सोमवार, 25 जनवरी 2016

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३९)

['स्मृतियों को समर्पित थे वे अश्रु-कण'…]

१६ नवम्बर १९९५। संध्या रात्रि का परिधान पहनने लगी थी। पिताजी कई घण्टों से मौन थे और खुली आँखों से कमरे से आते-जाते, बैठे-बोलते हमलोगों को चुपचाप देख रहे थे--निश्चेष्ट! शारीरिक यंत्रणाओं और अक्षमताओं ने उन्हें अवश कर दिया था। रात के आठ बजे थे, तभी कथा-सम्राट प्रेमचंदजी के कनिष्ठ सुपुत्र अमृत रायजी सपत्नीक पधारे। वे किसी प्रयोजन से पटना आये थे और मित्रों से यह जानकार कि पिताजी सांघातिक रूप से बीमार हैं, उन्हें देखने चले आये थे। अमृतजी पिताजी के सिरहाने कुर्सी पर बैठे और उनकी गृहलक्ष्मी सुधाजी (सुभद्रा कुमारी चौहान की सुपुत्री) पिताजी के पायताने। वे दोनों प्रायः दो घण्टे तक बैठे रहे और हमलोगों से बातें करते रहे। पिताजी पूरे समय मौन ही रहे, बस एक वाक्य मुझसे बोले--'इनको चाय पिलाओ।'

अमृत रायजी पापाजी (मेरे श्वसुर) से और साधनाजी सुधाजी से बातें करती रहीं। मैं बीच-बीच में दोनों के प्रश्नों के उत्तर देता रहा। दो घंटे में पिताजी एकमात्र वाक्य के सिवा कुछ नहीं बोले, चुपचाप आँखें खोले सबकी सुनते रहे। चाय के साथ नमकीन और शाम के वक़्त अभय भैया की लायी मिठाई (प्रसाद) भी उनके सामने रखी गई। मिठाई की प्लेट देखकर अमृतजी बोले--'ये मिठाइयाँ क्यों?'
उनका प्रश्न सहज-स्वाभाविक था। जहां इतना दुःख-दैन्य, रोग-शोक पसरा हो, वहाँ मिष्टान्न कैसे? मैंने उन्हें साधनाजी की नियुक्ति और अपनी विवाह की वर्षगाँठ के बारे में विस्तार से बताया। दो श्वेतवस्त्रधारियों के आगमन और अग्रिम सूचना देने की बात भी उन्हें बतायी। सारी बात सुनकर अमृतजी बहुत चकित नहीं दिखे, मुस्कुराकर बोले--'वे दो श्वेतवस्त्रधारी आपके ही कोई देव-पितर होंगे, जिनकी मुक्तजी पर अगाध प्रीति रही होगी। वे मुक्तजी की कृपा-पात्रता के विश्वासी देव होंगे और उन्होंने मुक्तजी के मुक्त-मन को ही इस पूर्व सूचना का अधिकारी माना होगा। मुक्तजी के मनःलोक में घुमड़नेवाली चिंताओं के निवारण के लिए ही वे अग्रिम सूचना देने आये होंगे। मैंने ऐसे कई देशी-विदेशी किस्से पढ़े हैं और जीवन में ऐसे एक-दो अनुभव मुझे भी प्राप्त हुए हैं। मेरी सलाह है कि आपलोग उन्हें अपना परम हितैषी और आराध्य-देव मानकर नमन करें।'
अमृत रायजी की बात सुनकर मैं विचारमग्न हो उठा--तो क्या वे श्वेतवस्त्रधारी मेरी ही पूर्व पीढ़ी के कोई सिद्ध-शिखर-पुरुष थे? क्या उन्होंने मुझे चालीस दूकानवाली से विलग करने में ही मेरा कोई हित देखा था? तत्काल किसी निश्चय पर पहुँच पाना मेरे लिए कठिन था। मेरे मन में उनकी यह बात घुलती रही और मैं सोचता रहा कि वह स्निग्ध, स्नेही, कोमल मन की चंचला, मेरी हित-चिंता में निमग्न और स्वयं पीड़ित चलीस दुकानवाली आत्मा मेरा कौन-सा अहित करनेवाली थी कि मेरे देव-पितरों ने उसे मुझसे मिलने नहीं दिया ? मेरा मन तो दुविधा में ही पड़ा रहा...!

दो घण्टे बाद अमृतजी जाने लगे तो उन्होंने पिताजी को झुककर प्रणाम किया। पिताजी ने हाथ बढ़ाकर उनके बद्ध हस्त-द्वय को थाम लिया, बोले कुछ नहीं। फिर पिताजी के पायताने से उठते हुए सुधाजी ने उनके चरण छुए और पिताजी के सिरहाने करबद्ध आ खड़ी हुईं। पिताजी ने अपना बायाँ हाथ बढाकर उनके हाथों को थाम लिया और थोड़ी कठिनाई से कहा--'इतना बता दो, तुम वही सुधा हो न?'
सुधाजी बोलीं--'हाँ मामाजी, मैं वही हूँ, सुभद्रा...!' उनकी आवाज़ काँप रही थी और आँखें डबडबा आयी थीं।
पिताजी ने सुधाजी का वाक्य पूरा होने न दिया, बीच में ही बोल पड़े--'बस, बस! और कुछ न कहो। थोड़ा झुको, तुम्हारी पीठ पर थपकी दूँ मैं... ।'
सुधाजी झुकीं और पिताजी ने दायें हाथ से उनकी पीठ पर स्नेह-पूरित थपकियाँ दीं और हमने पूरी बीमारी में पहली बार उन्हें विह्वल होते देखा। उनकी आाँखों से आँसू की दो बूँदें लुढ़ककर बह चलीं। सुधाजी पिताजी के पास से सिसकते हुए हट गयीं।
अवांतर कथा यह थी कि सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहानजी पिताजी की मुँहबोली बहन थीं। उनकी यत्र-तत्र बिखरी हुई कविताओं को एकत्रित करके पिताजी ने ही पहली बार अपनी प्रकाशन-संस्था 'ओझा-बंधु आश्रम', इलाहबाद से 'मुकुल' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित किया था कभी....। इस प्रयत्न में वह कई बार इलाहबाद से जबलपुर गए थे और सुभद्राजी के घर पर ही ठहरे थे। यह उन दिनों की बात है, जब स्वतंत्रता-संग्राम में संलग्न सुभद्राजी के पति, प्रसिद्ध वकील, चौहान साहब जेल में थे और घर की दशा अच्छी नहीं थी। उन्हीं जबलपुर-प्रवासों में पिताजी ने सुधाजी को बालपन में देखा था।.... (इन सारे प्रसंगों को पिताजी ने अपने संस्मरणों की पुस्तक 'अतीतजीवी' में 'मेरी बहन और हिंदी की ऊर्जा : सुभद्रा कुमारी चौहान' शीर्षक के अंतर्गत लिपिबद्ध किया है)... और, अब इतने वर्षों बाद वह पिताजी के सामने एक बुज़ुर्ग महिला के रूप में आ खड़ी हुई थीं। उस दीन-कातर दशा में पिताजी के मन में जाने क्या-क्या उमड़ा-घुमड़ा होगा--कौन जानता है? ये दो बूँद आँसू उन्हीं स्मृतियों का प्रतिफल थे, जो पिताजी के नयन-कोरों से बह चले थे।....

२ दिसंबर, १९९५ की सुबह पिताजी ने पास बुलाकर मुझसे स्पष्ट कहा था--'ये सारी औषधियां बंद कर दो। आज मैं जाऊँगा--ये सारी किताबें छोड़कर आज मैं जाऊँगा !'
और हुआ भी ऐसा ही। प्रायः १६ दिनों की शारीरिक यंत्रणा के बाद पिताजी ने शरीर के साथ ही पीडाओं से भी मुक्ति पायी थी।... उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' ने ठीक ही कहा था--'ई तकलीफ़ो कौन रही!'... न पिताजी रहे, न तकलीफें रहीं!... पिताजी जीवन-मुक्त हुए... !

पिताजी के विछोह की दारुण पीड़ा साल भर तक मुझे और परिवारजनों को सालती रही ! साल-भर बाद जब मन की उद्विग्नता कुछ कम हुई और हृदय में लावा-सा धधकता शोक किंचित शिथिल हुआ, तो कई बार इच्छा हुई कि पिताजी से सम्पर्क साधूँ, बुलाऊँ उन्हें अपने प्लेंचेट के बोर्ड पर और पूछूँ उनसे कि "परालोक में क्या उनकी मुलाक़ात 'दो श्वेतवस्त्रधारियों' हुई कभी? कौन थे वे दोनों? वहाँ उनकी 'इलाहाबादवाली भाभी' भी मिलीं क्या? और, क्या कभी 'चालीस दुकानवाली' नाम की कोई आत्मा तो नहीं मिली उनसे?" मेरी यह जिज्ञासा प्रबल थी, लेकिन प्लेंचेट करके पिताजी को बुलाने में मुझे बड़ा संकोच होता था। इसके दो प्रमुख कारण थे--एक तो पिताजी इस संपर्क-साधन के पक्षधर नहीं थे और इसे दुविधा की दुनिया कहा करते थे, दूसरा यह कि इन प्रयत्नों को छोड़े हुए मुझे प्रायः दस वर्ष हो गए थे। फिर उसी 'दुविधा की दुनिया' में लौटने का मेरा न मन होता था, न साहस। मैं सोचता ही रहा, लेकिन पिताजी से कभी संपर्क साध न सका।
और, दिन पर दिन बीतते गए....!
(क्रमशः)

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