सोमवार, 7 नवंबर 2016

अन्तरात्मा की अदालत में...

पटना महाविद्यालय के वाणिज्य विभाग (तब तक वह अलग से वाणिज्य महाविद्यालय घोषित नहीं हुआ था) में पहुँचा तो वहाँ भी मित्रता हिंदी से ही रही, वाणिज्य के सभी विषय अनजाने और दुरूह थे। मैं उनसे दोस्ती करने का परिश्रम करने लगा। प्री.कॉम. तथा स्नातक वाणिज्य का प्रथम वर्ष (बी.कॉम, पार्ट-I) शांति से व्यतीत हुआ, परीक्षाओं में अंक भी संतोषजनक मिले और मैंने द्वितीय वर्ष में प्रवेश किया। इसी सत्र में तीसरी अदावत की अनपेक्षित कथा लिखी गयी। लगता है, ये अदावतें मेरे भाग्य में लिखी थीं।

महाविद्यालय के प्रारंभिक दो वर्षो में हमारे हिंदी के शिक्षक थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कुमार विमल। उनकी मुझ पर बड़ी कृपा थी। पूरी कक्षा में मुझे उनसे सर्वाधिक अंक मिलते थे। वह ऐसी साफ़ ज़बान बोलते कि उन्हें सुनकर तबीयत खुश हो जाती। विषय का ऐसा पुंखानुपुंख प्रतिपादन-विश्लेषण करते कि पाठ सहज बनकर स्पष्ट हो जाता। उनके सम्भाषण से ही उनके वैदुष्य का ज्ञान हो जाता था। किन्तु वाणिज्य के अधिकांश विद्यार्थी हिंदी की कक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते थे और उनकी इस विषय में रुचि भी कम थी। इसीसे हिंदी की कक्षाओं में उपस्थिति भी कम होती थी। साल-दर-साल कई-कई पीढ़ियों को पढ़ाते हुए हिदी-शिक्षक भी इस वास्तविकता से परिचित थे। ऐसा उनके वक्तव्यों से परिलक्षित होता था।

बी.कॉम, पार्ट-II में जाने किन कारणों से छात्रों को हिंदी पढ़ाने श्रीजयमंगल प्रसाद पधारे। गौर वर्ण और पुष्ट देह-यष्टि के क़द्दावर गुरुदेव थे--उन्नत ललाट, खड़ी नासिकावाले सुदर्शन और भद्र महानुभाव--कुरता-धोती-बंडी में शोभायमान ! विद्वान् व्यक्ति थे, अपने विषय के मर्मज्ञ! उनकी भाषा-शैली भी बहुत प्राञ्जल और प्रभावित करनेवाली थी ! पाठ का नीर-क्षीर विवेचन करते। उनकी कक्षा में मैं पूरी तन्मयता से बैठता और पूरा लेक्चर आत्मसात कर लेता, आवश्यक नोट भी कक्षा में ही बना लेता।

वह प्रातःकालीन महाविद्यालय था, कक्षाएँ सुबह ६.३० से ही शुरू हो जातीं और ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के आसपास महाविद्यालय से हमें मुक्ति मिल जाती। यारबाशी के लिए पूरा दिन हमें खुला मिलता। वहाँ अच्छे दिन गुज़र रहे थे। अनेक नए-पुराने मित्रों का साथ-संग होता और हम मटरगश्तियां करते फिरते। कभी महाविद्यालय की कैंटीन में जा बैठते, तो कभी कॉलेज परिसर के खेल के मैदान में बैठकर मूँगफलियाँ फोड़ते हुए क्रिकेट-मैच का आनंद लेते। मेरे विद्यालय के कई सहपाठी भी वाणिज्य के छात्र बने थे। हम सभी पटनासिटी से बिहार राज्य ट्रांसपोर्ट की बसों में साथ-साथ महाविद्यालय आते, लिहाज़ा हमजोलियों का एक पूरा जत्था मेरे साथ होता, जिनमें शम्मी रस्तोगी, जगमोहन शारदा, नीरज रस्तोगी, अरुण गुलाटी, दिलीप अग्रवाल (दिल्लू) आदि प्रमुख थे।
हमारी इसी टोली में शामिल हुए पटनासिटी-निवासी विनोद कपूर, जो हरदिलअजीज़ शख्श थे। वह अपने नाम के अनुरूप बहुत विनोदी स्वभाव के और शीघ्र सबसे घुल-मिल जानेवाले हँसमुख युवक थे। उनमें भी हिंदी-प्रेम के नावांकुर उन्हीं दिनों फूटे थे। वह महाविद्यालय में मेरे आत्मीय बंधु बने। मेरे साथ वह भी एकाग्र भाव से हिन्दी की कक्षाओं में नियमित रूप से बैठते। अब सम्मिलित अध्ययन के अखाड़े बदल गए थे। मैं ज़्यादातर विनोद के घर में होता और उन्हीं के साथ रात्रिकालीन अध्ययन-मनन के सत्र व्यतीत करता।

कई बार हम सभी मित्र-बंधु शम्मी रस्तोगी के घर में एकत्रित होते--सारी रात वहीं पढ़ते, उधम मचाते और रात-भर में रसोईघर में रखा भुना-पका खाद्यान्न चबा जाते--एक रात में फोरनी से भरा मर्तबान पूरा साफ़! दूसरे दिन मेरे मित्र इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहरा देते, कहते--'रात-भर में ओझा पण्डित सब खा गया ।' लेकिन शम्मी और विनोद के माता-पिता बहुत उदार और स्नेही थे। हमारी उद्दंडताओं पर कभी क्रुद्ध नहीं होते। शम्मी हमारी टोली के सर्वप्रिय मित्र तो थे ही, हमारे बीच के 'राजेश खन्ना' भी वही थे। वही सूरत शक्ल, वही अंदाज़, वही अदाएँ ! राजेश खन्ना रजत-पट पर चमकते और शम्मी हमारे बीच! राजेश खन्ना तो बहुत बाद में लोकान्तरित हुए, लेकिन शम्मी अपनी चढ़ती उम्र में ही अचानक हमें बीच राह में छोड़ गए। उनकी कमी हमारी पूरी मित्र-मण्डली में आज भी शिद्दत से महसूस की जाती है। वह अद्भुत मित्र-वत्सल बंधु थे!
नीरज और जगमोहन एकाउंट्स और बुक-कीपिंग के मास्टर थे। कभी-कभी दिन-भर की बैठकी जगमोहन के घर भी लगती। इन सभी मित्रों के सहयोग से मैं वाणिज्य के अन्यान्य विषयों से सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न करने लगा।

वह संभवतः १९७२-७३ की बात होगी। एक दिन जयमंगल प्रसादजी कक्षा में पढ़ा रहे थे और हम सभी छात्र शांतिपूर्वक उनका सम्भाषण सुनने में निमग्न थे। कक्षा की समाप्ति के ठीक पहले प्रसंगवश उन्होंने पूछा--'क्या आप में से कोई अकर्मक और सकर्मक क्रिया की परिभाषा बता सकता है ?'
प्रश्न सुनते ही बचपन का कण्ठाग्र एक दोहा मेरे मस्तिष्क में स्फुल्लिंग-सा चमका और मैंने अपना हाथ ऊपर उठा दिया। जयमंगल प्रसादजी ने इशारा करते हुए मुझसे कहा--'हाँ, आप बताइये।' मैं उत्साह से उठ खड़ा हुआ और बोला--
'क्रिया अकर्मक और सकर्मक दो प्रकार की होती,
जैसे राम आम खाता है, और सुधा है सोती।'

दोहा तो दो पंक्तियों का ही था, उसे सुनाकर मैं चुप हुआ ही था कि पूरी कक्षा 'खी-खी' करके हँसने लगी। विनोद कपूर मेरी बाँह पकड़कर मुझे बैठ जाने का इशारा कर रहे थे और मैं हतप्रभ था कि मित्र-बन्धु आख़िर ऐसा उपहास क्यों कर रहे हैं! तभी मेरी दृष्टि अपनी कक्षा की एकमात्र छात्रा पर पड़ी, जो इस हलचल के कारण चौंककर जाग पड़ी थीं और अपनी आँखें मलते हुए सजग हो रही थीं। और, अचानक मुझे ख़याल आया कि उफ़, उनका नाम भी 'सुधा' ही तो है। इस दुर्योग पर मैं अपना सिर पीटते हुए सकुचाकर बैठ गया।

जयमंगल प्रसादजी ने इसे मेरी इरादतन की गयी शरारत समझकर गंभीरता से लिया और मुझे फिर उठ खड़े होने का आदेश दिया। उन्होंने मुझसे मेरा क्रमांक पूछा और एक पर्ची पर लिखकर कहा---"कक्षा के बाद मुझसे 'स्टाफ रूम' में मिलिए।" उन्होंने दो-तीन और छात्रों का क्रमांक पूछकर लिखा था, जो मुखर हास्य का प्रदर्शन करते हुए इस आकस्मिक उत्सव का आनंद-लाभ कर रहे थे। इन सबों के लिए समान आदेश की उदघोषणा करते हुए गुरुवर कक्षा से चले गए।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरा किसी को चिकोटी काटने का इरादा हरगिज़ नहीं था और संयोग से पद में 'सुधा' नाम का ही उल्लेख था, तो मैं क्या करता ? बचपन के रटे-रटाये पद में नाम का परिवर्तन मैं हठात कर नहीं सकता था और वह भी महज़ इसलिए कि इसी नाम की एक छात्रा मेरी कक्षा में थीं। सच तो यह है कि जब मैंने पद सुनाया था, तब मुझे सुधाजी की सुधि भी कहाँ थी ?

लेकिन, मेरा नाम तो अपनी पर्ची में जयमंगल प्रसादजी लिख ले गए थे और आदेशानुसार मुझे उनके सामने उपस्थित होना ही था। मैं 'स्टाफ़ रूम' की ओर बढ़ा तो मित्रों ने सलाह दी कि "सर, अभी बहुत क्रोध में होंगे, उनसे कल मिल लेना। अभी चलो न क्रिकेट-मैच देखने, 'लीज़र पीरियड' भी है।" मुझे भी यही उचित जान पड़ा और मैं अपने मित्रों के साथ खेल के मैदान में जा पहुँचा। यही और इतनी ही गफ़लत मुझसे हुई थी, अन्यथा मैं पूरी तरह निर्दोष था।

क्रिकेट देखते हुए हम प्रमोद में मग्न थे कि घण्टे-भर बाद संकट का परवाना लिए विभागाध्यक्ष का गण सिर पर आ पहुँचा। उसने पर्ची देखकर एक क्रमांक संख्या का उल्लेख किया और पूछा--'आपलोगों में यह किनका रॉल नम्बर है ?'
मैंने कहा--'मेरा !' वह बोला--'चलिये, शर्माजी आपको बुला रहे हैं।' यह सुनकर तो मेरे होश फ़ाख़्ता हो गए।' वह तो आसन्न संकट की पुकार थी। मैं गण का अनुगामी बना उसके पीछे चल पड़ा।

विभागाध्यक्ष श्रीपद्मदेव नारायण शर्मा (प्रॉ. पी.एन. शर्मा के नाम से विख्यात) के नाम से तो विश्वविद्यालय के बड़े-से-बड़े दिग्गजों की रूह काँप जाती थी, फिर मेरी क्या हस्ती थी ! उनकी पुकार पर मैदान छोड़कर मैं भाग भी नहीं सकता था। सिर झुकाये, गण का अनुगमन करते हुए, मैं विभागाध्यक्ष महोदय के कक्ष के समीप पहुँचा तो बंद द्वार के बाहर भी उनके क्रुद्ध गर्जन का तीव्र स्वर पिघले शीशे की तरह मेरे श्रवण-रंध्रों में उतर गया। और तभी मेरा एक सहपाठी लाल चेहरा और नम आँखें लिए द्वार खोलकर बाहर आया तथा भयभीत हिरण-सा भाग चला। अगला नंबर मेरा ही था। प्राण हथेलियों पर लेकर मैं उनके कक्ष में जैसे ही प्रविष्ट हुआ, गुरुदेव ने कर्कश स्वर में कहा--'अच्छा, तो वह तुम हो !' दरअसल वह पिताजी के पूर्व-परिचित थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। मुझे सम्मुख आया देख उन्हें आश्चर्य हुआ था।

मैंने अपनी सफाई में कुछ कहना चाहा तो वह एकदम उग्र हो उठे और पलटकर आलमारी के ऊपर से उन्होंने एक मोटा रूल उठा लिया और सिंह-गर्जना की--'तुम भी नालायक़ निकलोगे, मैंने सोचा नहीं था।' सोचता हूँ, मेरे नाम के साथ पूज्य पिताजी का नाम न जुड़ा होता, तो उस दिन न जाने मेरी कैसी दुर्गति हुई होती।

मैंने अपनी प्राण-रक्षा में तत्काल निवेदन किया--'माफ़ करें सर, गलती हो गयी। अब कभी ऐसा नहीं होगा।' उन्होंने चीखकर ही मुझे बाहर निकल जाने का आदेश दिया। वह अत्यधिक क्रोध में थे। एक बार फिर, मैं उस अपराध की क्षमा मांग आया था, जो मैंने किया नहीं था। बस, ज़रा-सी बात थी, जो समंदर को खल गयी थी।...
लेकिन, मन पर इसका बोझ लंबे समय तक नहीं रहा; क्योंकि कुछ दिन बाद ही शर्माजी ने मुझे फिर अपने कक्ष में बुलाया। मैं हाज़िर हुआ तो देखा, हिन्दी-शिक्षक जयमंगल प्रसादजी वहीं विराज रहे हैं। उसी दिन बातें साफ़ हो गयीं और मेरा क्षोभ तथा मनोमालिन्य धुल गया। लेकिन, मैं कक्ष से बहार निकलूं, उसके पहले शर्माजी ने हिंदी-शिक्षक महोदय की ओर इशारा करते हुए मुझसे कहा था--'अगर तुम उसी दिन इनसे मिल लेते तो बात मुझ तक नहीं पहुँचती ! आगे से ध्यान रखना, किसी शिक्षक के आदेश की अवमानना न हो।'
मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था--'भविष्य में किसी आदेश की अवज्ञा मुझसे नहीं होगी सर!'... और, मेरी कागज़ की नाव भँवर से बचकर निकल गयी थी।...

बात आयी-गयी हो गयी। महाविद्यालय से बाहर निकला तो स्नातक वाणिज्य (ससम्मान) की उपाधि तो मिली ही, साथ ही मिले थे हिन्दी में विशेष योग्यता के अंक (डिस्टिंग्शन मार्क्स)।

अपने विद्यार्थी-जीवन की ये तीन घटनाएँ मैं कभी भूल नहीं सका। मेरा अपराध रहा हो या न रहा हो, मेरे आचरण में उशृंखलता तो थी ही। खूँटी (रांची) के हिन्दी-शिक्षक श्रीसियाराम सिंह ने मुझे कभी क्षमा किया भी या नहीं, यह मैं जान न सका; क्योंकि उनसे जीवन में फिर कभी मिलना ही नहीं हुआ। अन्य दोनों हिंदी-शिक्षकों ने मुझे माफ़ी भी दी और उनकी यथेष्ट प्रीति भी मैं अर्जित कर सका। फिर भी, उम्र की इस दहलीज़ पर पहुँचकर यह परम ज्ञान मुझे अवश्य प्राप्त हुआ कि अंतरात्मा की अदालत में कभी माफ़ी नहीं मिलती।...
(समाप्त)




[चित्र : १) विनोद कपूर और मैं, २) मैं, अभी, ३) बाएं से--स्व. शम्मी रस्तोगी, मैं, दिलीप और प्रह्लाद  ४) जगमोहन शारदा राजगृह की पहाड़ी पर मैं; १९७२-७३ की छवियाँ.]

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