शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

परदों के पीछे का सफर..

[भ्रमण-कथा]

सफ़र लंबा था, तकरीबन ३०-३१ घण्टों का। शाम चार बजे पूना से ट्रेन से मैंने प्रस्थान किया था। वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी के डब्बे में किनारे की निचली बर्थ थी मेरी। मेरे सिर पर जो बर्थ थी, उसपर पूना से ही आये थे सत्तर वर्षीय एक वृद्ध दक्षिण भारतीय सज्जन। वह तमिलभाषी थे, लेकिन लगभग आधी सदी उन्होंने पूना में व्यतीत की थी और इसीसे टूटी-फूटी हिंदी बोल-समझ लेते थे। रात के भोजन के बाद लगभग ९ बजे वह अपनी बर्थ पर चले गए। तबतक जितनी बातें हो सकती थीं, हम दोनों ने कीं। उन्हें कोयम्बतूर जाना था और मुझे उससे भी आगे--'अलुवा' तक।

भारतीय रेल की वातानुकूलित श्रेणियाँ भी अब सहयात्रियों से असम्बद्ध रहकर यात्रा की श्रेणियाँ बन गयी हैं, उस पर भी यदि वातानुकूलन की द्वितीय श्रेणी हो, तो फिर क्या कहने ! हर क्यूबिक के परदे बंद। किनारे की सीट पर बैठा यात्री देख भी नहीं सकता कि सामने की बर्थ के चार मुसाफ़िर क्या खा-पी रहे हैं, कैसा प्रमोद-परिहास या आनन्द-लाभ कर रहे हैं ! मेरी ऊपरवाली बर्थ के दक्षिण भारतीय बुज़ुर्ग भी जो एक बार अपनी सीट पर गए, तो ऊपर ही रह गए। पर्दा-बंद कोलकी में ऐसे दुबके कि दूसरे दिन शाम के वक़्त कोयम्बतूर पहुँचने के थोड़ा पहले ही प्रकट हुए और मुझसे हाथ मिलकर उन्होंने अपनी यात्रा संपन्न कर ली।

खैर, यह तो पूरी रात और सारा दिन बीत जाने के बाद की बात है। दिन कैसा बीता, यह न पूछिये ! सुबह जब आँख खुली तो हमारी ट्रेन महाराष्ट्र की सीमा-रेखा लांघ गयी थी। जीवन-भर उत्तर भारत में रेल की यात्रा करनेवाला मैं तो बुरा फँसा इस बार। बॉगी में अपरिचित शान्ति थी, सर्वत्र स्वच्छता थी और आगन्तुकों की विशेष हलचल भी नहीं ! कोई ऐसा नया मुसाफिर भी नहीं, जो कहे कि 'जरा सरकिये', 'बैठने तो दीजिये', 'रिजर्भेसन करा लिए हैं तो का ट्रेने खरीद लिए हैं ?' न फर्श पर केले के छिलके, न चिनियाबादाम के; न पानी की खाली बोतलें डगरती हुई, न चाय के जूठे कागज़ी कप बिखरे हुए। यात्रियों के बीच न राजनीति पर लंबी-चौड़ी बयानबाज़ी, न कोई बहस-मुबाहिसा। अजीब साफ़-सुथरी-शांत यात्रा थी और वह निर्विघ्न सम्पन्न हो रही थी।

थोड़ी हलचल तभी होती, जब कोई स्टेशन आता--उतरनेवाले यात्री शान्ति से उतर जाते, नए यात्री थोड़ी मर्मर ध्वनि के साथ प्रवेश करते और ट्रेन के पुनः चल पड़ने के पहले ही यथास्थान स्थिर हो जाते। कभी-कभी पेंट्री के फेरीवाले आवाज़ें लगाते निकल जाते। रेल-यात्रा में इतनी शान्ति का मुझे अभ्यास नहीं था, चाहता था, किसी से बातें हों, कोई प्यारा-सा बच्चा मुझे अपनी ओर आकर्षित करे, किसी भद्र परिवार से थोड़ी निकटता बने! थोड़ा नयन-सुख तो मिले कहीं! लेकिन, खिंचे पर्दों के पीछे दृष्टि पहुँचे तो कैसे? वह तो ग़नीमत हुई, घर से एक वृहद् पुस्तक लेकर चला था--"कठिन प्रस्तर में अगिन सुराख़"। पुस्तक अज्ञेय के व्यक्तित्व-कृतित्व का मूल्यांकन करती हुई आलोचनात्मक कृति थी, जिसके संस्मरण-खण्ड (परिशिष्ट) में मेरा अज्ञेयजी पर एक सुदीर्घ संस्मरणात्मक आलेख भी प्रकाशित हुआ था। मैं सारे दिन इसी पुस्तक में डूबा रहा और शाम होने पर ही उससे विमुख हुआ।

गाड़ी समय से दौड़ रही थी। मेरी समस्या यह थी कि पान की पीक फेंकने के लिए मुझे बार-बार बेसिन पर जाना पड़ता था, लिहाज़ा अपनी बर्थ के दो परदों में से एक पल्ले को मैंने खोल रखा था। वे क्या ही अच्छे दिन थे, जब स्लीपर क्लास में सफ़र करता था। ट्रेन में भीड़-भाड़ तो मिलती, लेकिन पीक फेंकने के लिए बार-बार सीट से उठना नहीं पड़ता था। खिड़की से अपनी चोंच बाहर निकली और दे मारी पीक हवा में। तेज हवा में लहराती पीक सहस्रांशों में बिखरकर पिछली कई बोगियों की चूनर धानी कर जाती। सहयात्री आपस में खूब बातें करते और थोड़ी निकटता होते ही अपने भोज्य-पदार्थों को मिल-बाँटकर खाते। कोई मासूम-प्यारा-सा बच्चा आपको देखकर आँखें चमकाता और आपके हाथ के बिस्कुट को हसरत से देखता। कोई सुघड़-सुन्दर बाला चोर नज़रों से आपको देखती और आँखें चुराती। बॉगी में कहीं विवाद होता, तो कहीं हँसी के सोते फूटते। सभी उसका लुत्फ़ उठाते। सहयात्री एक परिवार के सदस्य बनकर सफर करते। आधुनिकता की इस बदलती बयार ने सुख के वे दिन हमसे छीन लिए हैं।

ट्रेन जब कोयम्बतूर से आगे बढ़ी और त्रिषूर पहुँचनेवाली थी, तो मैं मुँह खाली करने के लिए फिर बेसिन पर गया। बॉगी के दरवाज़े पर देखा कि एक बुज़ुर्ग दम्पति के बीच में साँवली-सलोनी, लंबी-छरहरी, जीन्स पैंट और गंजीधारी एक कन्या मय-सरोसामान खड़ी है। मुझे लगा, माता-पिता-पुत्री का यह परिवार यहीं उतरनेवाला है। मुख-प्रक्षालन के बाद मैंने सहज जिज्ञासा से पूछा--"कौन-सा स्टेशन आनेवाला है ?" प्रश्न तीनों यात्रियों के बीच रखा था मैंने, किन्हीं विशेष को संबोधित करके नहीं, लेकिन उत्तर दिया उस तन्वंगी ने, जो स्थिर दृष्टि से मुझे ही देख रही थी--'त्रिषूर'! यह उत्तर पाकर मैं अपनी जगह पर लौट आया, लेकिन एक सवाल मन में कौंध रहा था कि वह कन्या मुझे क्यों ऐसी प्रगाढ़ दृष्टि से देख रही थी भला? त्रिषूर आया, गाड़ी रुकी, फिर चल पड़ी।

त्रिषूर के बाद सिर्फ़ ५५ किलोमीटर की यात्रा शेष थी। मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। अलुवा पहुँचने में जब १०-१५ मिनट शेष थे, मैंने भी अपना बैग-झोला समेटा-उठाया और बढ़ चला दरवाज़े की ओर। द्वार पर पहुँचकर मैंने देखा, वही कन्या वहाँ खड़ी है--अकेली। अपने बाएं हाथ से उसने दरवाज़े का हैंडिल-रॉड थाम रखा था और दाएँ हाथ में अपने मोबाइल को कान से लगाए बेफ़िक्री से बातें कर रही है--फर्राटे से, अंग्रेजी में! उसे वहाँ देखकर मुझे हैरत हुई और मुझे देखकर उसकी आंखों में भी अनजाना अचरज तैर गया। लेकिन वह फ़ोन पर बातें कर रही थी, मैं कुछ कह न सका। और वह थी कि फ़ोन पर बातें तो कर रही थी, लेकिन वैसी ही गहरी नज़रों से मुझे देखे जा रही थी--निर्निमेष !

जल्दी ही उसने अपनी फोन-वार्ता बंद की और मेरी तरफ मुखातिब हुई; लेकिन उसके कुछ कहने के पहले मैंने ही प्रश्न किया--"आप त्रिषूर पर उतरीं नहीं?"
उसने कहा--"नहीं, मुझे अलुवा पर उतरना है।"
मैंने कहा--"और वे लोग जो आपके साथ थे ?"
--"वे उतर गए, मेरी बगल की बर्थ पर थे, मैं उन्हें 'हेल्प' और 'सी-ऑफ़' कर रही थी।"

अब गन्तव्य पर पहुँचने में केवल ८-१० मिनट बचे थे, इन्हीं क्षणों में हमने थोड़ी-सी बातें कीं, जिससे मुझे पता चला कि वह अलुवा की ही रहनेवाली पितृहीना कन्या है, मुम्बई की किसी फ़र्म में काम करती है और घर लौट रही है। घर पर उसकी माँ हैं और बड़े भाई-भाभी। उसने भी पूछकर मुझसे जान लिया कि मैं पुणे से अलुवा अपनी बेटी-दामाद के पास जा रहा हूँ। चलती ट्रेन से ही थोड़ा आगे झुकते हुए उसने मुझे एर्नाकुलम का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा दिखाया, जो प्रकाश से जगमगा रहा था। अड्डे की ओर इंगित करते हुए वह दरवाज़े के बहुत किनारे जा खड़ी हुई थी और उससे बाहर झुक गयी थी। मैंने सचेत करते हुए थोड़े आदेशात्मक स्वर में कहा--"देखिये, इतना किनारे मत जाइये, एक क़दम पीछे ही रहिये। इतनी सावधानी जरूरी है।"

उसने उन्हीं स्थिर नज़रों से मुझे फिर देखा और एक कदम पीछे आ खड़ी हुई। पांच मिनट ही बीते होंगे कि ट्रेन अलुवा के प्लेटफॉर्म पर रेंगती हुई आ पहुँची। इन पाँच मिनटों में भी वह बार-बार मेरी ओर देखती और नज़रें फेरती रही। गाड़ी रुकी, तो पहले वही उतरी, फिर मैं। मेरे हाथ का बैग लेने को उसने हाथ बढ़ाया, मेरे नकार की अनदेखी करके उसने बैग मेरे हाथ से ले ही लिया। अब विदा का क्षण था, तभी अप्रयाशित घटित हुआ।

अपने कदम आगे बढ़ाते ही वह ठिठकी और अँगरेज़ी में मुझसे बोली--"मे आई टच योर फ़ीट अंकल?" और, इतना कहते ही वह मेरे पाँव की ओर झुकी। मैं 'बस-बस' कहता ही रह गया और उसने बाक़ायदा झुककर मेरे चरण छुए, उठकर खड़ी हुई और बोली--"अंकल, यू आर ऑलमोस्ट लुकिंग लाइक माई फ़ादर ! वह होते, तो वे भी इसी तरह मुझे दरवाज़े से पीछे खड़े होने को कहते।"

मैंने देखा, इतना कहते-कहते उसकी आँखों के आकाश में नमी तैर गयी थी। वह अचानक पलटी और 'बाय' कहती हुई तेज़ी से चल पड़ी। मैं हतप्रभ-हतवाक, जड़ बना उसे देखता ही रह गया। तभी देखा, मेरी ज्येष्ठ कन्या अपने बेटे के साथ मेरी तरफ आ रही है तेज़ कदमों से। एक बेटी मुझे पिता-सदृश बताकर जा रही थी और दूसरी बेटी मेरी ओर चली आ रही थी। दोनों एक-दूसरे के बिलकुल अगल-बगल से गुज़रती हुई भिन्न दिशाओं में बढ़ चली थीं। नियति की इस प्रवंचना ने मुझे उस क्षण विचलित और स्तंभित कर दिया था....!
कालिदास गुप्ता रज़ा साहब के एक शेर की अर्द्धाली याद आयी--
'मंज़िल पे अलग हुए, तो मुसाफ़िर का पता चला।'

मैं सोचता रहा, काश, ट्रेन की बोगी के हर क्यूबिक में परदे खिंचे न होते और वह बिटिया मुझे यात्रारम्भ में ही मिली होती तो पूरा सफ़र इतना एकाकी और नीरस न होता।....शयन के लिए शय्या पर गया तो ये ख़याल मन में उबलता ही रहा कि जाने कौन-कौन, कितने पास-पास, दूर-दूर, सम्मुख या परदे के पीछे सफर कर रहा है ? संभव यह भी है कि हम सभी पर्दों के पीछे ही पूरी कर रहे हों अपनी-अपनी यात्राएँ... !

[चित्र : गूगल सर्च से साभार, लेकिन इस तलाश में ट्रेन की बोगी के द्वार पर खड़ी एक भी दक्षिण भारतीय कन्या नहीं मिली.]

1 टिप्पणी:

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…


कहाँ गये मेरे ब्लॉगर मित्रो? आजकल कोई कुछ पढता क्यों नहीं ?