्द्र की आतुर जिज्ञासा का अंत नहीं था और मैं उन्हें धैर्य धारण करने की सलाह दे रहा था। साढ़े बारह बजते ही हम वापस लौटे और थोड़ी देर में ही शैलेन्द्र के कक्ष में पहुँच गए। फिर वही क्रिया, वही वस्त्राचार हुआ और मैं बोर्ड पर आ बैठा। धूपबत्तियाँ फिर जलाईं और शिद्दत से भरी एक पुकार के लिए स्वयं को अनुशासित करने को तत्पर हुआ कि खिड़कियों पर दृष्टि गई, वे सब बंद थीं, सिर्फ सीढ़ियों से नीचे ले जानेवाला द्वार खुला था। मैंने शैलेन्द्र से सारी खिड़कियाँ खोल देने को कहा। पहले प्रयत्न के वक़्त जितने लोग उपस्थित थे, उनमें से कई लोग अब वहाँ नहीं थे।
रात गुमसुम हो गई थी, सर्वत्र नीरव शान्ति थी, माहौल बन चुका था। ध्यानस्थ होकर मैंने पुकार भेजी। मेरी पहली पुकार पर ही छोटे भाई की आत्मा आ पहुँची। उसने मुझे कुछ पूछने का अवसर भी नहीं दिया, शैलेन्द्र को सम्बोधित करते हुए स्वयं बोल पड़ी--'दादा, देखिये मैं आ गया हूँ !'
बोर्ड पर आया यह उत्तर जैसे ही कागज़ पर उतरा, उपस्थित सारे लोग चौकन्ने हो गए। उसके बाद तो बातों का जो सिलसिला चल पड़ा, वह रुकने का नाम न लेता था। बोर्ड पर मैं, शाही और शैलेन्द्र बैठे थे और किनारे के सोफों पर घर के कुछ लोग। मैंने छोटे भाई की आत्मा से पूछा--'तुम्हारी मृत्यु का कारण क्या था?'
आत्मा ने कहा--'मेरे सिर में असहनीय पीड़ा थी और गले में सिर को सम्हाले रखने की शक्ति नहीं रह गई थी। मैं इन स्थितियों से उबर नहीं पा रहा था और मेरी चेतना लुप्त होती जा रही थी। अस्पताल जाते हुए मार्ग में ही मैं मृत्यु का ग्रास बन गया था।'
मैंने पूछा--'तुम तो छत पर पतंग उड़ाने गए थे न?'
आत्मा ने हामी भरी, तो मैंने पूछा--'वह तो शाम का वक़्त था?'
आत्मा ने उत्तर दिया--हाँ, लेकिन अँधेरा तब तक हुआ नहीं था, बहुत उजाला था, वह ४-५ के बीच का वक़्त रहा होगा।'
मैंने आत्मा से निवेदन किया--'उस शाम की पूरी बात विस्तार से बताओ, हम सभी सुनना चाहते हैं।'
बातें अभी हो ही रही थीं कि मैंने देखा, शैलेन्द्र के पिताजी बैठक में आये और सोफ़े के एक कोने पर चुपचाप बैठ गए। घर का कोई सदस्य उन्हें बिस्तर से उठा लाया था।
आत्मा ने अपनी बात जारी रखी--'छत के एक छोर पर दादा और दूसरे छोर पर मैं अपनी पतंगें उड़ा रहे थे। खूब मज़ा आ रहा था। तभी मैंने देखा, एक कटी पतंग की डोर हमारी छत से थोड़ी ऊँचाई पर हवा में तैरती जा रही थी। डोर को पकड़ लेने के लिए मैं छत की मुंडेर पर चढ़ गया। दादा एक पतंग से पेंच लड़ा रहे थे। उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं था। मुंडेर पर चढ़ने के बाद भी उस पतंग की डोर मेरी पहुँच से बस थोड़ी ही ऊपर थी। मैं उसे थाम लेने के लिए जैसे ही उचका, मेरा पैर लड़खड़ा गया था और मैं नीचे गिर पड़ा था।'
इतना कहकर आत्मा खामोश हो गई थी और मैंने अगला प्रश्न किया था--'लेकिन घर-भर के लोग तो यही समझते हैं कि शैलेन्द्र और तुम्हारे बीच डोर पकड़ने की होड़ मची होगी और इस धक्का-मुक्की में तुम नीचे जा गिरे होगे। सत्य क्या है, हमें बताओ।'
आत्मा जैसे बाद के वर्षों का सूक्ष्मता से अवलोकन करती रही हो और सारी स्थितियाँ उसे ज्ञात हों, वह तत्क्षण बोली--'यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मेरी मौत के लिए दादा को दोषी ठहराया जाता रहा है। मुंडेर पर मुझे लड़खड़ाता देख दादा अपना माँझा फेंककर दौड़े आये थे, उन्होंने मुझे थाम लेने के लिए अपना हाथ भी बढ़ाया था, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।'
मैं तो इस क्रिया-विधि में एकाग्रता से लगा हुआ था, मेरा ध्यान वहाँ उपस्थित लोगों पर नहीं गया था। अचानक मैंने रुँधी हुई आवाज़ में शैलेन्द्र की सिसकियाँ सुनीं, तो आखें उठकर देखा--कक्ष में जितने लोग थे, सभी रो रहे थे। शैलेन्द्र की माताजी आँचल से बार-बार अपनी आँखें पोंछ रही थीं। वहाँ अवसाद मूर्तिमान था। मैंने वर्जना दी--'आपलोग इस तरह विलाप मत कीजिये, इससे आत्मा को कष्ट होगा। आपलोग अपने मन को शांत-स्थिर कीजिये।'
अचानक मेरा गिलास बोर्ड पर स्वतः चल पड़ा और आत्मा ने अपनी माता को सम्बोधित करते हुए कहा--'माँ, आप दुःख मत कीजिये। आपके पास बस उतने ही दिन मुझे रहना था। मेरा पुनर्जन्म भी हो चुका है और मैं वहाँ खुश हूँ। मेरी मृत्यु के लिए दादा को दोष मत दीजिये। मेरे चले जाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है।'
यह सुनकर तो कमरे में रुदन और विलाप का फव्वारा फूट पड़ा, जिसे सँभालना मेरे लिए कठिन था। मैंने शैलेन्द्र से कहा, 'सबों को चुप कराओ भाई। आत्मा के लिए यह स्थिति बहुत पीड़ादायी है!' शैलेन्द्र सबों को चुप हो जाने को कह रहे थे और स्वयं रोते जा रहे थे। एक अजीब स्थिति वहाँ उत्पन्न हो गई थी। मैंने बात को जारी रखना ही उचित समझा। मैंने उस बालक की आत्मा से पूछा--'छत से गिर जाने के बाद तुमको कैसे और किस अस्पताल ले जाया गया था ?'
आत्मा बोली--'मुझे एक रिक्शे पर लेकर लोग भागे थे। मुझे अमुक अस्पताल (नाम अब विस्मृत हो गया है) ले जाया गया था, लेकिन बीच रास्ते में ही मैं शरीर छोड़कर बाहर आ गया था। मैंने देखा, दादा बदहवास-से रिक्शे के पीछे दौड़ते आ रहे हैं। मेरे मन में हुआ कि उनसे कहूँ कि अब दौड़ना बेकार है, मुझे घर वापस ले चलो। मैं पूरी शक्ति से चिल्लाया भी; लेकिन मेरे शब्द हवा में घुल गए, स्वर गूँजे नहीं।… '
आत्मा का यह वक्तव्य पूरे परिवार को दुखी और आर्त्त बना गया था। रुदन एकबार फिर फूट पड़ा था। शैलेन्द्र के पिताजी आँखें पोंछते हुए उठ खड़े हुए और धीरे-धीरे अंदर चले गए। मैंने भी आत्मा को अब विदा कर देना ही उचित समझा और उससे पूछा--'क्या तुम लौट जाना चाहोगे अब?' आत्मा ने कहा--हाँ, लेकिन जाने के पहले मुझे दादा से यह कहना है कि वह मेरे लिए दुखी न रहा करें और न माँ-पिताजी से नाराज़। अब वही हैं उनका ख़याल रखने को। बस, यही इतना...।'
यह कहकर ग्लास बोर्ड के मध्य में जा ठहरा। मैंने आत्मा को वापस भेज दिया और इसे सुनिश्चित करके ग्लास को सीधा करके बोर्ड पर रखा और उठ खड़ा हुआ।
मुझे आश्चर्य हुआ, कोई किसी से कुछ नहीं बोला, सब मौन, सब अवसाद से आकंठ भरे हुए--गुमसुम! और सबकी आँखें नम... !
शाही ने कहा--'बहुत रात हो गई है और कल के ऑफिस के कारण जूही लौटना भी है। चलो, अब चलें।' मैंने अपना ताम-झाम शीघ्रता से समेटा और नीचे खड़ी साइकिल के पास पहुंचे।शैलेन्द्र हमें छोड़ने नीचे तक आये थे। उन्होंने हम दोनों को अपनी दो बाहों में समेट लिया था और फूट-फूटकर पड़े थे।.... उस रात घनीभूत अवसाद को आँसुओं ने धो दिया था।...
(क्रमशः)

बुधवार, 11 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१७)

[रहीं सालती मन की गाँठें... ]

कानपुर लौटकर जीवन सामन्य गति से चल पड़ा था। बैचलर क्वार्टर की गतिविधि भी सामान्य थी, किन्तु असामान्य कुछ प्रतीत होता था, तो वह था लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी का व्यवहार। जब से लौटा था, मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह मुझसे ही बचकर निकलने लगे थे। अब तक तो मैं ही उनसे कन्नी काट जाता था, अब वह काटने लगे थे। यह मुझे विचित्र-सा लगता। वह मुझसे बचकर निकल जाते, सम्यक् दूरी बनाकर रहते, बातें करते तो जल्दी-से-जल्दी खिसक जाने की फ़िराक़ में रहते। मुझे आश्चर्य हुआ तो एक दिन मैंने शाही से पूछा--'देखता हूँ कि ओज़ाजी आजकल मेरा कुछ ज्यादा ही लिहाज़ करने लगे हैं; समझ में नहीं आता कि ऐसा परिवर्तन उनके आचरण में क्यों आया ?' शाही ने मुस्कुराकर कहा--'तुम जब दिल्ली में थे, उन दिनों तुम्हारे भूत-प्रेत के खूब चर्चे हुए थे। तभी से ये दानव डरा हुआ रहता है। वह तो हमारे कमरे से भी दूर-दूर रहता है भाई।' हम दोनों ने ज़ोरदार ठहाका लगाया। हँसी थमी तो मैंने शाही से कहा--'चलो, मेरी प्रेत-चर्चा से इतना लाभ तो हुआ।'....

१९७६ की शरीर-सौष्ठव की प्रतियोगिता में शाही ने सभी प्रतियोगियों को परास्त करके 'मिस्टर स्वदेशी' की उपाधि प्राप्त की थी। परास्त होनेवालों में लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी भी थे, जो हर साल यह तगमा अपने गले में धारण कर गौरव-स्फीत रहते थे। इस पराजय से वह गहरी निराशा में डूब गए थे। वो कहा है न--'सब दिन होत न एक समाना.... !' अब उन्हें मुझसे भयभीत भी रहना था और अपनी पराजय से दुखी भी। लेकिन शाही बड़े दिलवाले थे, उन्होंने लक्ष्मीनारायणजी को जल्द ही सांत्वना-पुरस्कार दिया। उन्होंने लॉबिंग करके उन्हें मेस का प्रबंधक नियुक्त करवा दिया, जिसमें मैंने भी पूरा सहयोग किया था। इसके बाद तो वह अपनी टोली के साथ हम दोनों से भी मित्रवत जुड़ गए, लेकिन एक बात अटल रही कि उन्हें मुझसे बचकर रहना है।

एक और नवीनता देख रहा था। अब शाही हर शाम कहीं बाहर का कार्यक्रम बनाने लगे थे--ज्यादातर आर्य नगर का। वहाँ उनके कुछ पुराने मित्र भी थे। शाम के वक़्त मैं और शाही अपनी-अपनी साइकिल से आर्य नगर चले जाते, वहीं मित्रों के साथ मटरगश्तियाँ करते, चाय पीते, धुँए उड़ाते और देर रात क्वार्टर लौट आते। कई बार हम सीधे शाही के बड़े पापा (जिन्हें सभी 'दादा' कहते थे) के घर पहुँचते और वहीं शाम की चाय पीते। दादा गंभीर, शांत और पुस्तक-प्रेमी थे। हमेशा किसी पुस्तक में डूबे मिलते। शाही की बड़ी माँ नेपाल के राजघराने से किसी रूप में सम्बद्ध थीं--अनिंद्य सुंदरी! जीवन के चौथेपन में भी उनके चहरे पर गजब का तेज था, विचित्र आकर्षण था! वृद्धावस्था में वैसी सुंदरता मैंने कम ही देखी है। वह बहुत मीठा बोलतीं और न जाने क्यों मुझे बहुत मानतीं, खूब बातें करतीं। शाही की छोटी बहन (ममता) मुझे भी बड़े भाई का मान देती। वहाँ पहुँचकर मुझे लगता, मैं भी उसी घर का एक सदस्य हूँ।

ममता बहुत सुन्दर आयल पेंटिंग करती थी। एक बार उसने यक्षिणी की एक सुदर्शन कलाकृति मुझे भेंट-स्वरूप दी थी। वह आकार में मेरे प्लैनेचेट बोर्ड से छोटी थी और मेरे कंधे के झोले में समा जाती थी। उसका भी पृष्ठभाग बहुत चिकना था। कालान्तर में मैंने उस कलाकृति के पृष्ठभाग को भी प्लैनेचेट बोर्ड-सा बना लिया था। परा-संपर्क के लिए कहीं बाहर जाना होता तो वही बोर्ड साथ ले जाता। वह बोर्ड मेरे पास बहुत लम्बे समय तक रहा, लगभग २५-२८ वर्षों तक--ड्राइंग रूम से सजा हुआ और ममता की याद दिलाता हुआ। लेकिन वह तो बहुत बाद की कथा है।

कुछ दिनों बाद मुझे यह ज्ञान हुआ कि संध्या-समय शाही के क्वार्टर से दूर रहने की एक वज़ह यह थी कि वह इरादतन मुझे परा-जगत-प्रवेश से विरत रखना चाहते थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि वह जहाँ मुझे ले जाते हैं, वहीं मुझे नए सूत्र मिल जायेंगे एक नव्य प्रयोग के।

आर्यनगर के तिराहे पर शाही के अधिक नहीं, तो तीन-चार मित्र तो थे ही। जब भी वह मेरे साथ वहाँ जाते, उनकी मित्र-मण्डली आ जुटती और आर्यनगर के एक छोर से दूसरे छोर तक हम निरुद्देश्य भटकते, गप करते, हँसते-हँसाते। कभी कहीं एक गोला बनाकर बैठ जाते और मैं अपने उन असाहित्यिक मित्रों को बलात् अपनी कविताएँ सुनाता। शाही चिकोटी काटते--'अब यह अपनी चिरकुट कविताएँ सुनाएगा।' कभी किसी ढाबे पर, किसी चायघर में, कॉफ़ी हाउस में हमारी टोली विराजती और चार कप चाय में एक-डेढ़ घण्टे तक वहाँ की कुर्सियां खाली न होतीं। उस उम्र के युवाओं में ये सनक जाने क्यों होती है! आज उन मटरगश्तियों की बात सोचता हूँ तो वह निरुद्देश्य सड़कें नापना और वह अर्थहीन टहल बकवास लगती है--समय का अपव्यय। लेकिन उन दिनों उसी में बड़ा आनन्द आता था।

हमारी आर्यनगर वाली टोली में एक मित्र थे शैलेन्द्र कौशिक (छद्म नाम), वह ज़्यादातर ग़मगीन बने रहते। जिन बातों पर पूरी मण्डली ठहाके लगाती, उस पर भी फीकी हँसी हँसते और अधिकतर चुपचाप रहते। उनकी गंभीरता और चुप्पी मुझे अखरती। मैं सोचता, यह भला आदमी इस तरह अनमना क्यों रहता है? मित्रों के बीच ही मैंने उनसे कई बार इसका सबब पूछा भी था, लेकिन वह कोई टालू उत्तर देकर चुप हो जाते। वह शाही या ईश्वर-जैसे मेरे घनिष्ठ मित्र तो थे नहीं कि साधिकार उन पर दबाव डालकर कुछ पूछता, लिहाज़ा मैं भी चुप्पी लगा जाता।

जब तक मैं दिल्ली-प्रवास से लौटकर आया, तब तक शाही पिछले घटना-क्रम की चर्चा इन मित्रों के बीच कर चुके थे। मैंने शाही से ही सुना था कि इस कथा में अत्यधिक रुचि अत्यल्पभाषी शैलेन्द्र ने ली थी और जिज्ञासा करके सारी बातें पूछी-सुनी थीं। शाही से यह जानकार मुझे थोड़ा आश्चर्य भी हुआ था।

दिल्ली से आये मुझे २०-२२ दिन हो चुके थे। एक दिन आर्यनगर पहुंचकर शाही मुझे तिराहे पर रुकने को कहकर दोनों साइकिलें रखने बड़े पापा के घर गए। तिराहे की एक राह पर थोड़ा अंदर जाकर उनका घर था। तिराहे पर मैं खड़ा था कि शैलेन्द्र मिल गए। उनसे मेरी बातें होने लगीं ।
मैंने उनसे कहा--'सुना कि तुमने 'मिल गेट वाले प्रसंग' में बहुत रूचि ली।'
वह बोले--'हाँ, मुझे तो बहुत आश्चर्यजनक लगा। क्या सचमुच ऐसा हुआ था या शाही उसे बढ़ा-चढ़ाकर सुना रहा था?'
मैंने कथा की सच्चाई के पक्ष में अपनी बात रखी। उन्हें जैसे विश्वास नहीं हो रहा था। वह कुछ कह ही रहे थे कि शाही आ पहुंचे। हम तीनों में यही चर्चा होती रही। अचानक शैलेन्द्र ने पूछा--'क्या प्लैनेचेट से मेरी किसी समस्या का भी समाधान हो सकता है?'
शाही बोले--'तेरी क्या समस्या है? तू तो खुद ही एक समस्या है।'
शैलेन्द्र फिर शांत हो गए। मैंने गौर किया, पीड़ा की एक लहर उनकी शक्ल पर आयी और गुज़र गई। उनकी चेतना ने फिर मौन में समाधि ली। लेकिन, मैं समझ गया कि उनके जीवन में कहीं कुछ उलझा हुआ-सा रह गया है। उस समय तो मैंने उन्हें नहीं कुरेदा, क्योंकि अन्य मित्र भी आ जुटे थे। लेकिन शीघ्र ही मुझे उनके मन की टोह लेने का सुअवसर मिल गया था।

साप्ताहिक अवकाश में किसी शनिवार की शाम मैं श्रीदीदी-मधु दीदी के घर गया था। शनिवार की रात और रविवार का पूरा दिन वहाँ बिताकर सायंकाल में मैं शाही से मिलने आर्यनगर आया। घर से पता चला कि शाही तो कहीं निकले हुए हैं। मैं आर्यनगर के अपने तमाम अड्डों के चक्कर लगाता फिरा, कोई कहीं नहीं मिला। वह मोबाइल-युग तो था नहीं कि एक क्षण में जान लूँ कि मित्र-मंडल कहाँ विराज रहा है। उस ज़माने में घर से निकला हुआ, सड़क पर चलता-फिरता आदमी पकड़ से बाहर होता था। मैं निराश होकर लौटने का मन बना ही रहा था कि शैलेन्द्र बीच सड़क पर मिल गए। उन्हें भी ज्ञात नहीं था कि शाही तथा अन्य मित्र कहाँ हैं। फिर तो हम दोनों की ही जोड़ी जमी। टहलते और बातें करते हम दूर एक उद्यान में जा बैठे। बातों के बीच मैंने उनसे सीधा सवाल किया--'उस दिन तुम कुछ कहते हुए चुप हो गए थे। मुझसे निःसंकोच कहो, तुम्हारी समस्या क्या है? मेरे वश की बात हुई तो समस्या के समाधान की कोई-न-कोई राह निकल आएगी।'
शैलेन्द्र ने गहरी आँखों से मुझे देखा, जैसे मुझे तौल रहे हों। दो पल बाद बोले--'हाँ, तुम्ही से कह सकता हूँ, लेकिन वादा करो कि इसे सब मित्रों से कहोगे नहीं।'
मैंने पूछा--'ऐसा भी क्या है! तुम नहीं चाहते हो तो मैं किसी से नहीं कहूँगा। तुम बात तो बताओ। '

शैलेन्द्र ने जो कथा सुनाई, वह कष्टदायी थी--बाल्य-काल में उनके छोटे भाई की मृत्यु छत से गिरने से हुई थी। किसी कटी हुई पतंग की डोर पकड़ने में उनका भाई दुमंज़िली छत से नीचे गिर गया था। तब छत पर शैलेन्द्र ही छोटे भाई के साथ थे। यह घटना तब की थी, जब शैलेन्द्र १०-११ वर्ष के थे और उनके अनुज मात्र ७-८ वर्ष के। १३-१४ वर्ष पुरानी इस घटना की शोक-छाया आज तक उनके पूरे परिवार पर व्याप्त थी। शैलेन्द्र के माता-पिता उन्हें ही इस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराते रहे थे। शैलेन्द्र की लाख सफाई और अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने का हर प्रयास विफल हो गया था। माता-पिता के साथ घर का हर सदस्य यही मानता था कि पतंग की डोर पकड़ने की धक्का-मुक्की में घर का नन्हा चिराग बुझ गया था। कुछ वर्षों तक यह दोषारोपण और शैलेन्द्र का स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का यत्न चलता रहा, फिर समय के साथ उसकी धार कुंद होती गई। अब कोई किसी से कुछ नहीं कहता था, लेकिन सब के मन में गाँठें वैसी ही बँधी रह गयी थीं।

शैलेन्द्र अवसाद की इस छाया से आज तक उबर नहीं सके थे। इस लाँछना से लड़ते हुए उन्होंने युवावस्था में प्रवेश किया था और इसका उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व गहरा तथा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। यह दुखद और अंतरंग कथा सुनाते हुए वह कई बार विह्वल होकर रो पड़े थे। मैंने उन्हें सांत्वना दी, संयत किया। अंततः उन्होंने अत्यन्त आर्त्त भाव से कहा--'मेरे घर के लोगों की इस आधारहीन अवधारणा को असत्य सिद्ध कर, मुझ पर अकारण लगी इस लांछना को क्या तुम किसी तरह मिटा नहीं सकते आनंद? तुम समझ सकते हो, मेरी यह पीड़ा मारक है।'
मैंने कहा--'इसका निराकरण तो सिर्फ़ तुम्हारे छोटे भाई की आत्मा ही कर सकती है। कहो तो उसे ही बुलाकर घटना का सत्य पूछ लूँ ?'
शैलेन्द्र उत्साहित होकर बोले--'क्या ऐसा हो सकता है?'
मैंने कहा--'अवश्य हो सकता है। छोटे भाई का कोई चित्र होगा न तुम्हारे पास?'
शैलेन्द्र बोले--'होगा तो ज़रूर, खोजना पड़ेगा। लेकिन उसे तुम्हें मेरे घर पर ही बुलाना पड़ेगा, ताकि सत्य घरवालों के सामने ही उजागर हो और मेरे माथे से वह दाग़ मिट जाए हमेशा के लिए ।'
मैंने कहा--'अब तो अगले रविवार को ही यह संभव हो सकेगा।'
मैंने देखा, मेरे इस उत्तर से उनके चेहरे पर निराशा के भाव जागे; लेकिन शीघ्र ही संतुलित होकर उन्होंने कहा--'चलो ठीक है, अगले रविवार को ही सही। बस, तुम भूल न जाना और पूरी तैयारी से आना, तब तक मैं तस्वीर भी ढूँढ लूँगा।'
इसी निश्चय के साथ हम दोनों उठ खड़े हुए।...
(क्रमशः)
[ मित्रवर से स्पष्ट स्वीकृति नहीं मिलने के कारण छद्म नाम 'शैलेन्द्र दीक्षित' रखा है। --आ.]

रविवार, 8 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१६)

[क्या बने बात, जो बात बनाये न बने... ]

दफ्तर की छुट्टी के बाद ईश्वर भी 'बाबा भूतनाथ' के कमरे पर आये। हम तीनों मित्रों के बीच आज की घटना पर बातें होने लगीं। दोनों एकमत थे कि इस मामले में मैं और अधिक न पडूँ। मैं तो इस आसमान में और उड़ना चाहता था, लेकिन मित्र-बंधु थे कि हाथ खींच लेने की सलाह दे रहे थे। गंभीर मनोमंथन और विमर्श होता रहा। शाही का कहना था कि 'तुम्हारी सूचना के आधार पर अगर दिवंगता के पिता ने पुलिस केस कर दिया तो बड़ी परेशानी हो जायेगी। तुम्हारी हस्तलिखित चिट्ठी ही साक्ष्य बन जाएगी और पुलिस की पूछताछ के दायरे में तुम भी आ जाओगे। सोचो, तब क्या होगा ?' ईश्वर भी इस बात की पुष्टि कर रहे थे। उनकी बातें सुन-सुनकर मेरा माथा चकरा रहा था। मैं मानता था कि अगर ऐसा हुआ तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊँगा, लेकिन साथ ही अपनी बात रखते हुए कह रहा था कि 'परा-जगत से संपर्क और उससे मिली सूचना को किसी भी तरह, किसी भी न्यायालय में, साक्ष्य नहीं माना जाएगा। और, ऐसा कोई भी दावा वहाँ नहीं ठहरेगा।'
मित्रों की दलील थी कि 'कोर्ट में तो केस बाद में पहुँचेगा, लेकिन तबतक पुलिस नाहक तुम्हें तंग करती रहेगी और तुम्हारी सारी परा-शक्तियाँ पस्त हो जायेंगी।'
ईश्वर हमें सावधान करते हुए बोले--'यह मत समझना कि वे लोग यहाँ नहीं पहुँच सकते। वे मिल के गेटकीपर से या किसी और सूत्र से पूछ-जानकर भी यहाँ आ सकते हैं। होशियार रहना।'

इस विवाद और विमर्श का अन्त नहीं था, लेकिन मैं सोच रहा था कि मैंने उन दुखी, निराश, संतप्त और टूटे हुए बुज़ुर्ग पिता को वचन दिया था कि मैं उनकी हर संभव सहायता करूँगा और अब अचानक अपने हाथ खींच लूँ या नदारद हो जाऊँ--यह किसी तरह भी उचित नहीं होगा। शाही तो वार्ता के बीच मुझे तीखी चिकोटी भी काट रहे थे--'मैं तो कब से मना कर रहा था कि अब ये सब बंद करो, लेकिन तुम मेरी मानते-सुनते ही कहाँ हो? अब भुगतो भूतनाथ…!' मैं खीझकर कहता--'दरवाज़े पर लिखा पढ़कर अब तुम भी शुरू हो गए।'...
ईश्वर हमें समझा-बुझाकर रात ८ बजे लौट गए। ईश्वर के कहे का ख़याल कर मैंने और शाही ने नाइट शो की एक पिक्चर देखकर मन हल्का करने का निश्चय किया और रात का खाना खाकर बैचलर क्वार्टर से निकल गए। इस निर्णय के पीछे यह इरादा भी था कि इसी बहाने देर रात तक के लिए हम क्वार्टर से दूर रहेंगे। लेकिन, मुझे लगता था कि इतना भयग्रस्त होने की कोई आवश्यकता नहीं थी।...

पिक्चर थी--'शंकर दादा'; पिक्चर का नाम तो आज तक याद है, लेकिन दो-ढाई घण्टे तक परदे पर क्या-कुछ चलता रहा, वह कुछ भी समझ में नहीं आया; क्योंकि वहाँ भी आई.आई,टी के छात्रों की एक बड़ी जमात से बैठने की सीटों को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया। मैंने उसी दिन पहली बार शाही को रौद्र-रूप में देखा था। बीस-पच्चीस छोरों की टोली पर वह अकेले ही भारी पड़े थे। वह साथ न होते तो मैं उस रात खासी पिटाई खाकर लौटता। जब हम कमरे पर लौट आये तो शाही ने बिस्तर पर जाते-जाते कहा--'लगता है, आज का दिन ही खराब था।' रात बिछावन पर गया तो चिंता की वक्र रेखाएँ ललाट पर उभर आई थीं।

दूसरे दिन हम दोनों जब दफ्तर के लिए तैयार हो रहे थे, शाही मुझे किसी भी स्थिति से निबटने के टिप्स दे रहे थे। मैं प्रबुद्ध हुआ दफ़्तर पहुंचा और मिल ऑफिस के मुख्यद्वार पर ही उन बुज़ुर्गवार के द्वारा पकड़ा गया। वह अपने एक पुत्र के साथ जाने कब से वहाँ मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। कल की अपेक्षा वह आज संयत-संतुलित लग रहे थे। मुझ पर दृष्टि पड़ते ही वह शीघ्रता से पास आये। मैं भीड़ से अलग उनके साथ एक किनारे हो गया। शाही मुझसे आगे थे, वह दफ्तर में प्रवेश कर चुके थे। उन बुज़ुर्ग ने बोलने का अवसर पाते ही शिकायत दर्ज की--'कल शाम मैं यहाँ आपका देर तक इंतज़ार ही करता रह गया। आप न जाने किधर से निकल गए थे।'
मुझे झूठ बोलना पड़ा--'हाँ, कल मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ा था।'
वह बेचारगी से बोले--'ओझाजी, आप एक बार मेरी बात बेटी से करवा दें या मेरे सामने ही उससे पूछ लें कि यह सब कैसे हुआ, किसने किया, कौन उत्तरदायी है, तो मेरे मन का बोझ थोड़ा कम हो जाएगा। फिर न्याय के लिए मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूंगा।'
मैंने अपनी रक्षा के ख़याल से कहा--'देखिये, आपको भी बिटिया ने अपने जीवन-काल में ससुराल से मिलनेवाले सुख-दुःख के बारे थोड़ा-बहुत तो बताया ही होगा। आप स्वयं सोचें। मैं तो प्लेंचेट पर था, तभी उसकी आत्मा अयाचित आ गई थी और उसने जो कुछ और जैसा मुझसे कहा, मैंने आपको बता दिया। मेरा दायित्व वहीं समाप्त हो गया है। इसमें और अनुसंधान के लिए आप न मुझसे आग्रह करें, न बेटी की आत्मा को फिर से बुलाने को कहें। इससे उसे कष्ट ही होगा।'
मेरे उत्तर से उन्हें निराशा हुई। वह निरीह होकर बोले--'मेरी बेटी बहुत सरल-संस्कारवान और आत्माभिमानी लड़की थी। उसने कभी ऐसा कुछ नहीं बताया था, जिससे हमें पता चलता कि उसे अपनी ससुराल में किसी प्रकार का कष्ट था। मेरी बात तो छोड़िये, अपनी माँ को भी उसने कभी कुछ नहीं बताया। इसीलिए तो हम सभी आश्चर्य में हैं। आप जब, जहां कहें, हम वहीं आ जाएंगे। आप चाहें तो मेरे घर भी आ सकते हैं, मैं स्वयं आकर आपको अपने साथ ले जाऊँगा। आप सिर्फ मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर उससे पूछ दें तो मैं किसी निर्णय पर पहुँच सकूँगा। कल तो आपने मुझसे सहयोग का वादा भी किया था....। ' इतना कहते-कहते उनकी आँखें छलछला आयीं। मैं उनकी आतंरिक पीड़ा को समझ रहा था, लेकिन जैसा मुझे बताया-समझाया गया था, उससे मैं मन-ही-मन डर भी गया था।

दफ्तर में प्रवेश का समय लबे-दम था। समय का वास्ता देकर मैं चलने को तत्पर हुआ तो बुज़ुर्ग बोले--'आपने कुछ कहा नहीं, मेहरबानी करके थोड़ा तो वक़्त निकालिये मेरे लिए। देखिये, मुझे तो आपका ही भरोसा है।' उनकी यह याचना मेरे कानो में पिघले शीशे की तरह उतर रही थी और मेरे पाँव मिल के लौह-द्वार की ओर बढ़ चले थे, यह कहते हुए--'चिंता मत कीजिये, फिर बातें होंगी आपसे।'....

मैं दफ़्तर में आ तो गया, लेकिन अपनी बेरुखी-भरे व्यवहार के लिए मन-ही-मन खिन्न था। यह आचरण मेरे स्वभाव के विरुद्ध था। वह भी विधिवशात् एक प्रताड़ित बुज़ुर्ग के प्रति, जिसकी निर्दोष बेटी असमय काल-मूसल से कुचली गयी थी। आधा दिन किसी तरह बीता। भोजनावकाश में मैंने शाही से विस्तार से सबकुछ कहा और अपने मन की पीड़ा भी व्यक्त की। मैंने आर्त्त-भाव से निर्णयात्मक स्वर में कहा--'क्या बिगड़ जाएगा मेरा, अगर एक बार उनकी बात मैं करवा ही दूँ। सारी-सारी रात यही सब तो करता रहता हूँ। उनसे कह देता हूँ कि बिटिया के चित्र के साथ देर रात क्वार्टर पर आ जाएँ।' मेरी बात सुनकर शाही कुछ बोले नहीं, लेकिन उनकी मुख-मुद्रा से स्पष्ट था कि उन्हें मेरा निर्णय अच्छा नहीं लगा था।

लेकिन जिस निर्णय को लेने के बाद मैंने थोड़ी निश्चिंतता से दफ़्तर का समय बिताया था, उसे शाम के समय दफ़्तर से बाहर निकलते ही ग्रहण लग गया। गेट पर ही बुज़ुर्ग सज्जन फिर मिल गए। अब वह अपने तीन-चार अन्य सहयोगियों के साथ मेरी प्रतीक्षा करते मिले। दो दिनों में यह उनसे मेरी तीसरी मुलाक़ात थी। हताशा में मनुष्य क्या कुछ नहीं कर जाता ! मुझे देखते ही उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ जैसे मुझे घेर लिया और थोड़ी रुक्षता से बोले--'देखिये, आप मेरे साथ यह ठीक नहीं कर रहे हैं। आपको मेरा यह काम करना ही होगा। मैंने आपकी बहुत मिन्नतें कर लीं। अब तो आप मेरे घर चले चलिए।'

उनसे ऐसे व्यवहार की मुझे उम्मीद नहीं थी। वह तो जैसे मुझे उठा ले जाने का इरादा बनाकर आये थे। इससे मुझे कष्ट हुआ और दोपहर में लिये गए मेरे निर्णय की शक्ल बदलने लगी। मैंने शान्ति से कहा--'अभी ये संभव नहीं है। पहले मुझे अपने डेरे पर जाना होगा।' मेरी बात सुनकर बुज़ुर्ग ने कहा--'चलिये, मैं भी साथ चलता हूँ, मैं वहीं इंतज़ार कर लूँगा।' उनका यह हठ और धरना देने का भाव मुझे आपत्तिजनक लगा। शाही अब तक शान्ति से खड़े थे और हमारी बातें सुन रहे थे। अब वह भी बीच बहस में कूद पड़े और किंचित नाराज़गी से बोले--'आपकी इस बात का क्या मतलब है? क्या इनकी इच्छा के विरुद्ध आप बलपूर्वक इन्हें अपने साथ ले जायेंगे ?' मैं जानता था कि शाही की उपस्थित में कोई मुझ पर बल-प्रयोग नहीं कर सकता था। पिछली रात का, सिनेमा हॉल का, अनुभव मेरा सम्बल था।

अब बात में तुर्शी आ गयी थी। सड़क-किनारे हमारा बहस-मुबाहिसा पंद्रह-बीस मिनट तक चलता रहा। वे लोग हमारा साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे। अचानक शाही उग्र हुए, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और क्वार्टर की विपरीत दिशा में, लगभग मुझे खींचते हुए, चल पड़े। थोड़ी दूर तक वे लोग भी हमारे पीछे-पीछे आये और फिर न जाने कहाँ ठहर गए।

इधर-उधर भटककर हम अपने कमरे पर लौट आये--मैं बहुत क्षुब्ध था और शाही नाराज़। सद्भाव और सहयोग की कामना से किये गए मेरे प्रयास का ऐसा प्रतिफल मुझे मिलेगा, मैंने सोचा नहीं था। बहरहाल, रात तक शाही शांत हुए और उन्होंने पूरी गंभीरता से मुझे समझाया कि 'अगर अपना भला चाहते हो तो कुछ दिनों की छुट्टी लेकर घर चले जाओ। तब तक यहाँ मामला शांत हो जाएगा। '

और, अंततः मुझे यही निर्णय लेना पड़ा था। दूसरे ही दिन रात की गाडी से मैंने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया और इस तरह इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया। पटाक्षेप तो हुआ, लेकिन उस दुखी आत्मा के प्रति अनचाहे मुझसे जो अन्याय हुआ, उसका अपराध-बोध मेरी आत्मा पर लम्बे समय तक रहा और संभवतः आज भी है।

सात दिनों के दिल्ली-प्रवास के बाद कानपुर लौटा तो शाही हुलसकर मिले। उन्होंने मुझे बताया कि मेरी अनुपस्थिति में एक बार वह बुज़ुर्ग सज्जन फिर मुझसे मिलने आये थे। उसके बाद उनकी कोई सुन-गुन नहीं मिली। मैं नहीं जानता कि बिटिया के शोक का संवरण उन्होंने कैसे किया और दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई की भी या नहीं। आश्चर्य यह कि उस दुखी आत्मा ने भी कभी स्वयं मुझसे संपर्क नहीं किया। परा-जगत में वह आत्मा और दुनिया की भीड़ में उसके शोकाकुल पिता हमेशा के लिए खो गए।....

(क्रमशः)
[मेरी ही एक मुद्रा, १९७९ का चित्र]

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१५)

[क्या ख़ता थी मेरी, मैं कैसी ख़ता कर गया,
वो मेरा ही पता था, मुझे लापता कर गया!]

दूसरे दिन सुबह मैं देर से जागा। अमूमन सुबह की चाय मैं ही बनाता था और 'बेड टी' लेते हुए शाही हर सुबह उसकी पहली चुस्की के साथ एक ही वाक्य बोलते थे--'ओह, आँख खुली... । ' (आज, इतने वर्षों बाद भी सुबह की चाय पीते हुए उनका यह वाक्य याद आ जाता है); लेकिन उस दिन शाही ने आठ बजे, सुबह की चाय बनायी और मुझे जगाने की कोशिश की। मैंने करवट बदलकर उनसे कहा--यहाँ रखो न कप, उठता हूँ भाई !' शाही कप रखकर स्नान-ध्यान में लग गए और मैं सोता रहा। सुबह ९ बजे नींद खुली, तो मैं घबराकर उठा। ९.३० पर ऑफिस पहुँचना था। सिरहाने रखे कप की चाय शीतल पेय हो चुकी थी। मैं शीघ्रता से खुद को तैयार करने में जुटा। पिछली रात की बात मैंने न शाही को बतायी और न ऑफिस पहुंचकर ईश्वर को। मैं आत्मा के आदेश का पूरी तरह पालन करना चाहता था।

लंच के घण्टे भर पहले ही मैं अपनी सीट से उठा और सहायक लेखाधिकारी से अनुमति लेकर पोस्ट ऑफिस चला गया। स्वदेशी के मिल ऑफिस के नीचे ही कार्य-कर्मियों के लिए एक छोटा-सा डाकघर था। एक पोस्ट कार्ड खरीदकर मैंने लिखना शुरू किया। आदतन, कार्ड के शीर्ष पर मैंने अपना नाम-पता लिखा--'आ. व. ओझा, लेखा-विभाग, स्वदेशी कॉटन मिल्स, जूही, कानपुर। यह लिखकर मैंने उसके नीचे तिथि डाल दी। मैंने 'महोदय' से पत्र की शुरूआत की और आत्मा का दिया सन्देश संक्षेप में लिख दिया और अंत में अपना हस्ताक्षर कर, आत्मा के बताये पते पर पोस्ट कर दिया। लौटकर आया तो शाही ने इशारे में पूछा--'कहाँ से?' उनके पास पहुंचकर मैंने कहा--'बाबूजी को लिखा पत्र डालने गया था।' शाही ने मेरी बात सुन ली, लेकिन मैंने देखा, उनके चेहरे पर अविश्वास की छाया थी।

पत्र भेजकर मैं दायित्व-मुक्त हो गया था। मैंने सोचा था, अगर वह कोई चंचल, शोख या दुष्ट आत्मा होगी और महज़ मुझे परेशान करने के इरादे से गलत सूचना और पता-ठिकाना लिखवा गई होगी तो मेरा पत्र निरुद्देश्य भटककर किसी कूड़ेदान में जा पड़ेगा। और यदि आत्मा का कथन शब्दशः सत्य हुआ तो उसके घरवाले यथोचित कार्रवाई करेंगे ही। अपने इस चिंतन के बाद मैं उस ओर से निश्चिन्त हो गया था। चार-पांच दिन बीत भी गए थे।

लगता है, संभवतः सातवें दिन दस-साढ़े दस बजे के आसपास मैं दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, तभी 'इस्टैब्लिशमेंट' से फ़ोन आया। मुख्य लेखाधिकारी और सहायक लेखाधिकारी की दो बड़ी-बड़ी मेज़ों के सामने ही २५-३० लोगों का स्टाफ़ विशाल हॉल में बैठता था, जिसमें हम सभी थे। मुख्य लेखाधिकारी श्रीशर्मा ने फ़ोन उठाया, बात की और फिर मेरा नाम लेकर कहा--'मिस्टर ओझा, कोई आपसे मिलने आये हैं। नीचे स्वागत-कक्ष में जाइए।' मैं बेधड़क, आधार-तल पर, स्वागत-कक्ष में जा पहुँचा। वहाँ तीन अपरिचित लोगों को मैंने बैठा देखा। मैंने जैसे ही कक्ष में प्रवेश किया, वे तीनों एकसाथ उठ खड़े हुए, लपककर मेरे पास आये। उनमें दो युवक थे और एक बुजुर्ग। मैं सम्भ्रम में पड़ा था और अभी सोच ही रहा था कि कौन हैं ये लोग, तभी बुज़ुर्ग सज्जन बिलकुल मेरे समीप आये और उन्होंने पूछा--'आप ही ओझाजी हैं न?'
मेरी स्वीकारोक्ति सुनते ही अपनी ऊपरी जेब से उन्होंने एक पोस्टकार्ड निकालकर मुझे दिखाते हुए पूछा--'यह पत्र आपने ही लिखा है?'
उनके हाथो में अपना ही लिखा पत्र देखकर सारा मामला मेरी समझ में आ गया। मेरा रोम-रोम सिहर उठा। मैंने जाना कि उस आत्मा ने जो कुछ कहा था, सत्य था। इधर मैंने हामी भरी और उधर बुज़ुर्ग व्यक्ति की आँखों से गंगा-यमुना की धारा बह चली। दोनों युवकों की आँखें भी सजल हो आई थीं। मैंने उन्हें शांत करने के लिए सांत्वना के दो शब्द कहने की कोशिश की, लेकिन उनकी विह्वलता चरम पर थी। उन्होंने अपनी काँपती उँगलियों से एक चित्र निकाला और मुझे दिखाते हुए बोले--'यही मेरी बिटिया है, जिससे आपने बात की है और मैं ही उसका बदनसीब बाप हूँ और ये दोनों उसके भाई हैं।' अब उनकी आँखों से अश्रुपात के साथ-साथ मुखर विलाप का स्वर भी निकलने लगा था।

स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मैंने विनम्रतापूर्वक और पूरी सहृदयता से निवेदन किया--'आप मेरे साथ आयें, यहां ये बातें नहीं हो सकेंगी,… आप मेरी बात समझें। यह मिल का अतिथि-कक्ष है, यहाँ लोग-बाग़ आते ही रहते हैं। … यहाँ यह चर्चा उचित नहीं है।'
और, उनके किसी उत्तर या प्रतिवाद की प्रतीक्षा न करके मैं वापस चल पड़ा। वे तीनों मेरे साथ-साथ अतिथि कक्ष से बाहर आये, लेकिन एक रोते हुए बुज़ुर्ग और दो सजल-नेत्र युवाओं को मेरे साथ निकलते देख इस्टैब्लिशमेंट के अधिकारी दत्ताजी लपककर आये और मुझे राह में रोककर पूछने लगे--'क्या बात है, क्या हुआ?' मैं 'कुछ नहीं' कहता हुआ आगे बढ़ गया। मिल ऑफिस के मुख्यद्वार के बाहर जाकर मैं रुका। उन बुज़ुर्ग ने पुनः चित्र दिखाकर मुझसे कहा--'अभी कुछ दिन पहले ही तो इसके क्रिया-कर्म से निबटकर लौटा हूँ और अब आपका यह पत्र मुझे मारे डाल रहा है। एक बार, बस एक बार आप मेरी उससे बात करवा दें। यह आप ही कर सकते हैं। मैं जीवन-भर आपका ऋण मानूँगा।' वे भावावेश में बहुत कुछ कहना चाह रहे थे, किन्तु उनका गला भर आता था और कंठ अवरुद्ध हो जाता था।
मैं लगातार उन्हें संयत और शांत करने का प्रयत्न कर रहा था। उन्हें समझा रहा था कि 'यहां सड़क पर तो वह सबकुछ नहीं हो सकता न, आप धीरज रखें। मैं यथा-सुविधा शीघ्र ही आपकी बात भी करवा दूंगा, लेकिन यह दफ्तर का समय है। आप ऑफिस की छुट्टी के बाद मुझसे यहीं मिलें। मुझसे जो भी संभव होगा, मैं अवश्य करूँगा आपके लिए.... ।'

लेकिन थोड़ी-सी देर में ही, इतनी हलचल और रुदन को देख, वहाँ तो मजमा लग गया था। मिल के बहुत-से वर्कर एकत्रित हो गए थे और मैं बेचैन होने लगा था। मुझे दफ्तर में लौटने में विलम्ब हुआ देख पूछते-ढूँढ़ते अचानक शाही भी वहाँ आ पहुंचे। वह दोनों युवाओं को एक किनारे ले जाकर समझाने-बुझाने लगे। हम दोनों के अनेक प्रयत्नों के बाद यह वादा लेकर कि शाम की छुट्टी के वक़्त मैं उनसे यहीं, इसी जगह, अवश्य मिलूँगा, वे तीनों पिता-पुत्र लौट गए। भीड़ छँट गई और हम दोनों दफ्तर की भीड़ में शामिल हो गए।
मिल के गेट पर हुए इस वाक़ये को लेकर लेखा विभाग में भी खुसुर-फुसुर हो रही थी और शाही आग्नेय नेत्रों से मुझे बीच-बीच में घूर रहे थे। लंच के समय मैंने सारा वृत्तांत विस्तार से शाही और ईश्वर को सुनाया और उनकी फटकार सुनता रहा। दोनों कह रहे थे कि 'पोस्टकार्ड पर तुम्हें अपना पता नहीं लिखना चाहिए था। तुम्हारे हिंदी के हस्ताक्षर से तुम्हारे नाम को निकाल लेना तो परिचितों के लिए भी कठिन है, लिहाज़ा पत्र पर जो दस्तखत तुमने किया था, वही काफी था। शुक्र है, तुमने स्वदेशी कॉलोनी का पता उन्हें नहीं दे दिया, अन्यथा वे वहाँ भी पहुँच जाते।' अंततः सुनिश्चित हुआ कि शाम की छुट्टी के थोड़ा पहले ही मैं और शाही दफ्तर छोड़ देंगे। अंतर्मन से मैं इस तरह रणछोड़ दास बनने को तैयार नहीं था, लेकिन मित्र-मंडली की ज़िद पर मुझे मान जाना पड़ा।
ऐसी खबरें किसी माध्यम की मोहताज़ नहीं होतीं, उन्हें हवा ले जाती है--दूर-दूर तक। एक मुँह बोलता है, कई कान सुनते हैं और हवाएँ ले उड़ती हैं खबरें। यथानिश्चय हमने दफ्तर की छुट्टी के ४०-४५ मिनट पहले ही पलायन किया। जब हम अपनी कॉलोनी के कमरे पर पहुँचे तो हमने देखा, हवाएँ कक्ष के दोनों दरवाज़ों पर सफ़ेद खड़िये से हमारा नामपट्ट चिपका गई थीं वहाँ--"बाबा भूतनाथ का कमरा!"
(क्रमशः)

[चित्र : एक पुराना पोस्टकार्ड, जिस पर लिखा पूज्य पिताजी का पता श्रद्धेय दिनकरजी की हस्तलिपि में है.

सोमवार, 2 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१४)

[इज़हारे ग़म उसे आता न था...]

सिर्फ़ चालीस दुकान की आत्मा ने ही नहीं, अनेक आत्माओं ने मुझसे कहा था कि वे अपना नाम भूल चुकी हैं। ऐसी आत्माएं अपनी पहचान के लिए एक कूट संख्या (Code number) बतलाती थीं। इन अनेक संख्याओं को स्मरण में रखना तो कठिन था। लिहाज़ा, मैंने एक डायरी में इन संख्याओं को दर्ज करना शुरू किया, उनके किंचित विवरण तथा महत्वपूर्ण वक्तव्यों के साथ, ताकि उनके पुनरागमन पर तत्काल उन्हें पहचान सकूँ। मेरी बाद की परलोक-चर्चाओं के लिए वह दस्तावेज़ बड़े महत्त्व का सिद्ध हुआ। ...
इस सारे कार्य-व्यापार में मेरी रातों की नींद दुश्वार हो गई थी। अनेक बिन बुलाई आत्माओं ने मेरी रातों की नींद चुरायी और मुझे क्लांत किया। ऐसी आत्माओं की संख्या कम नहीं थी; क्योंकि दिवंगत परिचितों की सूची में से अधिकांश से मैं संपर्क कर चुका था और शेष लोग मेरी पुकार पर आनेवाले नहीं थे। संभवतः वे जीवन्मुक्त हो चुके थे अथवा मेरी पुकार उन तक पहुँच नहीं रही थी। जो भी हो, मेरी रात का ज्यादातर वक़्त अपरिचित आत्माओं से संवाद करने में बीतता। ऐसी आत्माएँ लौट जाने के मेरे निवेदन पर बोर्ड पर नृत्य करने लगतीं अथवा साफ़ कह देतीं कि अभी उन्हें नहीं जाना। उन्हें बलात् वापस भेजने के लिए मुझे बल-प्रयोग करना पड़ता था। बल-प्रयोग से आशय यह कि मुझे अपने ही शरीर को कष्ट देना होता था। मैं कभी शाही की जलती सिगरेट से, कभी अगरबत्ती से और कभी मोमबत्ती से अपनी ही त्वचा को दाग देता या दाग देने की बात कहकर उन्हें भयभीत करता और उस ताप-भय से व्याकुल होकर आत्माएँ लौट जाने को तैयार हो जातीं। हाँ, मैं अपने दायें हाथ की हथेली को कभी आहत नहीं करता था, क्योंकि दूसरे दिन मुझे उसी हाथ से दफ्तर में काम करना होता था, मैं वैसे भी वामपंथी कभी रहा नहीं। मेरी दोनों बाँहों के ऊपरी भाग में और कन्धों पर दाग के ऐसे कई निशान आज भी विद्यमान हैं, हालाँकि अब वे धुँधले पड़ गए हैं।
इन अवांछित आत्माओं से मुक्ति पाकर जब मैं सोने जाता तो निद्रा देवी की गोद में पहुँचते ही स्वप्न के संसार में खो जाता। स्वप्न में भी मुझे आँगन से झाँकते आकाश के छोटे-से टुकड़े में झुण्ड-की-झुण्ड आत्माएँ उड़ती दिखाई देतीं, जैसे काले कौवों या चमगादड़ों का एक दल मँडरा रहा हो।.… ऐसे स्वप्न भयकारी होते और मेरी नींद के दुश्मन भी! पक्षियों के उस झुण्ड को भगाने के लिए अर्धतंद्रा की दशा में मैं अपने हाथ-पैर चलाने लगता। मेरे ऐसे प्रयत्नों से कई बार सोते हुए शाही भाई की नींद टूट जाती और वह जागकर बड़बड़ाने लगते, मुझ पर खीझते, चिल्लाते--'न खुद सोते हो, न मुझे सोने देते हो तुम!' शाही निद्रा-प्रेमी थे और मैंने स्वयं नींद से दुश्मनी मोल ले रखी थी।
उन्होंने कई बार मुझसे कहा भी था--'जब तुम्हें किसी परिचित आत्मा से अब बातें नहीं करनी हैं तो तुम रोज़ अपना बोर्ड लेकर बैठते ही क्यों हो? क्या लाभ है इससे? अपनी शक्ल देखो, ठीक बारह बज रहे हैं वहाँ।' लेकिन वह तो एक जुनून-सा मुझ पर सवार था। लगता था, जैसे कई बेसब्र आत्माएँ मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। आज यह कृत्य नहीं करूँगा, तो उन्हें मायूसी होगी और मुझसे न जाने कौन-सी महत्वपूर्ण जानकारी छूट जायेगी। अभिन्न मित्र शाही ही मेरे इस गोरखधंधे के मुखर और कटु आलोचक थे और मैं विवाद में उन्हें परास्त नहीं कर पाता था, तो निरीह हो जाता था। मेरी उतरी हुई शक्ल देखकर शाही अपने तर्कों की तलवार मेरे सामने डाल तो देते, लेकिन खीझकर कहते--'ठीक है, जो मन में आये, करो।' और फिर मेरा परा-प्रवेश प्रयत्न चल पड़ता।
सच कहूँ तो रोज़-ब-रोज़ ध्यान-साधन कर बोर्ड पर बैठ जाने का एक प्रबल आकर्षण अब चालीस दुकानवाली आत्मा भी हो गई थी। मुझे प्रतिदिन लगता, आज कहीं उसे कुछ विशेष कहना न हो, मुझे यत्न-साधन न करता देखकर वह दुखी न हो, कहीं और अपना सिर पटकती न फिरे।... मैं यह भी जानता था कि उसके प्रति मेरी यह दुर्बलता मेरे लिए ही अच्छी नहीं थी, लेकिन मैं भावनाओं में बंधा स्वयं अपने आप से ही विवश था। वैसे भी, उम्र कच्ची थी और उत्साह प्रबल था। २२-२३ वर्ष का युवा सनसनाते घोड़े पर सवार होता है। उसे अपनी ही त्वरा में रहने-दौड़ने में आनन्द आता है। मैं भी अपनी ही त्वरा में था, आनंदातिरेक में डूबा हुआ।....
अब ठीक-ठीक तो स्मरण नहीं, लेकिन ऐसी ही दिनचर्या व्यतीत करते हुए पंद्रह-बीस दिन ही गुज़रे होंगे कि एक दिन निस्तब्ध रात्रि में एक आत्मा ने मेरी चेतना के द्वार खटखटाये। शाही बारह बजे तक की ड्यूटी बजाकर सो गए थे। मैं बोर्ड पर अकेला था। वह आत्मा बहुत क्षुब्ध थी, लेकिन शालीन शब्दों में अपनी बात रख रही थी। सम्पर्क में आते ही वह बोली--'मैं आपसे एक जरूरी बात कहने आई हूँ। बहुत जरूरी बात। '
मैंने कहा--'आप निःसंकोच कहें। कौन हैं आप, क्या नाम है आपका ?'
उसने आगे कहा--'क्षमा करें, मुझे मेरा नाम ज्ञात नहीं है।'
मैंने कहा--'कोई बात नहीं, आपकी पुकार-संख्या क्या है, वही बता दें। '
वह बोली--'उसकी भी आवश्यकता नहीं। आप मेरी बात सुनें और मैं जो कुछ आपसे कहने जा रही हूँ, उसे अपने तक रखें।
मैंने कहा--'ठीक है, आप कहें तो…!
वह फिर बोली--'मैं एक काम आपको सौंपना चाहती हूँ, तो क्या आप उसे पूरा कर देंगे ?'
उसकी लम्बी भूमिका से मैं परेशान होने लगा था। मैंने कहा--'आप आदेश दें, मेरे लिए संभव हुआ तो अवश्य करूँगा।'
आत्मा बोली--'आपके लिए वह आसानी से संभव है।'
मैंने आजिज़ी से कहा--'आप सीधे मुद्दे की बात बताएं।'
उसने कहा--'हाँ, बताती हूँ। मैं अपनी मौत की कथा के विस्तार में नहीं जाऊंगी। आप बस इतना जानें कि मेरी ससुरालवालों ने मुझे मार डाला है, लेकिन मेरे मायकेवाले इस सच को नहीं जानते। मैं चाहती हूँ कि आप मेरे पिताजी को सूचित कर दें कि मेरी हत्या हुई है, किसी दुर्घटना में मैं नहीं मरी हूँ। आप इतना-भर मेरे लिए कर देंगे न?'
मैंने पूछा--'आपके साथ यह अमानवीय व्यवहार कहाँ हुआ? मतलब, किस शहर में? मैं तो आपके पिताजी को जानता भी नहीं, उन्हें ये खबर कैसे दूंगा?'
आत्मा बोली--'ये जरूरी नहीं कि आप मेरी ससुरालवालों का पता-ठिकाना जानें। मैं आपको अपने पिताजी का पता बता रही हूँ, नोट कर लें और उन्हें सूचित कर देने की कृपा करें। ताकि वे दोषियों को दण्ड दिलवा सकें। मैं आपका आभार मानूँगी। '
मुझे परमाश्चर्य हुआ, जब आत्मा ने मुझे कानपुर के गोविंदपुरी मुहल्ले का एक पूरा पता, अपने पिताजी के नाम के साथ, लिखवाया और अपना आग्रह दुहरा कर स्वयं लौट जाने की इच्छा व्यक्त की। उसे विदा करके जब मैं सोने गया, तो देर तक नींद नहीं आयी। मेरे दिमाग में उस आत्मा की शालीनता और दुःख-पीड़ा का संयत वाचन (प्रकटीकरण) घूमता रहा। शायद उसे अपने दुखों को व्यक्त करने का अभ्यास न था। जाने कितनी देर बाद नींद मुझे अपने साथ उड़ा ले गई।…
(क्रमशः)