रविवार, 8 नवंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (१६)

[क्या बने बात, जो बात बनाये न बने... ]

दफ्तर की छुट्टी के बाद ईश्वर भी 'बाबा भूतनाथ' के कमरे पर आये। हम तीनों मित्रों के बीच आज की घटना पर बातें होने लगीं। दोनों एकमत थे कि इस मामले में मैं और अधिक न पडूँ। मैं तो इस आसमान में और उड़ना चाहता था, लेकिन मित्र-बंधु थे कि हाथ खींच लेने की सलाह दे रहे थे। गंभीर मनोमंथन और विमर्श होता रहा। शाही का कहना था कि 'तुम्हारी सूचना के आधार पर अगर दिवंगता के पिता ने पुलिस केस कर दिया तो बड़ी परेशानी हो जायेगी। तुम्हारी हस्तलिखित चिट्ठी ही साक्ष्य बन जाएगी और पुलिस की पूछताछ के दायरे में तुम भी आ जाओगे। सोचो, तब क्या होगा ?' ईश्वर भी इस बात की पुष्टि कर रहे थे। उनकी बातें सुन-सुनकर मेरा माथा चकरा रहा था। मैं मानता था कि अगर ऐसा हुआ तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊँगा, लेकिन साथ ही अपनी बात रखते हुए कह रहा था कि 'परा-जगत से संपर्क और उससे मिली सूचना को किसी भी तरह, किसी भी न्यायालय में, साक्ष्य नहीं माना जाएगा। और, ऐसा कोई भी दावा वहाँ नहीं ठहरेगा।'
मित्रों की दलील थी कि 'कोर्ट में तो केस बाद में पहुँचेगा, लेकिन तबतक पुलिस नाहक तुम्हें तंग करती रहेगी और तुम्हारी सारी परा-शक्तियाँ पस्त हो जायेंगी।'
ईश्वर हमें सावधान करते हुए बोले--'यह मत समझना कि वे लोग यहाँ नहीं पहुँच सकते। वे मिल के गेटकीपर से या किसी और सूत्र से पूछ-जानकर भी यहाँ आ सकते हैं। होशियार रहना।'

इस विवाद और विमर्श का अन्त नहीं था, लेकिन मैं सोच रहा था कि मैंने उन दुखी, निराश, संतप्त और टूटे हुए बुज़ुर्ग पिता को वचन दिया था कि मैं उनकी हर संभव सहायता करूँगा और अब अचानक अपने हाथ खींच लूँ या नदारद हो जाऊँ--यह किसी तरह भी उचित नहीं होगा। शाही तो वार्ता के बीच मुझे तीखी चिकोटी भी काट रहे थे--'मैं तो कब से मना कर रहा था कि अब ये सब बंद करो, लेकिन तुम मेरी मानते-सुनते ही कहाँ हो? अब भुगतो भूतनाथ…!' मैं खीझकर कहता--'दरवाज़े पर लिखा पढ़कर अब तुम भी शुरू हो गए।'...
ईश्वर हमें समझा-बुझाकर रात ८ बजे लौट गए। ईश्वर के कहे का ख़याल कर मैंने और शाही ने नाइट शो की एक पिक्चर देखकर मन हल्का करने का निश्चय किया और रात का खाना खाकर बैचलर क्वार्टर से निकल गए। इस निर्णय के पीछे यह इरादा भी था कि इसी बहाने देर रात तक के लिए हम क्वार्टर से दूर रहेंगे। लेकिन, मुझे लगता था कि इतना भयग्रस्त होने की कोई आवश्यकता नहीं थी।...

पिक्चर थी--'शंकर दादा'; पिक्चर का नाम तो आज तक याद है, लेकिन दो-ढाई घण्टे तक परदे पर क्या-कुछ चलता रहा, वह कुछ भी समझ में नहीं आया; क्योंकि वहाँ भी आई.आई,टी के छात्रों की एक बड़ी जमात से बैठने की सीटों को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया। मैंने उसी दिन पहली बार शाही को रौद्र-रूप में देखा था। बीस-पच्चीस छोरों की टोली पर वह अकेले ही भारी पड़े थे। वह साथ न होते तो मैं उस रात खासी पिटाई खाकर लौटता। जब हम कमरे पर लौट आये तो शाही ने बिस्तर पर जाते-जाते कहा--'लगता है, आज का दिन ही खराब था।' रात बिछावन पर गया तो चिंता की वक्र रेखाएँ ललाट पर उभर आई थीं।

दूसरे दिन हम दोनों जब दफ्तर के लिए तैयार हो रहे थे, शाही मुझे किसी भी स्थिति से निबटने के टिप्स दे रहे थे। मैं प्रबुद्ध हुआ दफ़्तर पहुंचा और मिल ऑफिस के मुख्यद्वार पर ही उन बुज़ुर्गवार के द्वारा पकड़ा गया। वह अपने एक पुत्र के साथ जाने कब से वहाँ मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। कल की अपेक्षा वह आज संयत-संतुलित लग रहे थे। मुझ पर दृष्टि पड़ते ही वह शीघ्रता से पास आये। मैं भीड़ से अलग उनके साथ एक किनारे हो गया। शाही मुझसे आगे थे, वह दफ्तर में प्रवेश कर चुके थे। उन बुज़ुर्ग ने बोलने का अवसर पाते ही शिकायत दर्ज की--'कल शाम मैं यहाँ आपका देर तक इंतज़ार ही करता रह गया। आप न जाने किधर से निकल गए थे।'
मुझे झूठ बोलना पड़ा--'हाँ, कल मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ा था।'
वह बेचारगी से बोले--'ओझाजी, आप एक बार मेरी बात बेटी से करवा दें या मेरे सामने ही उससे पूछ लें कि यह सब कैसे हुआ, किसने किया, कौन उत्तरदायी है, तो मेरे मन का बोझ थोड़ा कम हो जाएगा। फिर न्याय के लिए मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूंगा।'
मैंने अपनी रक्षा के ख़याल से कहा--'देखिये, आपको भी बिटिया ने अपने जीवन-काल में ससुराल से मिलनेवाले सुख-दुःख के बारे थोड़ा-बहुत तो बताया ही होगा। आप स्वयं सोचें। मैं तो प्लेंचेट पर था, तभी उसकी आत्मा अयाचित आ गई थी और उसने जो कुछ और जैसा मुझसे कहा, मैंने आपको बता दिया। मेरा दायित्व वहीं समाप्त हो गया है। इसमें और अनुसंधान के लिए आप न मुझसे आग्रह करें, न बेटी की आत्मा को फिर से बुलाने को कहें। इससे उसे कष्ट ही होगा।'
मेरे उत्तर से उन्हें निराशा हुई। वह निरीह होकर बोले--'मेरी बेटी बहुत सरल-संस्कारवान और आत्माभिमानी लड़की थी। उसने कभी ऐसा कुछ नहीं बताया था, जिससे हमें पता चलता कि उसे अपनी ससुराल में किसी प्रकार का कष्ट था। मेरी बात तो छोड़िये, अपनी माँ को भी उसने कभी कुछ नहीं बताया। इसीलिए तो हम सभी आश्चर्य में हैं। आप जब, जहां कहें, हम वहीं आ जाएंगे। आप चाहें तो मेरे घर भी आ सकते हैं, मैं स्वयं आकर आपको अपने साथ ले जाऊँगा। आप सिर्फ मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर उससे पूछ दें तो मैं किसी निर्णय पर पहुँच सकूँगा। कल तो आपने मुझसे सहयोग का वादा भी किया था....। ' इतना कहते-कहते उनकी आँखें छलछला आयीं। मैं उनकी आतंरिक पीड़ा को समझ रहा था, लेकिन जैसा मुझे बताया-समझाया गया था, उससे मैं मन-ही-मन डर भी गया था।

दफ्तर में प्रवेश का समय लबे-दम था। समय का वास्ता देकर मैं चलने को तत्पर हुआ तो बुज़ुर्ग बोले--'आपने कुछ कहा नहीं, मेहरबानी करके थोड़ा तो वक़्त निकालिये मेरे लिए। देखिये, मुझे तो आपका ही भरोसा है।' उनकी यह याचना मेरे कानो में पिघले शीशे की तरह उतर रही थी और मेरे पाँव मिल के लौह-द्वार की ओर बढ़ चले थे, यह कहते हुए--'चिंता मत कीजिये, फिर बातें होंगी आपसे।'....

मैं दफ़्तर में आ तो गया, लेकिन अपनी बेरुखी-भरे व्यवहार के लिए मन-ही-मन खिन्न था। यह आचरण मेरे स्वभाव के विरुद्ध था। वह भी विधिवशात् एक प्रताड़ित बुज़ुर्ग के प्रति, जिसकी निर्दोष बेटी असमय काल-मूसल से कुचली गयी थी। आधा दिन किसी तरह बीता। भोजनावकाश में मैंने शाही से विस्तार से सबकुछ कहा और अपने मन की पीड़ा भी व्यक्त की। मैंने आर्त्त-भाव से निर्णयात्मक स्वर में कहा--'क्या बिगड़ जाएगा मेरा, अगर एक बार उनकी बात मैं करवा ही दूँ। सारी-सारी रात यही सब तो करता रहता हूँ। उनसे कह देता हूँ कि बिटिया के चित्र के साथ देर रात क्वार्टर पर आ जाएँ।' मेरी बात सुनकर शाही कुछ बोले नहीं, लेकिन उनकी मुख-मुद्रा से स्पष्ट था कि उन्हें मेरा निर्णय अच्छा नहीं लगा था।

लेकिन जिस निर्णय को लेने के बाद मैंने थोड़ी निश्चिंतता से दफ़्तर का समय बिताया था, उसे शाम के समय दफ़्तर से बाहर निकलते ही ग्रहण लग गया। गेट पर ही बुज़ुर्ग सज्जन फिर मिल गए। अब वह अपने तीन-चार अन्य सहयोगियों के साथ मेरी प्रतीक्षा करते मिले। दो दिनों में यह उनसे मेरी तीसरी मुलाक़ात थी। हताशा में मनुष्य क्या कुछ नहीं कर जाता ! मुझे देखते ही उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ जैसे मुझे घेर लिया और थोड़ी रुक्षता से बोले--'देखिये, आप मेरे साथ यह ठीक नहीं कर रहे हैं। आपको मेरा यह काम करना ही होगा। मैंने आपकी बहुत मिन्नतें कर लीं। अब तो आप मेरे घर चले चलिए।'

उनसे ऐसे व्यवहार की मुझे उम्मीद नहीं थी। वह तो जैसे मुझे उठा ले जाने का इरादा बनाकर आये थे। इससे मुझे कष्ट हुआ और दोपहर में लिये गए मेरे निर्णय की शक्ल बदलने लगी। मैंने शान्ति से कहा--'अभी ये संभव नहीं है। पहले मुझे अपने डेरे पर जाना होगा।' मेरी बात सुनकर बुज़ुर्ग ने कहा--'चलिये, मैं भी साथ चलता हूँ, मैं वहीं इंतज़ार कर लूँगा।' उनका यह हठ और धरना देने का भाव मुझे आपत्तिजनक लगा। शाही अब तक शान्ति से खड़े थे और हमारी बातें सुन रहे थे। अब वह भी बीच बहस में कूद पड़े और किंचित नाराज़गी से बोले--'आपकी इस बात का क्या मतलब है? क्या इनकी इच्छा के विरुद्ध आप बलपूर्वक इन्हें अपने साथ ले जायेंगे ?' मैं जानता था कि शाही की उपस्थित में कोई मुझ पर बल-प्रयोग नहीं कर सकता था। पिछली रात का, सिनेमा हॉल का, अनुभव मेरा सम्बल था।

अब बात में तुर्शी आ गयी थी। सड़क-किनारे हमारा बहस-मुबाहिसा पंद्रह-बीस मिनट तक चलता रहा। वे लोग हमारा साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे। अचानक शाही उग्र हुए, उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और क्वार्टर की विपरीत दिशा में, लगभग मुझे खींचते हुए, चल पड़े। थोड़ी दूर तक वे लोग भी हमारे पीछे-पीछे आये और फिर न जाने कहाँ ठहर गए।

इधर-उधर भटककर हम अपने कमरे पर लौट आये--मैं बहुत क्षुब्ध था और शाही नाराज़। सद्भाव और सहयोग की कामना से किये गए मेरे प्रयास का ऐसा प्रतिफल मुझे मिलेगा, मैंने सोचा नहीं था। बहरहाल, रात तक शाही शांत हुए और उन्होंने पूरी गंभीरता से मुझे समझाया कि 'अगर अपना भला चाहते हो तो कुछ दिनों की छुट्टी लेकर घर चले जाओ। तब तक यहाँ मामला शांत हो जाएगा। '

और, अंततः मुझे यही निर्णय लेना पड़ा था। दूसरे ही दिन रात की गाडी से मैंने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया और इस तरह इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया। पटाक्षेप तो हुआ, लेकिन उस दुखी आत्मा के प्रति अनचाहे मुझसे जो अन्याय हुआ, उसका अपराध-बोध मेरी आत्मा पर लम्बे समय तक रहा और संभवतः आज भी है।

सात दिनों के दिल्ली-प्रवास के बाद कानपुर लौटा तो शाही हुलसकर मिले। उन्होंने मुझे बताया कि मेरी अनुपस्थिति में एक बार वह बुज़ुर्ग सज्जन फिर मुझसे मिलने आये थे। उसके बाद उनकी कोई सुन-गुन नहीं मिली। मैं नहीं जानता कि बिटिया के शोक का संवरण उन्होंने कैसे किया और दोषियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई की भी या नहीं। आश्चर्य यह कि उस दुखी आत्मा ने भी कभी स्वयं मुझसे संपर्क नहीं किया। परा-जगत में वह आत्मा और दुनिया की भीड़ में उसके शोकाकुल पिता हमेशा के लिए खो गए।....

(क्रमशः)
[मेरी ही एक मुद्रा, १९७९ का चित्र]

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