शुक्रवार, 24 मार्च 2017

'बिजली' और 'आरती' का वो गुज़रा हुआ ज़माना...

[पूर्वपीठिका]
सन् 1936 में पूज्य पिताजी (पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') 26 वर्ष के युवा थे। सन् 1934 में, इलाहाबाद में, पितामह के देहावसान के एक साल बाद पिताजी पटना आ गये थे। विद्यालय-महाविद्यालय की कोई डिग्री तो उनके पास थी नहीं, लेकिन कुछ कर गुज़रने का अदम्य उत्साह था उनके मन में। अपने पितृश्री की कृपा-छाया में और जीवन की पाठशाला में उन्होंने जो कुछ अर्जित किया था, विद्वज्जनों के आत्मीय सान्निध्य से जो प्रसाद पाया था, वह स्वाध्याय की आँच में पककर उबल रहा था और ज्ञान-पात्र के किनारों से तड़पकर बाहर आने को अधीर था। कथा-कविता के विशाल फलक पर तब तक 'मुक्त' नाम अंकित हो चुका था। इलाहाबाद के दिनों का अर्जित संपादन-अनुभव ही उनकी पूँजी था।
सन् 35 में जब वह पटना आये, उस समय तक साहित्यिक गतिविधियों के मामलों में बिहार मरुभूमि-समान था। पूर्ववर्ती काल में कलकत्ता ही हिन्दी की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था, जहाँ महादेव सेठ के 'मतवाला-मण्डल' में निरालाजी, नवजादिकलाल श्रीवास्तवजी और शिवपूजन सहायजी की तिकड़ी जमी हुई थी। जब यह तिकड़ी टूटी, तब 'मतवाला' के मंच पर पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'जी अवतरित हुए, लेकिन सेठजी के अवसान के साथ ही 'मतवाला' का तिलस्म भी टूट गया और हिन्दी की गतिविधियों के तीन केन्द्रीय ध्रुव बन गये--इलाहाबाद, वाराणसी और लखनऊ। उन दिनों की याद करते हुए पिताजी ने निरालाजी के अपने संस्मरण "जुही की कली' के कवि : निराला" में लिखा है :
"...फिर बहुत समय बीत गया। हिन्दी के लिए कलकत्ता का वह महत्व न रहा, जो पहले था। उसकी जगह इलाहाबाद, काशी और लखनऊ ने ले ली। शिवपूजनजी काशी जा बसे। नवजादिकलालजी इलाहाबाद आ गये। निरालाजी प्रायः अपने गाँव में रहते, कभी-कभी लखनऊ आ जाया करते थे। उग्रजी अपनी जन्मभूमि में लौट आये थे, लेकिन वहाँ ज्यादा दिन टिके नहीं, बंबई चले गये। 'मतवाला' बंद हो गया और कुछ समय बाद सेठजी ने भी इह-लीला संवरण की।'
"मैं उन दिनों इलाहाबाद में ही था। इलाहबाद, वाराणसी और लखनऊ में हिंदी की गतिविधियाँ तीव्र हो गयी थीं। कलकत्ता की चमक-दमक अब इन त्रिपुरियों ने ले ली थी। बनारस में प्रसादजी और प्रेमचंदजी थे, इलाहबाद में पंतजी और महादेवीजी, लखनऊ का अखाड़ा निरालाजी ने संभाल रखा था। अब निरालाजी से मिलना-जुलना अधिक हो गया।...'
"काल-चक्र घूमता रहा। सन १९३४ में पिताजी का देहावसान हुआ। उसके एक साल बाद, पच्चीस वर्षों से सेवित प्रयाग छोड़कर मैं पटना आ बसा। लम्बे अंतराल के बीच यदाकदा निरालाजी के दर्शन तभी हुए, जब वह पटना या मुजफ्फरपुर के किसी साहित्यिक समारोह में पधारे। उस ज़माने में इलाहाबाद साहित्यिक और राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र था--पटना में साहित्यिक गतिविधि नाम की कोई चीज़ नहीं थी। इलाहबाद छूटा तो साहित्यिकों के संपर्क से भी मैं वंचित हो गया।..."
बिहार की राजधानी पटना से भी कोई स्तरीय साहित्यिक पत्रिका निकले, इस प्रदेश में भी थोड़ी साहित्यिक हलचल हो और हिन्दी की एक मशाल तो जले; इसी अभिप्राय से पिताजी ने सन् 36 में पटना से 'बिजली' नामक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन किया। वह पत्रिका शीघ्र ही चर्चित-समादृत हुई। पिताजी ने 'बजली' के माध्यम से बिहार के सहित्याकाश में ऐसी चपला चमकायी कि उसकी चकाचौंध से प्रभावित होकर उदीयमान लेखकों-कवियों की एक बड़ी जमात उनके साथ आ खड़ी हुई। पिताजी ने दो-ढाई वर्षों तक घोर परिश्रम किया और आर्थिक तंगी से जूझते हुए पत्रिका के प्रकाशन का दायित्व उठाते रहे।

पिछले दिनों मैं पटना गया तो पटनासिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय में मैंने 1936-37 की 'बिजली' की ज़िल्द देखी। आप कल्पना ही कर सकते हैं कि समय के इतने लंबे अंतराल के बाद 'बिजली' के अंकों का दर्शन करके मेरी मनोदशा क्या रही होगी! 1936 अर्थात् वह काल, जब मैं दुनिया से नदारद था। मेरे पास समय कम था और मेरी तलाश/ अनुसन्धान का लक्ष्य कुछ और...; फिर भी 'बिजली' से कुछ क्लिपिंग ले आया हूँ। आगामी कुछ किस्तों में उसी की चर्चा होती रहेगी, उसके अनंतर मासिक 'आरती' की भी।... और मुझे आशा है, उससे जुड़े रहना आपको प्रीतिकर लगेगा।...
(क्रमशः)
(चित्र : 'बिजली' का मुखपृष्ठ)

कोई टिप्पणी नहीं: