सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

स्वप्नानुवाद...

कल रात गहरी नींद सोया। अमूमन मैं देखता नहीं हूँ स्वप्न।लेकिन कल रात तो स्वप्न में ऐसा मोहाविष्ट हुआ कि लगा, स्वप्न ही जीवन-सत्य है।

कल दिन-भर पिताजी की एक पुरानी पुस्तक के काम में कम्प्यूटर पर जुटा रहा, वह पिताजी के संस्मरणों का संग्रह है। उसी में कुछ ऐसे स्वर-संकेत मिले कि रात जब बिस्तर पर गया तो पितामह की अनूदित कृति श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का पहला खण्ड साथ लेकर लेटा। पिताजी ने अपने अंतिम दिनों में इस संपूर्ण ग्रंथ का परिश्रमपूर्वक संपादन और प्रकाशन किया था। बालकाण्ड की भूमिका 'प्रभु का आदेश' में पिताजी लिख गये हैं कि अमुक रात स्वप्न में प्रभु ने उन्हें आदेश दिया कि 'तुम अपने पिता के अंतिम काम को अपना अंतिम काम बना लो और उसे पूरा करो।' पिताजी ने प्रभु के आदेश का अक्षरशः पालन किया। दस वर्षों में जब पूरी रामायण छपकर घर आ गयी, उसी के दस महीने बाद उन्होंने जगत् से प्रयाण किया।
यही प्रसंग पढ़कर मैं सो गया। बालकाण्ड की प्रति मेरे सिरहाने पड़ी रही।...

गहन निद्रा में डूबते ही मैंने देखा स्वप्न! देखा कि मैं अनुवाद कर रहा हूँ, वह भी संस्कृत से। संस्कृत, जिससे मेरी कभी मित्रता हुई नहीं। पिताजी जीवन-भर ललकारते ही रहे--'आओ, बैठो मेरे पास, संस्कृत, बांग्ला और गुजराती-- ये तीन भाषाएँ सीख लो।' और हम थे कि भागे-भागे फिरते थे। लेकिन परमाश्चर्य, स्वप्न में मैं क्षिप्र गति से कर रहा था वाल्मीकीय रामायण का हिंदी-अनुवाद। तभी स्वप्न में एक नये पात्र का आविर्भाव हुआ। वह विश्वविद्यालय से प्रायः घर आने वाली कन्या है, जो पिताजी की कहानियों पर शोध-कार्य कर रही है। वह सुघड़ और दक्ष है, त्वरित गति से काम करती है। मैं आग्रहपूर्वक उसे अपने साथ पकड़ बिठाता हूँ। अब मैं अनुवाद बोलकर लिखवा रहा हूँ उसे।
शोधकर्त्री कन्या अचानक कहती है--'कम्प्यूटर पर और तेजी से काम होगा अंकलजी! उसी पर करूँ क्या?'
मेरी स्वीकृति पाकर वह कम्प्यूटर पर बैठ जाती है। मैं धारा प्रवाह अनुवाद बोलता जाता हूँ और वह टाइप करती जाती है।

मज़े की बात कि मैं स्वप्न में भी जान रहा हूँ और विस्मित हो रहा हूँ कि मुझे संस्कृत तो आती नहीं, जाने किस अजानी शक्ति से यह काम करता जा रहा हूँ।
और देखते-देखते अनुवाद पूरा हो जाता है। मैं आप्तकाम, प्रसन्नचित्त हो अपने कमरे में टहलता हुआ सोच रहा हूँ, जिस काम को करने में पिताजी ने दस वर्ष लगा दिये थे, उसे मैंने रात-भर में ही कर डाला। कैसे? मैं उनका स्मरण करते हुए मन-ही-मन उनसे कह भी रहा हूँ और साश्चर्य पूछ भी रहा हूँ कि 'यह कैसे संभव हुआ बाबूजी? आप संस्कृत सीखने को बुलाते रहे और तब मैंने संस्कृत तो सीखी नहीं; फिर यह अनुवाद मैं कैसे कर गुज़रा? यह कैसा चमत्कार है?' पिताजी जाने किस महामौन में हैं, उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं मिलता मुझे और मैं टहलता जाता हूँ कमरे में निरंतर!

तत्क्षण स्वप्न का परिदृश्य बदलता है। मैं घर की देहरी पर निर्विकार खड़ा हूँ। तभी देखता हूँ, वही शोधार्थी कन्या एक गाड़ी में मेरे अनुवाद की प्रकाशित प्रतियाँ लादे चली जा रही है, जोर-जोर से गाती हुई--'हीर-हीर ना आँखों अड़ियो, मैं ते साहिबा होई, डोली ले के आवे, ले जावे...' मैं हतप्रभ निर्निमेष उसे जाता हुआ देखता रहता हूँ, बोलता कुछ नहीं।

और तभी मेरी नींद टूट जाती है। जागकर भी आश्चर्य में पड़ा हूँ और सोच रहा हूँ कि संस्कृत से अनुवाद मैंने किया तो किया कैसे!
थोड़ा चैतन्य होते ही किचन की खटपट सुनता हूँ। मुँहअँधेरे जागकर और सबके लिए नाश्ते का प्रबंध कर विद्यालय जाना श्रीमतीजी की दिनचर्या है। मैं श्रीमतीजी को आवाज़ लगाकर चाय बनाने को कहता हूँ। मेरी पुकार सुनकर वह तेजी से मेरे पास आती हैं और उलाहने के स्वर में कहती हैं--'कैसे सो रहे हैं जी? आधी तकिया पर आप, आधी पर आपकी किताब! मैंने तो इस मुद्रा की तस्वीर खींच ली है। उठिये, मुँह धोइये और चित्र देखिये। मैं चाय बनाती हूँ।'

मैं शय्या त्याग कर उठता हूँ। वाशरूम से लौटकर अपनी आँखों को ज्योति-दान देता हूँ अर्थात चश्मा लगाता हूँ, फिर देखता हूँ चित्र और स्पष्ट हो जाता है, स्वप्न के अनुवाद का सारा रहस्य यकायक!


तब तक चाय ले आती हैं कल्याणी...!

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

सूरज सपने में आया...

"सूरज आया फिर ज़द में,
मैंने भी देखी सुबह उसकी अंगड़ाई
वह बदल रहा था करवट
मैंने दूर से ही पूछा उससे--
'नयी सुबह ले आये क्या तुम,
इसीलिए मुस्काये क्या तुम?'
कुछ तो उसने कहा जरूर,
कुछ सुन न सका मैं,
था उससे बहुत-बहुत दूर।...
फिर तो चढ़ आया सूरज
आसमान की छाती पर,
लेकिन थोड़ा निष्प्रभ ही था
मेहराया-सा, ताप-विहीन!
मैंने विनोद में पूछा उससे--
'क्या हुआ रे दिनकर!
कहाँ गया तेरा वह तीखा तेवर
तप्त ताप और तेज प्रखर?
क्यों तू ऐसा निस्तेज खड़ा है
नभ के बीच निस्पंद पड़ा है?'
बहुत मीठा मुस्काया सूरज,
बोला मीठे स्वर में सूरज--
'अभी-अभी ली है अंगड़ाई,
दम धर ले तू मेरे भाई!
मई-जून तो आने दे
मुझको खुलकर गाने दे,
फ़िक्र बहुत है तुझको मेरी,
और लगी है मुझको तेरी!
मैं निस्तेज नहीं होता
धीरज कभी नहीं खोता
अनन्त काल से जलता हूँ
निर्धारित पथ पर चलता हूँ।
मेरा तेज नहीं घटता
और प्रदाह नहीं बढ़ता
मैं समभाव में रहता हूँ
विश्रांति बाँटता रहता हूँ।
नर्म लिहाफ़ का सुख ले ले
थोड़ा और सबर कर ले।
फिर बरसेगी अग्नि प्रखर
तू देखेगा मेरा तेवर।
फिर, जैसे ही हुई रात
भूल गया मैं दिन की बात
और लिहाफ़ में दुबक गया
सुख-सपनों में बहक गया।
तब सपने में आया सूरज
ग्रीष्म-ताप लाया सूरज!
छोड़ बिछावन, फेंक कंबल
औचक जागा, आँखें मल-मल,
कपड़े स्वेद से भीग गए थे
व्याकुलता के भी लक्षण थे,
जब स्वप्न-ताप से हुआ विकल
तब क्या होगा ना जाने कल।
नाहक सूरज से भिड़ आया
शीत में, ताप से लड़ आया!...
(तेजस्वी सर्य जब उत्तरायण हुए थे... 15 जनवरी, 2017)