शनिवार, 24 दिसंबर 2016

'ज़मीं खा गयी आस्माँ कैसे-कैसे' ...

उस साल शरद ऋतु आयी नहीं थी, लेकिन वर्षा विगत-कथा हो चुकी थी। उसी समय की बात है--संभवतः 1981-82 की। पटना के दैनिक पत्र 'आर्यावर्त्त' के लब्ध-प्रतिष्ठ संपादक पं. हीरानंद झा शास्त्रीजी की उत्प्रेरणा से पिताजी को एक साहित्यिक विमर्श के लिए दरभंगा जाना था। पहले यह निश्चित हुआ था कि शास्त्रीजी पिताजी को अपने साथ लेकर दरभंगा जायेंगे और राजकुमार शुभेश्वर सिंह (संभवतः नाम-स्मरण में गफ़लत नहीं कर रहा हूँ) से मिलेंगे और विमर्श के बाद साथ ही पटना लौट आयेंगे। उन्होंने इस मुलाकात और विमर्श के लिए राजकुमार साहब से तिथि और समय की स्वीकृति भी ले ली थी, लेकिन यात्रारम्भ के ठीक दो दिन पहले शास्त्रीजी ने अपना जाना अपरिहार्य कारणों से स्थगित कर दिया था और इसकी सूचना पिताजी को देने घर पधारे थे।
पिताजी ने उनकी बात सुनकर कहा--'शास्त्रीजी, जब आप ही नहीं जायेंगे तो मैं वहाँ अकेला जाकर क्या करूँगा ? लिहाज़ा, मान लेता हूँ कि पूरा कार्यक्रम ही स्थगित हो गया।'

शास्त्रीजी पिताजी की बात सुनकर विचलित-व्याकुल हो उठे, बोले--'नहीं-नहीं, मैं इसीलिए तो स्वयं आपके पास आया हूँ। अगर पूरा कार्यक्रम ही स्थगित करना होता, तो इसकी सूचना मैं फ़ोन पर ही आपको देकर निश्चिन्त हो जाता। राजकुमार साहब ज़्यादातर बाहर-बाहर रहते हैं। मुश्किल से तो उनसे समय मिला है, सारी बातें दूरभाष पर हो चुकी हैं और विमर्श का विषय भी पत्र द्वारा उनके सामने मैं रख चुका हूँ। बस, आप एक बार उनसे मिलकर बातें कर आइये, बाकी सब मुझ पर छोड़ दीजिये।'
पिताजी इसके लिए राज़ी नहीं हो रहे थे। उन्होंने अपनी विवशता उन्हें बतायी--'शास्त्रीजी, उम्र की इस दहलीज़ पर, अशक्तता की इस दशा में, इन आँखों से मुझ अकेले से यात्रा संभव नहीं हो सकेगी। आप तो मुझे क्षमा ही करें। अगली बार जब कभी संयोग बनेगा, आपके साथ ही वहाँ जाऊँगा।'

लेकिन गरज़मंद तो सहस्रबाहु होता है। शास्त्रीजी की आन भी कहीं अटकी पड़ी थी शायद। बोले--'हाँ, तो अकेले मत जाइये, किसी को साथ ले लीजिये।' पिताजी कहने ही जा रहे थे कि 'किसे साथ ले जाऊँ', तब तक मैंने चाय की ट्रे के साथ कक्ष में प्रवेश किया। शास्त्रीजी झट मेरी ओर इशारा करते हुए बोले--'इनके साथ ही चले जाएँ न। आने-जाने में जितना भी वक़्त लगे, बैठक तो घंटे भर में समाप्त हो जायेगी। फिर पटना लौट आइयेगा।'

चाय पीकर और दो खिल्ली पान, सुपारी-तम्बाकू के साथ खाकर शास्त्रीजी जब विदा हुए, तब पिताजी ने चिंतित स्वर में मुझसे कहा--'लगता है, शास्त्रीजी ने मेरी स्वीकृति-अस्वीकृति के पहले ही कुमार साहब से कह दिया है कि मैं मीटिंग के लिए वहाँ पहुँचूँगा। अब क्या करूँ, जाना तो पड़ेगा, अन्यथा शास्त्रीजी संकट में पड़ेंगे। मित्र हैं, उनकी अवमानना हो, यह मैं नहीं चाहूँगा।'
मैंने कहा--'हाँ, तो चलिए न, मैं साथ चलता हूँ, इसमें चिंता की क्या बात है।' मेरी बात सुनकर पिताजी कुछ बोले नहीं, लेकिन मैंने लक्ष्य किया कि उन्हें शास्त्रीजी यह बात रुचिकर नहीं लगी थी।

दो दिन बाद पिताजी के साथ मैंने भी सुबह-सुबह दरभंगा के लिए प्रस्थान किया। घर से निकलने के पहले पिताजी ने मुझसे कहा--'तुम सड़क तक पहुँचो, मैं आता हूँ।' मैंने बिना कुछ कहे बैग उठाया और चल पड़ा। जानता था, वह ऐसा क्यों कह रहे हैं । दरअसल पिताजी थे तो अत्याधुनिक विचारों के, लेकिन कई पुरानी मान्यताओं का मान भी रखते थे। उन्हीं के श्रीमुख से बारहाँ सुना था--
'पिता पुत्रौ न गच्छेत्, न गच्छेत ब्राह्मण त्रयं !'
अर्थात पिता-पुत्र को और तीन ब्राह्मणों को अदिन में एक साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। इस पंक्ति में दी गयी वर्जना का वह ध्यान रखते और कहीं की भी यात्रा की तिथि निश्चित करते हुए दिशाशूल का विचार भी करते थे। अत्यावश्यक न हो तो दिशाशूल में भरसक यात्रा नहीं करते थे और यदि विवशता ही आ पड़े, तो विधि-निषेधोपचार के बाद ही यात्रा पर निकलते थे।

उन दिनों दरभंगा जाने का एक ही मार्ग था--गंगा नदी को बच्चा बाबू के स्टीमर से अथवा सरकारी जहाज से पार करके पहलेजा पहुँचना, फिर रेल या बस से दरभंगा। तब तक निर्माणाधीन गाँधी-सेतु बनकर तैयार होने की दशा में तो था, लेकिन लोकार्पित नहीं हुआ था। हमने सरकारी जहाज से ही यात्रा करना तय किया। घण्टे-डेढ़ घण्टे में हम पहलेजा पहुँचे, फिर दरभंगा के लिए चल पड़े।

निश्चित समय पर हम दरभंगा-राजप्रासाद पहुँचे। वह विशाल प्रासाद था--उन्नत द्वार और मेहराबदार परकोटों से घिरा हुआ। हम वहाँ पहुँचे, जहाँ राजकुमार शुभेश्वर सिंह का निवास था। उस भवन को देखकर ही अनुमान किया जा सकता था कि कभी वहाँ का श्री-वैभव कैसा विलक्षण रहा होगा। काल ने उसे श्रीहीन कर दिया था, रंग-रोगन के बिना दीवारें उदास लग रही थीं, लेकिन वैभव और सम्पन्नता अन्दर विद्यमान थी। हमें एक सेवक ने बहुत बड़े कक्ष में सादर बिठा दिया और कुमार साहब को सूचित करने अंदर चला गया। शीघ्र ही कुमार साहब पधारे और नमस्कारोपरांत बोल पड़े--"बैठिये, मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।" युवावस्था की दहलीज़ लाँघ जाने की कगार पर खड़े कुमार साहब बहुत कद्दावर और सुदर्शन व्यक्ति थे। वह पिताजी से किसी गंभीर विषय पर विमर्श में निमग्न हो गए और मैं चुपचाप बैठा-बैठा कक्ष की एक-एक चीज़ को निहारता रहा। सोचता रहा कि संगीतप्रेमी राजा साहब के युग में वहाँ कैसी रौनक रही होगी, कैसी चहल-पहल और राग-रागिनियों का कैसा आनन्द-विलास होता रहा होगा !

मैंने कई पुस्तकों में दरभंगा राज-परिवार के संगीत-प्रेम के बारे में पढ़ा भी था कि संगीतकारों की एक सुदीर्घ परम्परा महाराजाधिराज की कृपा-छाया में पुष्पित-पल्लवित होती रही है, उनका भरण-पोषण होता रहा है वहाँ। धुरपद (ध्रुपद) के प्रख्यात गायक पं रामचतुर मल्लिक तो हमारे ज़माने के वयोवृद्ध फ़नकार रहे हैं, लेकिन पुराने वक़्त की पढ़ी-जानी कथाओं की बात करूँ तो मुझे बौराही कनीज़ (बड़ी कनीज़) की याद आती है। उसकी तानों में गज़ब की तड़प थी, कहन में अपूर्व कशिश थी, तासीर थी और वह मन्त्र-मुग्ध कर देनेवाला ठुमरी-गायन करती थी। उसकी समकालीन गानेवालियाँ थीं--अल्लाजिलाई, मोहम्मद बाँदी और ज़ोहराबाई पटनावाली। ये सभी अपने ज़माने की सरनाम गायिका थीं। ठुमरी, दादरा, टप्पा और ग़ज़ल-गायन में इनका कोई सानी नहीं था। राज्याश्रय में ही ज़ोहराबाई का गायन परवान चढ़ा था। महाराज कामेश्वर सिंह के राज्याभिषेक के अवसर पर अपनी गायकी से उसने दिग्गज उस्तादों को भी हैरत में डाल दिया था। उसने बड़े-बड़े दंगल जीते थे और दरभंगा-राज का वर्चस्व क़ायम रखा था। पटनावाली ज़ोहरा की मौत पर महाराज बहुत दुखी हुए थे। पटनासिटी में उसे दफ़्न किया गया। उसकी कब्र की शानोशौकत बरकरार रखने के लिए राजा साहब ने सस्ती के उस ज़माने में अपने कोष से ग्यारह हज़ार रुपयों की धन-राशि देकर चुनार के लाल पत्थरों से उसकी मज़ार की शोभा बढ़ायी थी।

लेकिन, बड़ी कनीज़ की कहानी बहुत पीड़ादायी है। उसकी विक्षिप्त मनोदशा के कारण ही लोग उसे बड़ी कनीज़ की जगह 'बौराही' कनीज़ पुकारने लगे थे। किसी छोटी-सी बात पर उसके मन को गहरी ठेस लगी थी और उसने राज-दरबार का मोह त्याग दिया था। कुछ वर्षों तक उसका कुछ पता ही नहीं चला कि वह कहाँ चली गयी। महाराज उसके इस आचरण-व्यवहार से दुखी थे, उन्होंने कुछ समय तक उसकी तलाश की चेष्टाएँ कीं; फिर उसकी तरफ से विमुख हो गए।

वर्षों बाद बड़ी कनीज़ पटनासिटी की बदनाम गलियों में देखी गई। उसकी मानसिक दशा बिगड़ गयी थी। गलियों-सड़कों पर वह बदहवास गाती-गुनगुनाती और सुरों की मारक तान लगाती निकल जाती। चलते-फिरते लोग ठगे-से खड़े रह जाते और मन्त्रमुग्ध-से उसे सुनने लगते। उसके सुरों में बला की तासीर थी और कण्ठ का नाद ऐसा कि वह दूर-दूर तक गूँजता, जैसे हवा की तरंगों पर तिरता सुरों का बाण चारो दिशाओं में बिखर रहा हो। अपने इन्हीं सुरों के कारण वह पहचानी भी गयी और बात कानों-कान महाराज तक पहुँची। उन्होंने उसे मनाने-बुलाने के लिए के लिए दूत भेजे, लेकिन वह तो अपनी सुध-बुध खो चुकी थी, संसार से उसका सरोकार प्रायः समाप्त हो गया था। सरोकार रह गया था, तो सिर्फ़ सुरों से। उसने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया।
कालान्तर में मुफ़लिसी और दुरावस्था में पटनासिटी में ही उसकी मौत हुई। पटनासिटी की जाने किस गली में उसे सुपुर्दे-ख़ाक किया गया। जब तक राजा साहेब को उसके इंतकाल की ख़बर मिली, तब तक कई महीने गुज़र गए थे। राज-वैभव और विलासितापूर्ण जीवन का त्याग कर ख़ाक में मिल जानेवाली बड़ी कनीज़ की कहानी मेरे ज़ेहन से कभी मिटी नहीं और दिमाग में गूँजते रहे ये शब्द--'ज़मीं खा गयी आसमाँ कैसे-कैसे !'

(समापन अगली किस्त में)

गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

।।पुण्य-स्मरण : प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'।।

[आज पूज्य पिताजी की २१वीं पुण्य-तिथि है। उनका स्मरण तो साँसों की लय पर रहता है, लेकिन सोचता हूँ कि उन्हें नमन करते हुए आज उनका एक संस्मरणात्मक आलेख आपके साथ बाँटूँ। यह आलेख स्वयं अपनी बात आपके सम्मुख रखेगा, मुझे उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लेख थोड़ा लम्बा जरूर है, लेकिन रोचक है। मुझे विश्वास है, इसे पढ़कर आपको आनन्द तो मिलेगा ही, संभव है, किंचित् ज्ञान-लाभ भी हो। सप्रणाम--आनन्द.]

दो सीमाएँ ...
--प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त'

जीवन के विभिन्न क्षेत्र में अक्सर ऐसे रोचक अनुभव प्राप्त होते हैं कि उन्हें बाँटने की इच्छा होती है। यहाँ मैं दो ऐसे रोचक अनुभवों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो रोचक तो थे ही, परस्पर विरोधी भी थे।

उन दिनों डॉ. ज़ाकिर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे और मैं पटना रेडियो स्टेशन में हिंदी-विभाग का प्रोड्यूसर था। साल में दो-तीन बार ज़ाकिर साहब किसी-न-किसी रिकॉर्डिंग के लिए रेडियो स्टेशन आया करते थे। उन्हें जब पहली बार देखा था, तभी उनके सौजन्य, शिष्टाचार और विद्वत्ता की छाप मुझ पर पड़ी थी। 'विद्या ददाति विनयम्' के वह मानो मूर्त्त रूप थे। भाषा सरल उर्दू लिखते थे और बीच-बीच में संस्कृत शब्दों का इतना खूबसूरत और उचित प्रयोग करते थे कि उससे वाक्य का सौन्दर्य बढ़ जाता था। एक बार ऐसे ही एक संस्कृत शब्द का (शब्द मुझे स्मरण नहीं आ रहा) उन्होंने तीन बार प्रयोग किया था। वह हमेशा फ़ारसी लिपि में लिखा अपना आलेख साथ लेकर आते थे। फ़ारसी लिपि से अनभिज्ञ होने के कारण मेरे लिए उनके आलेख को पढ़ने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उस दिन जब बूथ में बैठकर मैं रिकॉर्डिंग कर रहा था, मैंने सुना कि उस संस्कृत शब्द का उनका उच्चारण सही नहीं था। लेकिन आगे दो बार जब उन्होंने फिर उसी शब्द का उच्चारण किया तो मैंने समझा कि उसका उच्चारण उन्हें मालूम नहीं है। रिकॉर्डिंग हो जाने के बाद मैं स्टूडियो में आया, जहाँ स्टेशन डायरेक्टर मौजूद थे। मैंने ज़ाकिर साहब से कहा कि आपने इस शब्द का इस रूप में उच्चारण किया है, जबकि उसका शुद्ध रूप यह है।
ज़ाकिर साहब ने पूछा--'मैं ग़लत बोला?'
मैंने कहा--'जी।'

हमारा वार्तालाप सुनकर स्टेशन डायरेक्टर महोदय भयभीत और आतंकित हो रहे थे। उन्होंने एक बार आग्नेय नेत्रों से मेरी ओर देखा भी, लेकिन मैंने उसे अनदेखा कर दिया।
ज़ाकिर साहब ने पूछा--'सही उच्चारण आपने क्या बताया ?'
मैंने सही रूप उन्हें फिर बता दिया और मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब वह बच्चों की तरह उसे रटने लगे। कम-से-कम दस शुद्ध आवृत्तियों के बाद उन्होंने पूछा--'अब ठीक है?
मैंने कहा--'बिलकुल।'
उन्होंने फिर पूछा--'आप फिर रिकॉर्डिंग कर सकते हैं?'
मैंने कहा--'अवश्य।'

ज़ाकिर साहब ने अपनी पूरी वार्ता दुबारा रिकॉर्ड करवाई और इस बार उन्होंने बिलकुल शुद्ध उच्चारण किया।
जब वह रेडियो स्टेशन से विदा हो गए तो स्टेशन डायरेक्टर मुझे अपने कमरे में ले गए। बैठते ही उन्होंने कहा--'मुक्तजी, आप किसी-न-किसी दिन मेरी नौकरी खा जाइयेगा। आप जानते हैं, ज़ाकिर साहब जल्दी ही उप-राष्ट्रपति होकर दिल्ली जानेवाले हैं। अगर आपकी बात उन्हें बुरी लगी होगी तो उनके ज़रा-से इशारे पर मैं तो कहीं का न रहूँगा। आप में यह बड़ा दोष है कि आप किसी को बख़्शते नहीं हैं।'
मैंने उन्हें बहुत आश्वस्त करना चाहा कि वह विद्वान् पुरुष है, बुरा मानने का सवाल ही नहीं उठता। अगर कुछ मानेंगे तो उपकार मानेंगे और यदि मेरी धारणा गलत भी हुई तो नौकरी आपकी नहीं, मेरी जायेगी; क्योंकि आपने तो कुछ कहा ही नहीं था।
बहरहाल, स्टेशन डायरेक्टर आश्वस्त नहीं हो सके और अक्सर साप्ताहिक मीटिंग में इस घटना का उल्लेख करके कहा करते थे कि मुक्तजी ने राज्यपाल को कह दिया कि आप गलत बोलते हैं।

दो-तीन महीनों के बाद ज़ाकिर साहब फिर किसी रिकॉर्डिंग के सिलसिले में रेडियो स्टेशन आनेवाले थे। इस बार एक अनहोनी बात हुई कि ज़ाकिर साहब का हिंदी में टंकित आलेख मेरे पास पहले ही आ गया। मैंने उसे पहले ही पढ़ लिया था और टंकण के कुछ दोष सुधार दिए थे। आलेख मेरी मेज़ पर पड़ा हुआ था।

जब राजभवन से फ़ोन आया कि राज्यपाल रेडियो के लिए रवाना हो चुके हैं तो स्टेशन डायरेक्टर सहित हम तीन-चार आदमी उनकी अगवानी के लिए पोर्टिको की सीढ़ियों पर आ खड़े हुए। लेकिन ज्यों ही पायलट आया, मैं ज़ाकिर साहब का आलेख लेने के लिए अपने कमरे की ओर दौड़ गया। ज़ाकिर साहब गाड़ी से उतरकर सामने खड़े प्रत्येक व्यक्ति से हाथ मिलाया करते और तब बारामदे की सीढियाँ चढ़ते। जब आलेख लेकर मैं पहुँचा तो मैंने सुना, ज़ाकिर साहब डायरेक्टर से पूछ रहे हैं. 'आज मुक्तजी नहीं हैं?'
मैंने आगे बढ़कर नमस्कार किया, उन्होंने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा--'भई, आज मैंने फिर एक नया लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है, देखिये ठीक है न?'
शब्द का उच्चारण ठीक ही था।

स्टूडियो में पहुँचकर बैठते हुए ज़ाकिर साहब ने कहा--'मैं आपका बड़ा मशक़ूर हूँ। आपने उस दिन मेरी इज़्ज़त बचायी। यहां तो आप दो-चार आदमियों ने ही मेरा ग़लत बोलना सुना था, अगर उसी तरह ब्रॉडकास्ट हो जाता तो हज़ारों लोग सुनते कि ज़ाकिर हुसैन ग़लत बोलते हैं। अब तो जब कभी मैं संस्कृत का नया लफ़्ज़ इस्तेमाल करूँगा, आपसे पूछ लिया करूँगा।'
वह बड़ी स्निग्ध-सी हँसी हँसे। हम सबने उनका अनुसरण किया।
यह ज़ाकिर साहब की विद्वत्ता थी, जिसने उन्हें इतना नम्र और सहज बनाया था।

इसके ठीक विपरीत एक दूसरी घटना का स्मरण आता है, जिसके नायक बिहार के राजनेता श्रीकृष्णवल्लभ सहाय थे।

कृष्णवल्लभ बाबू अपनी राजनीतिक सूझबूझ, कार्य-पटुता और अशिष्टता के लिए प्रसिद्ध थे। बिहार में वह दूसरी पंक्ति के काँग्रेसी नेता थे और देश की स्वतंत्रता के बाद बनानेवाले मंत्रिमंडलों में सदा स्थान पाते रहे थे, जिसने प्रथम पंक्ति के नेताओं के दिवंगत हो जाने के बाद उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। इसे संयोग ही कहेंगे कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में जितने उपद्रव, दंगे, आगजनी और लाठी-गोली-काण्ड हुए, उतने पहले कभी नहीं हुए थे। एक बार ऐसी ही भीषण घटना के अवसर पर, जब बिहार का गाँधी ग्रामोद्योग भवन जलाया जा चुका था और गोली चलने के परिणामस्वरूप कितने ही लोग हताहत हुए थे, राज्य की जनता के नाम मुख्यमंत्री के रूप में अपने सन्देश की रिकॉर्डिंग के लिए कृष्णवल्लभ बाबू रेडियो स्टेशन आये।

रेडियो की यह नीति रही है कि किसी व्यक्ति, दल, धर्म और व्यवसाय आदि के सम्बन्ध में नामतः आक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। स्टूडियो में जब मैंने कृष्णवल्लभ बाबू के आलेख पर नज़र डाली तो आरम्भ में ही यह उल्लेख मिला कि इस उपद्रव के मूल में कम्युनिस्ट पार्टी का हाथ है। मैंने व्यावसायिक विनम्रता के साथ उनसे निवेदन किया कि रेडियो की नीति के अनुसार नाम लेकर किसी दल पर आक्षेप नहीं किया जा सकता।

मैंने अपनी बात अभी पूरी भी नहीं की थी कि वह आग बबूला हो उठे। कुर्सी से उठाते हुए उन्होंने बड़े तैश से कहा--'मुख्यमंत्री मैं हूँ कि आप हैं ? आप मुझे नीति सिखाइयेगा ? मैं जाता हूँ। मैं पटना रेडियो से कभी ब्रॉडकास्ट नहीं करूँगा। मैं अपने मिनिस्टरों से भी कहूँगा की वे ब्रॉडकास्ट न करें। मैं दिल्ली में आपकी शिकायत करूँगा।'
कृष्णवल्लभ बाबू का यह रौद्र रूप देखकर स्टेशन डायरेक्टर के हाथ-पाँव फूल गए। वह बार-बार प्रार्थना करने लगे कि वह बड़े हैं, महान हैं, वह जो भी कहना चाहते हैं, वही ब्रॉडकास्ट होगा आदि।

बड़ी मुश्किल से स्टेशन डायरेक्टर उन्हें रिकॉर्डिंग के लिए राजी कर सके, यद्यपि यह मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया। यदि स्टेशन डायरेक्टर वहाँ उपस्थित न होते तो कृष्णवल्लभ बाबू के उठ खड़े होने पर मैं उन्हें नमस्कार करता और धन्यवाद देकर विदा कर देता; क्योंकि मैं जानता था कि औचित्य मेरे पक्ष में है और ग़लत बात को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।

रिकॉर्डिंग तो स्टेशन डायरेक्टर ने करा ली, लेकिन स्वयं संकट में पड़ गए; क्योंकि कृष्णवल्लभ बाबू के वक्तव्य की शब्दावली प्रसारण के योग्य नहीं थी। रात के आठ बज चुके थे और सन्देश को साढ़े नौ बजे प्रसारित करना था। मुझे और राधाकृष्ण प्रसाद को, जो उन दिनों पटना रेडियो में प्रोग्राम एक्सक्यूटिव थे, साथ लेकर स्टेशन डायरेक्टर अपने कमरे में चले गए और इस असमंजस में पड़े कि क्या किया जाए। मैंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी के नाम का उल्लेख किसी भी हालत में नहीं प्रसारित होना चाहिए। अच्छा यह होगा कि यह वाक्य ही रिकॉर्डिंग से हटा दिया जाए। लेकिन स्टेशन डायरेक्टर आतंरिक तौर से भयभीत थे और उन्हें इस बात का ख़तरा था कि अगर कृष्णवल्लभ सहाय स्वयं उस ब्रॉडकास्ट को सुनेंगे और उस वाक्य अनुपस्थित पायेंगे, जिसके लिए बात इतनी बढ़ गयी थी, तो उनकी नौकरी जाते देर न लगेगी। मैंने जरा विनोद से कहा था कि नौकरी तो आपकी कम्युनिस्ट पार्टी के नाम के उल्लेख के कारण ज्यादा आसानी से जा सकती है। मेरे इस विनोद ने उन्हें इतना दयनीय बना दिया कि मुझे साँप-छछून्दर की याद आने लगी। अंततोगत्वा, बीसों प्रयत्नों के बाद उन्होंने दिल्ली में डायरेक्टर जनरल से दूरभाष पर बातें कीं और उनसे मार्गदर्शन माँगा। डी.जी. ने उत्तर में कहा कि मामला बड़ा गम्भीर है और वह केंद्रीय मंत्री से बात करके साढ़े नौ बजे के पहले ही स्वयं सूचित करेंगे कि क्या करना चाहिए।

घडी की सुइयों के साथ स्टेशन डायरेक्टर महोदय का दिल भी धड़क रहा था। समय को शायद पंख लग गये थे। प्रत्येक क्षण के साथ उनके चेहरे की रंगत बदल रही थी और लो, सवा नौ बज गए। दिल्ली से कोई खबर नहीं आयी। स्टेशन डायरेक्टर ने विक्षिप्तता के साथ फिर संपर्क करने की बारहाँ कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। जब नौ बजकर आठ मिनट हो गए तो उन्होंने रुआंसे स्वर में कहा कि जैसा है, वैसा ही ब्रॉडकास्ट करा दीजिये। अब तो जो होना है, होकर रहेगा।

इस बात ने आगे चलकर बहुत तूल पकड़ा था। संसद में प्रश्न हुए थे और अंततः डायरेक्टर जनरल ने सभी स्टेशनों को यह आदेश भेजा था कि पद और प्रतिष्ठा का ध्यान न रखते हुए किसी भी व्यक्ति के आलेख की पूरी जाँच होनी चाहिए और रेडियो-नीति के प्रतिकूल कोई भी वाक्य अथवा वाक्यांश किसी भी हालत में प्रसारित नहीं होना चाहिए।

लेकिन इस घटना का रोचक पक्ष दूसरा ही है।
उसी रात साढ़े ग्यारह बजे सी.आई.डी. के एक इंस्पेक्टर ने स्टेशन डायरेक्टर की कोठी पर पहुँचकर उन्हें जगाया और पूछा कि कुरता-पायज़ामा पहने हुए उस कम्युनिस्ट से दिखनेवाले आदमी का मकान कहाँ है, जिसने मुख्यमंत्री को ब्रॉडकास्ट करने से रोका था ? स्टेशन डायरेक्टर मेरा घर जानते तो थे, कई बार मेरे घर आ चुके थे, लेकिन उस वक़्त उन्होंने बड़ी जवाँमर्दी से काम लिया और कहा कि रेडियो स्टेशन में इतने लोग काम करते हैं, मैं सबके घर का पता कैसे जान सकता हूँ? बहुत बहस-मुबाहिसे के बाद भी जब स्टेशन डायरेक्टर ने उसे मेरे घर का पता नहीं दिया तो वह यह धमकी देता हुआ कि आपके न बताने पर भी हम उसका मकान ढूँढ ही लेंगे, चला गया। दूसरे दिन मुझे मोहल्ले के लोगों से यह जानकर बड़ा मज़ा आया कि सी.आई.डी. के वह सज्जन मुझे ढूँढ़ने लिए मेरे ही घर नहीं पधारे, बाकी कई घरों में मेरी टोह लेते हुए असफल होकर लौट गए थे।

ज़माना ऐसा था कि जब कम्युनिस्ट कहकर अकारण ही किसी को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया जा सकता था और कृष्णवल्लभ सहाय के लिए तो यह मामूली बात थी।

अगले दिन जब मैं रेडियो स्टेशन पहुंचा तो मुझसे ज्यादा मेरे स्टेशन डायरेक्टर आतंकित थे और उन्होंने मुझे इस बात के लिए विवश किया कि दफ़्तर तो मैं आता रहूँ, लेकिन आठ-दस दिनों के लिए अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र चला जाऊँ। उन्होंने कहा कि कृष्णवल्लभ सहाय यदि दफ़्तर से आपको गिरफ़्तार करवायेंगे तो बात दूसरी होगी, लेकिन अगर घर पर आपकी गिरफ्तारी हुई तो कुछ नहीं किया जा सकेगा। मुझे सात-आठ दिनों तक अज्ञातवास करना पड़ा था।

ये दो घटनाएँ शिष्टता और अशिष्टता की दो सीमाओं का स्पर्श करती हैं। जब कभी ये दोनों घटनाएँ मुझे एक साथ याद आती हैं तो सहज ही मुझे ज़ाकिर साहब के सौजन्य का और कृष्णवल्लभ सहाय की अशिष्टता का स्मरण हो आता है। ज़ाकिर साहब को मैंने उनके अशुद्ध उच्चारण के लिए टोका था और कृष्णवल्लभ सहाय को भी उनकी ग़लतबयानी के लिए सावधान किया था। एक ने बड़ी सहजता से मेरी बात स्वीकार ही नहीं की थी, मेरे प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की थी और दूसरे ने उससे बड़ी गलती के लिए मेरा तिरस्कार किया था और मुझे जेल में डालने की कोशिश की थी। एक में मुझे विद्या का विनय देखने को मिला था और दूसरे में मुझे शक्ति मद। इस प्रसंग में सहज ही संस्कृत के इस श्लोक का स्मरण हो आता है--

'विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।'
(रचना-काल : ११-१२-१९७७)

[चित्र : पूज्य पिताजी की एक आकर्षक मुद्रा]