सोमवार, 2 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१४)

[इज़हारे ग़म उसे आता न था...]

सिर्फ़ चालीस दुकान की आत्मा ने ही नहीं, अनेक आत्माओं ने मुझसे कहा था कि वे अपना नाम भूल चुकी हैं। ऐसी आत्माएं अपनी पहचान के लिए एक कूट संख्या (Code number) बतलाती थीं। इन अनेक संख्याओं को स्मरण में रखना तो कठिन था। लिहाज़ा, मैंने एक डायरी में इन संख्याओं को दर्ज करना शुरू किया, उनके किंचित विवरण तथा महत्वपूर्ण वक्तव्यों के साथ, ताकि उनके पुनरागमन पर तत्काल उन्हें पहचान सकूँ। मेरी बाद की परलोक-चर्चाओं के लिए वह दस्तावेज़ बड़े महत्त्व का सिद्ध हुआ। ...
इस सारे कार्य-व्यापार में मेरी रातों की नींद दुश्वार हो गई थी। अनेक बिन बुलाई आत्माओं ने मेरी रातों की नींद चुरायी और मुझे क्लांत किया। ऐसी आत्माओं की संख्या कम नहीं थी; क्योंकि दिवंगत परिचितों की सूची में से अधिकांश से मैं संपर्क कर चुका था और शेष लोग मेरी पुकार पर आनेवाले नहीं थे। संभवतः वे जीवन्मुक्त हो चुके थे अथवा मेरी पुकार उन तक पहुँच नहीं रही थी। जो भी हो, मेरी रात का ज्यादातर वक़्त अपरिचित आत्माओं से संवाद करने में बीतता। ऐसी आत्माएँ लौट जाने के मेरे निवेदन पर बोर्ड पर नृत्य करने लगतीं अथवा साफ़ कह देतीं कि अभी उन्हें नहीं जाना। उन्हें बलात् वापस भेजने के लिए मुझे बल-प्रयोग करना पड़ता था। बल-प्रयोग से आशय यह कि मुझे अपने ही शरीर को कष्ट देना होता था। मैं कभी शाही की जलती सिगरेट से, कभी अगरबत्ती से और कभी मोमबत्ती से अपनी ही त्वचा को दाग देता या दाग देने की बात कहकर उन्हें भयभीत करता और उस ताप-भय से व्याकुल होकर आत्माएँ लौट जाने को तैयार हो जातीं। हाँ, मैं अपने दायें हाथ की हथेली को कभी आहत नहीं करता था, क्योंकि दूसरे दिन मुझे उसी हाथ से दफ्तर में काम करना होता था, मैं वैसे भी वामपंथी कभी रहा नहीं। मेरी दोनों बाँहों के ऊपरी भाग में और कन्धों पर दाग के ऐसे कई निशान आज भी विद्यमान हैं, हालाँकि अब वे धुँधले पड़ गए हैं।
इन अवांछित आत्माओं से मुक्ति पाकर जब मैं सोने जाता तो निद्रा देवी की गोद में पहुँचते ही स्वप्न के संसार में खो जाता। स्वप्न में भी मुझे आँगन से झाँकते आकाश के छोटे-से टुकड़े में झुण्ड-की-झुण्ड आत्माएँ उड़ती दिखाई देतीं, जैसे काले कौवों या चमगादड़ों का एक दल मँडरा रहा हो।.… ऐसे स्वप्न भयकारी होते और मेरी नींद के दुश्मन भी! पक्षियों के उस झुण्ड को भगाने के लिए अर्धतंद्रा की दशा में मैं अपने हाथ-पैर चलाने लगता। मेरे ऐसे प्रयत्नों से कई बार सोते हुए शाही भाई की नींद टूट जाती और वह जागकर बड़बड़ाने लगते, मुझ पर खीझते, चिल्लाते--'न खुद सोते हो, न मुझे सोने देते हो तुम!' शाही निद्रा-प्रेमी थे और मैंने स्वयं नींद से दुश्मनी मोल ले रखी थी।
उन्होंने कई बार मुझसे कहा भी था--'जब तुम्हें किसी परिचित आत्मा से अब बातें नहीं करनी हैं तो तुम रोज़ अपना बोर्ड लेकर बैठते ही क्यों हो? क्या लाभ है इससे? अपनी शक्ल देखो, ठीक बारह बज रहे हैं वहाँ।' लेकिन वह तो एक जुनून-सा मुझ पर सवार था। लगता था, जैसे कई बेसब्र आत्माएँ मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। आज यह कृत्य नहीं करूँगा, तो उन्हें मायूसी होगी और मुझसे न जाने कौन-सी महत्वपूर्ण जानकारी छूट जायेगी। अभिन्न मित्र शाही ही मेरे इस गोरखधंधे के मुखर और कटु आलोचक थे और मैं विवाद में उन्हें परास्त नहीं कर पाता था, तो निरीह हो जाता था। मेरी उतरी हुई शक्ल देखकर शाही अपने तर्कों की तलवार मेरे सामने डाल तो देते, लेकिन खीझकर कहते--'ठीक है, जो मन में आये, करो।' और फिर मेरा परा-प्रवेश प्रयत्न चल पड़ता।
सच कहूँ तो रोज़-ब-रोज़ ध्यान-साधन कर बोर्ड पर बैठ जाने का एक प्रबल आकर्षण अब चालीस दुकानवाली आत्मा भी हो गई थी। मुझे प्रतिदिन लगता, आज कहीं उसे कुछ विशेष कहना न हो, मुझे यत्न-साधन न करता देखकर वह दुखी न हो, कहीं और अपना सिर पटकती न फिरे।... मैं यह भी जानता था कि उसके प्रति मेरी यह दुर्बलता मेरे लिए ही अच्छी नहीं थी, लेकिन मैं भावनाओं में बंधा स्वयं अपने आप से ही विवश था। वैसे भी, उम्र कच्ची थी और उत्साह प्रबल था। २२-२३ वर्ष का युवा सनसनाते घोड़े पर सवार होता है। उसे अपनी ही त्वरा में रहने-दौड़ने में आनन्द आता है। मैं भी अपनी ही त्वरा में था, आनंदातिरेक में डूबा हुआ।....
अब ठीक-ठीक तो स्मरण नहीं, लेकिन ऐसी ही दिनचर्या व्यतीत करते हुए पंद्रह-बीस दिन ही गुज़रे होंगे कि एक दिन निस्तब्ध रात्रि में एक आत्मा ने मेरी चेतना के द्वार खटखटाये। शाही बारह बजे तक की ड्यूटी बजाकर सो गए थे। मैं बोर्ड पर अकेला था। वह आत्मा बहुत क्षुब्ध थी, लेकिन शालीन शब्दों में अपनी बात रख रही थी। सम्पर्क में आते ही वह बोली--'मैं आपसे एक जरूरी बात कहने आई हूँ। बहुत जरूरी बात। '
मैंने कहा--'आप निःसंकोच कहें। कौन हैं आप, क्या नाम है आपका ?'
उसने आगे कहा--'क्षमा करें, मुझे मेरा नाम ज्ञात नहीं है।'
मैंने कहा--'कोई बात नहीं, आपकी पुकार-संख्या क्या है, वही बता दें। '
वह बोली--'उसकी भी आवश्यकता नहीं। आप मेरी बात सुनें और मैं जो कुछ आपसे कहने जा रही हूँ, उसे अपने तक रखें।
मैंने कहा--'ठीक है, आप कहें तो…!
वह फिर बोली--'मैं एक काम आपको सौंपना चाहती हूँ, तो क्या आप उसे पूरा कर देंगे ?'
उसकी लम्बी भूमिका से मैं परेशान होने लगा था। मैंने कहा--'आप आदेश दें, मेरे लिए संभव हुआ तो अवश्य करूँगा।'
आत्मा बोली--'आपके लिए वह आसानी से संभव है।'
मैंने आजिज़ी से कहा--'आप सीधे मुद्दे की बात बताएं।'
उसने कहा--'हाँ, बताती हूँ। मैं अपनी मौत की कथा के विस्तार में नहीं जाऊंगी। आप बस इतना जानें कि मेरी ससुरालवालों ने मुझे मार डाला है, लेकिन मेरे मायकेवाले इस सच को नहीं जानते। मैं चाहती हूँ कि आप मेरे पिताजी को सूचित कर दें कि मेरी हत्या हुई है, किसी दुर्घटना में मैं नहीं मरी हूँ। आप इतना-भर मेरे लिए कर देंगे न?'
मैंने पूछा--'आपके साथ यह अमानवीय व्यवहार कहाँ हुआ? मतलब, किस शहर में? मैं तो आपके पिताजी को जानता भी नहीं, उन्हें ये खबर कैसे दूंगा?'
आत्मा बोली--'ये जरूरी नहीं कि आप मेरी ससुरालवालों का पता-ठिकाना जानें। मैं आपको अपने पिताजी का पता बता रही हूँ, नोट कर लें और उन्हें सूचित कर देने की कृपा करें। ताकि वे दोषियों को दण्ड दिलवा सकें। मैं आपका आभार मानूँगी। '
मुझे परमाश्चर्य हुआ, जब आत्मा ने मुझे कानपुर के गोविंदपुरी मुहल्ले का एक पूरा पता, अपने पिताजी के नाम के साथ, लिखवाया और अपना आग्रह दुहरा कर स्वयं लौट जाने की इच्छा व्यक्त की। उसे विदा करके जब मैं सोने गया, तो देर तक नींद नहीं आयी। मेरे दिमाग में उस आत्मा की शालीनता और दुःख-पीड़ा का संयत वाचन (प्रकटीकरण) घूमता रहा। शायद उसे अपने दुखों को व्यक्त करने का अभ्यास न था। जाने कितनी देर बाद नींद मुझे अपने साथ उड़ा ले गई।…
(क्रमशः)

2 टिप्‍पणियां:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

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वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

चुपचाप पढते चले जाने वाली शृंखला है यह..