शुक्रवार, 24 जून 2016

पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफर...(२)

शाम ढलान पर थी और मैं भी अंतिम पहाड़ की ढलान पर। दूर, पहाड़ के नीचे समतल मैदान में बसा गाँव माचिस की डिब्बियों का ज़खीरा-सा दीख रहा था मुझे। मैं उत्साह से आगे बढ़ा। ढलान पर उतरते हुए गति अनचाहे बढ़ गयी थी। जल्दी ही मैं बागोड़गाँव की सीमा-रेखा पर पहुँच गया। गाँव में प्रवेश करते ही सुन्दर पहाड़ी बालाओं का एक दल हाथो में लोटा-बाल्टी लिए जाता दिखा। मैं लपककर उनके सामने जा पहुँचा और जिस घर में मुझे जाना था, उसका पता-ठिकाना पूछने लगा। एक अजनबी को सामने देखते ही वे सभी कन्याएँ ठिठक गयी थीं। लज्जा, संकोच और घबराहट के भाव उन सबों के चेहरे पर विद्यमान थे, जिसे लक्ष्य करते हुए मैंने अपना प्रश्न पुनः दुहराया। मेरे मुँह से बोल फूटने भर की देर थी कि पहाड़ी सुंदरियों के दल में अजीब-सी हलचल हुई और वे ठिठियाती हुई एक दिशा में भाग खड़ी हुईं। बस, दो साहसी बालिकाएँ अपनी जगह पर स्थिर खड़ी रहीं, लेकिन उनकी आंखें जमीन में गड़ी जा रही थीं--गहरे।

वे दोनों बालाएँ अपूर्व सुंदरियाँ थीं। एक बार जो मेरी नज़र उन पर पड़ी, तो कुछ क्षणों तक वहीं ठहरी रह गयी। मुझे दुष्यंत-शकुन्तला की याद आयी। महाकवि कालिदास की कल्पना मूर्त्त रूप धारण कर मेरे सामने खड़ी थी--मैं हतप्रभ था। शिष्टता और भद्रता का ख़याल मुझे ज़रा देर से आया। घबराहट में मेरे मुंह से अटकता हुआ गृहस्वामी का नाम पुनः प्रस्फुटित हुआ। मेरे शब्द सुनते ही वे दोनों भी 'खी-खी' करके हँसने लगीं और एक रूपसि ने ज़मीन में धँसे अपने नयन-बाण उठाये और अपनी कोमल अँगुली से एक दिशा में इंगित किया तथा हिरणी की तरह मचलती हुई क्षिप्र गति से उलटे पाँव लौट गयीं। उसकी वह अदा मारक थी। रूप का ऐसा वैभव-विस्तार मैंने पहले कभी न देखा था, न गौर किया था। वह तो बस, 'तिरछी नज़रिया के बाण'-जैसा कुछ था, जो एक क्षण के लिए चपला-सा चमका था। मुझे प्रकृतिस्थ होने में दो क्षण लगे। बहरहाल, जिस दिशा में सुन्दरी बाला ने इशारा किया था, मैं उसी दिशा में बढ़ा और गाँव में प्रविष्ट हुआ।

दो-तीन लोगों से पूछकर मैं उस पाकशास्त्री के मूल पैतृक निवास पर जा पहुँचा। एक अपरिचित शहरी को अपने बीच आया देखकर वहाँ भी आश्चर्यजनक अफरा-तफरी मची, लेकिन यह जानकर कि मैं हिंदुजाजी का प्रतिनिधि हूँ और हरद्वार से आया हूँ, घर के लोगों को तसल्ली हुई। फिर शुरू हुई मेरी आवभगत। चाय-बिस्कुट घर के अंदर से आया। बातें शुरू हुईं।...

गाँव में पत्थर की छोटी-छोटी कंदराओं-से मकानात थे। नन्हे कमरों में हवा-प्रकाश के लिए एक भी खिड़की नहीं थी, बस एक छोटा-सा दरवाज़ा था। जब तक सूरज का बुझता हुआ मद्धम क्षीण प्रकाश बना रहा, मैं दालान में रखी छोटी-सी बेंच पर बैठा रहा। पाकशास्त्री के पिता और बड़े भाई मुझसे बातें करते रहे और उस पाकशास्त्री की रुग्ण पत्नी से सम्बन्धित मेरे प्रश्नों को जान-बूझकर टालते रहे। अंततः मैं हठ पर उतर आया कि इंग्लैंड में कार्यरत उस युवक की पत्नी से मुझे मिलना ही है और अगर वह बीमार है तो उसके इलाज़ की व्यवस्था करनी है--यही हिन्दुजा साहब का आदेश है। युवक के पिता आर्त्त भाव से बोले--"शाब, अब तो वह पूरी तरह ठीक है। बीच में उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गयी थी। अब चंगी हो गयी है शाब, बिलकुल... ठीक !"
मैंने कहा--"तो ठीक है, उसे बुला दीजिये। वह खुद आकर अपने मुँह से कह दे कि वह स्वस्थ है, तो मेरी तसल्ली हो जाएगी। आखिर मैं इसी काम के लिए इतनी दूर से आया हूँ।"
पिता-पुत्र एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। मैंने पूछा--"क्या कोई दिक़्कत है?"
दीन स्वर में पिता बोले--"शाब, मर्यादा का सवाल है। हमारे यहाँ बहुएं घर से बाहर नहीं निकलतीं।"
मैंने सहजता से कहा--"ठीक है, उन्हें घर की चौखट तक ही ले आयें। मुझे तो उनके मुँह से बस यही सुनना है कि वह पूरी तरह स्वस्थ हैं।"

मेरी इस ज़िद को घरवाले जाने क्या समझ रहे थे, लेकिन मैं तो बस अपना दायित्व निभा रहा था। अमूमन, काम-धंधे के लोभ-लाभ में फँसे जो परिजन विदेशों में जा बसते हैं, उन्हें लम्बी छुट्टियों पर स्वदेश बुलाने की यही तरक़ीब होती है। इसमें अनुचित भी कुछ नहीं होता। जिस्मानी तौर पर बीमार होना ही बीमार होना नहीं होता, इसके इतर भी अस्वस्थता हो सकती है, होती है ! युवा पति बरसों-बरस परदेस में हो, तो नव-परिणीता अपनी ससुराल में वियोग के दिन बिताती हुई भला क्या करेगी, कबीर साहेब का यह पद ही तो उसके अन्तर में उमड़ता-गूँजता रहेगा न--
"बालम आओ हमारे गेह रे,
तुम बिन दुखिया देह रे...!"

बहूजी की अस्वस्थता का सम्भवतः यही कारण था। अब पिताजी के पास कोई उपाय शेष नहीं था। उन्होंने अपने सुपुत्र को इशारा किया और सुपुत्र उठकर घर के अंदर चले गए। गए तो गए, देर तक लौटे ही नहीं। अँधेरा हो चला था और दिन के भीषण ताप ने बर्फीली हवाओं की चादर ओढ़ ली थी। तापमान का इतना अंतर मेरे लिए आश्चर्यजनक था। मुझे लगता है, घर के लोगों ने जान-बूझकर अँधेरा हो जाने दिया था। प्रायः घंटे भर बाद एक वृद्धा बाहर आयीं। उनके हाथ में किरासन तेलवाला एक लैंप था, जिसे उन्होंने घर की ड्योढ़ी पर रख दिया और लौट गयीं। दस-एक मिनट के बाद लम्बे घूँघट और आपादमस्तक चादर में लिपटी एक लज्जाकुल स्त्री के साथ वह लौटीं और घर के नन्हें-से द्वार पर पहुँचकर ठहर गयीं। पिताश्री बोले--"लीजिए शाब, बहू आ गयी है। जो पूछना है, पूछ लीजिए।"
मैंने बहूजी से एकमात्र प्रश्न पूछा--"अब आपकी तबीयत कैसी है?"
कुछ पलों तक मौन छाया रहा। फिर बहूजी की बहुत क्षीण आवाज़ मेरे कान में पड़ी--"हम ठीक हैं शाब !"
मेरी समझ में नहीं आया कि और क्या पूछूँ। कुछ पलों की नीरव शान्ति के बाद वृद्धा बहूजी को साथ लेकर लौट गयीं।
 शाम सात बजे तक मैं वहीं बैठा और बातें करता रहा, लेकिन अब ठंढ लगने लगी थी। मैंने उन बुज़ुर्ग से कहा--"दिन तो इतना गर्म था कि मैं पसीने-पसीने हो रहा था और अब जाड़ा लग रहा है।"
वह बोले--"हाँ शाब, पहाड़ों में धूप हो, तो बहुत गर्मी लगती है, लेकिन रातें हमेशा सर्द हो जाती हैं।"

थोड़ी देर बाद मुझे घर के सामने बनी एक ऐसी कोठरी में पहुंचा दिया गया, जिसमें सिर झुकाकर ही खड़ा हुआ जा सकता था, उसे 'कोलकी' कहूँ तो गलत न होगा। उस कोलकी के बाहर एक बाल्टी पानी लोटे के साथ रख दिया गया। मैंने हाथ-मुँह धोया और उस संकीर्ण कक्ष में प्रविष्ट हुआ। वहाँ एक खाट पड़ी थी, जिसपर गद्दा-चादर-दुलाई-कम्बल रखा था। मुझे वहां ऐसा लग रहा था, जैसे बचपन की पढ़ी हुई किसी रहस्यमयी कथा का मैं सचमुच एक पात्र बन गया हूँ। अद्भुत सिहरन-भरी अनुभूति...!

थोड़ी ही देर बाद घर से मेरा भोजन आया। मोटी-मोटी चार रोटियाँ, गहरे हरे रंग की ढेर-सी सब्ज़ी, अँचार ! रोटियाँ इतनी मुलायम कि उँगली रखते ही टूट जाती थीं, लेकिन पहला ग्रास मुँह में डालते ही मेरा ब्रह्माण्ड प्रकम्पित हो उठा ! सब्ज़ी में अत्यधिक मिर्च थी और हरित क्रान्ति मचाती सब्ज़ी का स्वाद भी रुचिकर नहीं लगा। मैंने पूछा--"यह किस चीज़ की सब्ज़ी है ?" पाकशास्त्री के बड़े भाई बोले--"चेंचड़ की है शाब !" मैंने कहा--"इसमें मिर्च बहुत है, मैं इसे खा न सकूँगा। और भई, ये चेंचड़ क्या है?"
भाईजी चिंतित हो उठे, बोले--"न-न, तब तो सब्ज़ी छोड़ दें शाब ! गलती हमीं से हुई, हमें पूछ लेना चहिये था कि आप मिर्ची खाते हैं या नहीं। कोई नहीं, मैं दूध ले आता हूँ, आप उसीसे रोटी खा लें।... चेंचड़ एक पेड़ का फल है शाब !... मैं अभी आया... ।"

इतना कहकर वह चले गए और मैं अपनी थाली से सब्ज़ी का कटोरा अलग रखकर बैठा रहा। थोड़ी ही देर में भाई साहब एक बड़े कटोरे में गर्मागर्म दूध ले आये। मैं उसमें रोटी डालकर खाने लगा तो ज्ञात हुआ कि दूध बकरी का है और उसमें शक्कर की जगह गुड़ डाला गया है। मैंने उन्हें और परेशानी में डालना उचित न समझा। चार दमदार रोटियों में से एक रोटी मैंने सब्ज़ी के कटोरे पर रख दी और तीनों रोटियाँ बकरी के दूध के साथ खा गया। पहले तो बकरी के दूध की गंध से थोड़ी परेशानी हुई, लेकिन खाते-खाते गंध-स्वाद सह्य हो गया। इतनी मशक्कत के बाद बहुत भूख भी लग आयी थी और सच्ची भूख रुचि-अरुचि का भेद नहीं जानती ! जब तक मैं भोजन करता रहा, बड़े भाई पहाड़ों की परेशानी का उल्लेख करते रहे कि पहाड़ की तराई से पानी भरकर लाना पड़ता है, हाट-बाज़ार लिए लम्बी यात्राएँ करनी पड़ती है, गाँव के आसपास तो कुछ मिलता नहीं, वगैरह...!

दो दुलाइयां ओढ़कर मैं गहरी नींद सोया, लेकिन आधी रात के बाद शीत के प्रकोप से शरीर काँपने लगा और नींद टूट गयी। पायताने पड़े कम्बल को मैंने दुलाइयों पर डाल लिया और सोने का यत्न करने लगा। वह भीषण ठंढ की अकल्पित रात थी, काँपते-सोते बीती। सुबह-सुबह दो-तीन किशोर मेरी सेवा में सन्नद्ध हुए। वे मुझे अपने साथ गाँव के एक छोर पर ले गए, जहाँ से सीधी ढलान पर कई पगडंडियों के धूमिल निशान दीख रहे थे और नीचे तलहटी में बहती नदी एक सफ़ेद डोर-सी दीखती थी। सर्वत्र हरीतिमा, जैसे धरती ने हरी चादर ओढ़ ली हो ! सुबह की सैर से लौटते हुए उन किशोरों ने मेरी जिज्ञासा पर चेंचड़ का एक पेड़ भी मुझे दिखाया था, जिससे लटक रहा था ककड़ीनुमां लंबवत असंख्य चेंचड़ !...

मैं सुबह-सबेरे हरद्वार लौट जाने के लिए 'कोलकी' से तैयार होकर निकला। वृद्ध पिता के पास बैठकर मैंने एक कप चाय पी, थोड़ी बातें कीं, फिर चलने को उठ खड़ा हुआ। वृद्ध पिता और बड़े भाई हाथ जोड़े खड़े थे, उनके नेत्र सजल थे। वृद्ध कहने लगे--"हम आपकी कोई सेवा नहीं कर सके शाब ! यहाँ आपके लायक कुछ है भी तो नहीं।" मैं उन्हें क्या बताता कि यहाँ जो अनुभव अद्वितीय मुझे मिला है, वह भला और कहाँ मिलता मुझे !...

मैंने उनकी सहृदयता, सज्जनता और आत्मीयता के लिए आभार व्यक्त किया और कुछ हजार रुपये उनकी हथेली पर रखे, तो वह विह्वल हो उठे। अपने प्रवासी पुत्र के लिए उनकी आँखें बरसने लगीं। बड़े भाई बोले--"बच्चे आपको उस पहाड़ की चोटी तक छोड़ आयेंगे शाब!"
मैंने कहा--'इसकी क्या आवश्यकता है, मैं रास्ता देख आया हूँ, चला जाऊँगा। बच्चे नाहक परेशान होंगे।"
उन्होंने कहा--"शाब, कोई परेशानी की बात नहीं, ये तो दिन-भर में तीन-तीन चक्कर लगा आते हैं वहाँ के। आपको छोड आयेंगे और आगे का रास्ता भी बता देंगे।"

नमस्कार-प्रणाम के बाद मैं उन किशोरों के साथ चल पड़ा। गाँव छोड़ते हुए उसका सम्मोहन मुझे रोक रहा था। गाँव की सीमा तक और पहले पहाड़ की पाद-भूमि तक पहुंचते हुए मेरी आँखें जाने किसे खोज रही थीं। मन सोच रहा था--काश, एक बार फिर कहीं दीख जाती वह चपला...! लेकिन वह कहीं नहीं दिखी, उसे तो बस एक ही बार मेरे मनोमय जगत को प्रोद्भासित करना था।...

किशोरों का दल पहले पहाड़ के शीर्ष तक मेरे साथ रहा। उस पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते हुए वे बच्चे मार्ग के बिलकुल किनारे की ढलान पर अपने संतुलन और अपनी निडरता के करतब दिखाने लगे। मैंने वर्जना दी, तो बोले--"डरनेवाले गिरते हैं। ये पहाड़ तो हमारी माँ-जैसा है, अपनी गोदी से गिरने देगा क्या, शाबजी ?" उसकी बात में वज़न तो था, फिर भी मुझे डर लग रहा था और मुझे भय-भीरु देख बच्चे उन्मुक्त हँसी हँस रहे थे। शीर्ष पर पहुँचकर बच्चों ने मुझे अगला पहाड़ दिखाया और उसका नियत सुरक्षित मार्ग समझाया, सतर्कता से आगे बढ़ने की सलाह दी और लौट जाने को तत्पर हुए, तभी उनमें से एक बालक, जो थोड़ा चंचल-शोख़ था, मुझसे बोला--"फिर कब आओगे शाबजी...?" मैं मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया, लेकिन उसकी आवाज़ देर तक मेरा पीछा करती रही...!
(समाप्त)

गुरुवार, 23 जून 2016

पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफर...

तब हिन्दुजा बंधुओं की सेवा में था। सन १९७९ के अंत में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली के सम्पादकीय विभाग की नौकरी छोड़कर मैं ज्वालापुर (हरद्वार) में अशोका प्लाईवुड ट्रेडिंग कंपनी में एडमिनिस्ट्रेटर के पद पर बहाल हुआ था। पांच-छह महीने ही हुए थे कि मुंबई के प्रधान कार्यालय से मुझे एक हरकुलियन टास्क मिला। और वह आदेश भी श्रीचंद पी. हिंदुजाजी का था, जिसकी अवमानना नहीं की जा सकती थी।

बात दरअसल यह थी कि इंग्लैंड में हिंदुजाजी का एक गढ़वाली पाकशास्त्री था। वह कई वर्षों से विदेश में, उन्हीं की सेवा में, तत्पर था और गाँव पर उसकी पत्नी बहुत बीमार थी। इसीसे वह बार-बार छुट्टी की अर्ज़ी दे रहा था और स्वदेश आकर रुग्ण पत्नी की चिकित्सा करवाना चाहता था। हिंदुजाजी के लिए यह असुविधाजनक था। उनका मुझे स्पष्ट आदेश था कि मैं स्वयं उस कुक के गांव-घर चला जाऊँ। उसकी सहधर्मिणी अगर बहुत बीमार हो तो किसी परिजन के साथ उसे हरद्वार ले आऊं और किसी अस्पताल में उसके इलाज़ की व्यवस्था करवा दूँ। पाकशास्त्री के गाँव-घर का पता-ठिकाना उन्होंने मुझे भेज दिया था। अविलम्ब कार्रवाई वांछित थी। लेकिन जो पता मुझे मिला था, उसे आसानी से समझ पाना कठिन था। बहुत अनुसंधान से ज्ञात हुआ कि हरद्वार से कोटद्वार, कोटद्वार से दुगड्डा, दुगड्डा से भिर्गुखालपाथीमाला और भिर्गुखालपाथीमाला से पहाड़ों की लम्बी पदयात्रा करके बागोड़गाँव पहुँचना था मुझे। इस अनुसंधान के बाद यात्रा-पथ निश्चित हुआ।

दूसरे ही दिन, रात की गाड़ी (ट्रेन) से मैंने कोटद्वार के लिए प्रस्थान किया। सुबह-सबेरे कोटद्वार पहुँचा। वहाँ से बस लेकर दुगड्डा पहुँचा। दुगड्डा पहुंचकर गाड़ी बदलनी थी। पहाड़ों पर जानेवाली गाड़ियां अपेक्षाकृत छोटे आकार-प्रकार की और कम सवारियाँ ढोनेवाली होती हैं। ऐसे ही एक छोटे वाहन पर मैं सवार हुआ और चल पडा भिर्गुखालपाथीमाला की ओर ! पहाड़ों की यात्रा का वह मेरा पहला और रोमांचक अनुभव था। हमारी छोटी-सी लॉरी उत्तुंग शिखरों को अपने सर्पिल पाश में बाँधती ऊँचाइयाँ चढ़ती जा रही थी और मैं भय-जड़ित पखेरू-सा यात्रा कर रहा था। पतली सड़क के एक ओर ऊँचे पहाड़ों और दूसरी ओर गहरी खाइयों पर दृष्टिपात करते हुए भी भय होता था। लेकिन प्रकृति की उद्दाम सुंदरता को निहारने का लोभ भी प्रबल था--मैं अधखुली आँखों से कभी दायीं ओर देखता, तो कभी बायीं ओर। प्रकृति-नटी रूपसि-सी नज़र आती थी सर्वत्र, और मैं मन्त्रमुग्ध हुआ जाता था। मन में एक कविता उपजने लगी, लेकिन उछलती-मचलती लॉरी में उसे लिख पाना आसान नहीं था। कविता की पंक्तियाँ मन में सँजोता मैं आगे बढ़ता रहा।

दोपहर दो बजे भिर्गुखालपाथीमाला पहुँचा। अगला चरण पद-यात्रा का था। भिर्गुखालपाथीमाला में उल्लेखनीय कुछ भी नहीं था। बस, सड़क के दोनों किनारों पर बहुत छोटी-छोटी पत्थरों से बनी दुकानें थीं, जिनमें प्रवेश करते हुए नत-मस्तक होना पड़ता था। दिन चढ़ आया था, भूख लग रही थी, सोचा कुछ खा लूँ, फिर पद-यात्रा शुरू करूँ। मैं अपने झोले में ब्रेड-बटर और बिस्कुट घर से लेकर चला था। सामने की लघ्वाकार एक दूकान में सिर झुकाकर प्रविष्ट हुआ। दुकानदार भाई सेवा को तत्पर मिले...! पूछने लगे--"क्या चाहिए शाब? कहाँ जाना है...?"

मैंने उन्हें बताया कि ब्रेड मेरे पास है, खा लूँगा तो एक कप चाय चाहिए होगी। लेकिन दुकानदार भाई तो मुझ ग्राहक की आवभगत 'अतिथि देवो भव' की भावना से कर रहे थे, बोले--"हाँ शाब, आप ब्रेड खा लो, मैं चाय बनाता हूँ !" मैंने अपने बुद्धिजीवी झोले से ब्रेड निकली, तो पाया कि उससे दुर्गन्ध आ रही है। मैंने दुकानदार भाई से कहा--"भाई, ब्रेड तो खराब हो गयी है! मैं दो-चार बिस्कुट ही खा लेता हूँ, आप चाय बना दें !"
दुकानदारजी तो व्यग्र हो उठे। कहने लगे--"ऐशा कैशे चलेगा शाब? नहीं-नहीं, खड़ी चढ़ाई है, मिहनत का लम्बा राश्ता है, पेट भरे बिना कटेगा नई ! मेरी रसोई तैयार है, आज आपके लिए ही शायद कुछ ज़्यादा बन गयी लगती है।" मेरी लाख मनाही के बाद भी उन्होंने एक थाली में कोदो का हलुवेनुमा भात और पीली कढ़ी-सा कोई तरल पदार्थ परस दिया। उसे प्रेम का प्रसाद समझ मैंने खाना शुरू किया तो पांच-सात मिनट में थाली साफ़ कर दी, जबकि वह खाद्य पदार्थ अप्रिय-दर्शन लगा था मुझे..! वह इसरार करके थोड़ा और लेने की ज़िद पर उतरे तो मैंने मना कर दिया। तृप्त हो चुका था मैं...! मैं अपनी थाली धोने चला, तो उन्होंने झपटकर थाली मुझसे ले ली और कहा--"इतनी सेवा का मौका हमें भी दो शाब !"

पाँच मिनट में ही भाई ने भर-गिलास चाय मेरे सामने रख दी। चाय अभी समाप्त भी नहीं हुई थी कि दुकानदार भाई झपटते हुए अपनी दूकान से बाहर निकले और अपनी पहाड़ी भाषा में चिल्लाकर किसी खच्चरवाले से बातें करने लगे। मैं भी चाय का गिलास लिए उनके पीछे गया ! दूर, पहाड़ की पथरीली राह पर एक खच्चरवाला ठहरा हुआ था और दुकानदार भाई के प्रश्नों के उत्तर उच्च स्वर में दे रहा था। मैंने अनुमानतः जान लिया कि दुकानदार भाई मेरी ही हितचिन्ता में लगे हुए हैं। अपनी वार्ता समाप्त करके दुकानदार भाई मुझसे मुख़ातिब हुए, कहने लगे--"शाब, इसके साथ चले जाओ। यह बागोड़गाँव के आधे रास्ते तक आपके साथ जाएगा, फिर किसी और के साथ आपको लगा देगा, मैंने कह दिया है।"
मैंने अपना झोला उठाया, भोजन और चाय का पैसा देने लगा तो दुकानदार भाई हाय-तौबा करने लगे ! बहुत आरज़ू-मिन्नत के बाद उन्होंने चाय की अठन्नी लेना स्वीकार किया ! भोजन के नाम पर एक पैसा भी पकड़ना उन्हें अपमानजनक लग रहा था। मैंने बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया और नमस्कारोपरांत विदा हुआ।

अब खच्चरवाले भाई का साथ था और लम्बा पथरीला, खड़ी चढ़ाई का रास्ता ! पहाड़ों की धूप बहुत प्रखर होती है, शरीर को दग्ध करती लगती है। बहरहाल, मैं खच्चरवाले बन्धु के साथ चल पड़ा। अभी दो फर्लांग ही बढ़ा था कि पसीने-पसीने हो गया और मेरी श्वास-गति भी तेज हो गयी। खच्चरवाले के हाथ में एक छाता था, उसे मुझे देते हुए वह बोला--"छाता ले लो शाब, आपको दूर तक जाना है !"
मैंने संकोच करते हुए कहा--"लेकिन आप...?
उसने कहा--'हमें तो रोज़ की आदत है, हम छाते के बिना भी चल लेंगे।"

अपना छाता उसने बलात मुझे पकड़ा दिया। छाते की छाया में दुश्वारियाँ कम हो गयीं। हम दोनों थोड़ी-थोड़ी बातें करते आगे बढ़े। लम्बी दूरी तय करके हम एक पहाड़ के शीर्ष पर पहुँचे, जहाँ थोड़ी समतल भूमि थी, शिवजी का छोटा-सा मंदिर था और एक बड़े घड़े में शीतल पेय-जल रखा था। उस सुस्वादु-मीठे जल को पीकर सूखे कंठ को बड़ी राहत, बहुत तृप्ति मिली। मंदिर में मत्था टेककर हम फिर आगे बढ़े। हम एक पहाड़ लाँघ चुके थे, अब दूसरे पहाड़ की चढ़ाई पर थे। दूसरे पहाड़ के शीर्ष पर पहुंचने के थोड़ा पहले ही एक दोराहे पर पहुँचकर खच्चरवाला ठहर गया। नीचे जाते एक रास्ते ही ओर इशारा करते हुए मुझसे बोला--"शाब, मुझे वहाँ, उस गाँव जाना है। कोई संगी-साथी तो दिखता नईं, आप ये रास्ता पकड़ लो शाब ! बीच-बीच में आपको खच्चरवाला रास्ता भी मिलेगा, उस पर मत मुड़ जाना ! यही चौड़ा रास्ता पकड़कर चलते चले जाना। वो जो अगला पहाड़ दिखता न, उसके परली पार जब आप उतरोगे तो दूर से ही दिखने लगेगा बागोड़गाँव। बस, रास्ता भटकना मत शाब, उसमें खतरा है।"

मैंने खच्चरवाले भाई को उसकी छतरी लौटा दी, आभार व्यक्त किया और उसकी बताई राह पर चल पड़ा--तनहा...! धूप की तीक्ष्णता कम हो गयी थी, रास्ता तय करना सहल था। देखने से भी लगता था कि अगला पहाड़ तो बस बगल में खड़ा है, शीघ्र उसके पार पहुँच जाऊँगा। लेकिन जितना नज़दीक वह दीखता था, उतना समीप वह था नहीं। लम्बी मशक़्क़त की दूरी थी वह। मैं खच्चरों की राह से बचता हुआ आदमी की राह पर चलता रहा ! अब मैं था, मेरा झोला था, मेरी सिगरेट थी और जनशून्य मार्ग था। पथरीली पगडण्डी पर धुआँ उड़ाता और मुकेशजी का एक गीत 'सुहाना सफर और ये मौसम हँसी' गाता, मैं चल पड़ा।...

अपनी ही धुन और मस्ती में जाने कब मुझे विभ्रम हुआ और मैं मार्ग से भटक गया। मनुष्य-मार्ग मुझसे पीछे कहीं छूट गया था और मैं खच्चरों की राह पर, पता ही नहीं कब, आगे बढ़ आया था ! पीछे लौटना भी मुहाल था। समझ में आने लगा कि खच्चरों की राह अधिक ऊबड़-खाबड़ है, लेकिन अब कोई उपाय नहीं था। मैं सावधानी से आगे बढ़ता रहा। राह कठिन थी। पगडण्डी के दोनों ओर जंगल-झाड़ थे, सनसनाती हवाएँ थीं, मनोरम दृश्य था, लेकिन मन के किसी कोने में दुबका हुआ भय भी बैठा था कि कहीं कोई हिंस पशु अचानक सामने आ खड़ा हुआ तो ? क्या करूँगा मैं? माचिस की तीलियों के सिवा मेरे पास कुछ नहीं था।

सूर्य निष्प्रभ हो चला था। वह अस्त हो और अंधकार छाने लगे, इसके पहले गंतव्य पर पहुँचना जरूरी था। मैंने क्षिप्रता से चलना शुरू किया ही था कि एक तीखे मोड़ पर पाँव में ठोकर लगी और मैं संतुलित न रह सका। रामधड़ाका गिरा और ढालुवीं पथरीली ज़मीन पर फिसलने लगा। फिसलने की गति प्रतिक्षण बढ़ रही थी और मन-प्राण आतंकित हो उठा था। तभी प्रभु-कृपा हुई--तेजी से फिसलते हुए मेरे हाथों ने एक मुट्ठी जङ्गली घास को कसकर थाम लिया। गति को विराम लगा, लेकिन जंगली घास को पकड़कर अधर में झूलते हुए मैंने सिर घुमाकर जैसे ही नीचे देखा, प्राण कंठ में आ फँसे। नीचे कई सौ फ़ीट की गहरी खाई थी और मैं घास पकड़े दोलक-सा झूल रहा था। एक क्षण का और विलम्ब हुआ होता, तो मैं न जाने कहाँ होता ! बाबूजी, बहन-भाई याद आये, मायके गयी हुई पत्नी याद आईं, जो उम्मीद से थीं--ओह, आनेवाली प्रथम संतान जान भी न सकेगी कि मेरे पिता किन परिस्थितियों में काल का ग्रास बन गए...! पिता-भाई मुझे खोजते-तलाशते इन पहाड़ों की ख़ाक छानते फिरेंगे... उफ़, यह सब क्षण-भर में चक्रवात-सा मस्तिष्क में घूम गया। धमनियों का रक्त-प्रवाह रुकता और साँस ठहरी-ठहरी-सी लगने लगी। दुश्चिंताओं का अंत नहीं था, तभी लगा, किसी ने ललकारा मुझे--'अनित्य चिंतन छोड़, हिम्मत कर, ऊपर आ !'
घास की जड़ें मज़बूत थीं। उन्हें पोर-पोर पकड़कर मैं ऊपर आया, स्थिर हुआ। मैंने देखा जंगली-कटीली घास ने मेरी हथेलियों पर खरोंच के कई लंबवत रक्ताभ निशान छोड़ दिए हैं। मैंने अपनी हथेलियाँ मिट्टी में रगडीं और तब खच्चर के रास्ते पर उल्टा लौटा। दोमुँहे पर आकर मैंने दुबारा मनुष्य की राह ली। मनुष्य हूँ, तो मनुष्यता की राह चलना ही मैंने श्रेयस्कर जाना।...

(अगली कड़ी में समापन)