बुधवार, 28 जून 2017

मालूम था, सप्ताह में दो-तीन दिन माली आता है बेटी शैली के घर और देखभाल करता है बागीचे की, लेकिन मैंने कभी देखा नहीं था उसे। बीस दिनों के प्रवास में वह आया न हो, ऐसा तो नहीं है, मगर वह जब भी आया, मैं घर के अंदर, गुसलखाने में, शेव करता हुआ, अखबार पढ़ता या टीवी देखता रहा। आमना-सामना कभी हुआ नहीं था उससे मेरा। आज सुबह मैं बिलकुल उसके सामने जा पड़ा। तब मैं बारामदे में बैठा पान बना रहा था। वह आया और मुझसे छह फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। मुझे लगा, उसे कुछ कहना है मुझसे। मैंने आँख उठाकर देखा उसे, तो पाया कि वह मुझे ही एकटक देख रहा है। मेरी आँखें उससे जैसे ही मिलीं, वह मीठा मुस्कुराया। मैंने सोचा, मुस्कुरा लेने के बाद वह कुछ कहेगा, लेकिन वह चुप था और लगातार मुझे घूरने की हद तक देखता हुआ मुस्कुराता जा रहा था। यह मुझे कुछ अजीब-सा लगा। यह बात भी मन में उठी कि मानसिक रूप से वह स्वस्थ भी है या...

मुझे उम्मीद थी, वह नमस्ते कहेगा, 'गुड मार्निंग' बोलेगा, लेकिन वह तो मुस्कुराता हुआ 'मौनी बाबा' निकला। मन में आया कि कहूँ उससे, 'भले आदमी, जब कुछ कहना ही नहीं है तो जाओ, अपना काम करो।' लेकिन वह स्थायी भाव में था, अडिग था। अब क्या करूँ, कुछ समझ नहीं पाया। माली भाई तब ही सामने से हटे, जब मुझसे मेरी एक अदद विवश मुस्कान उन्होंने वसूल ली।...

आज ही लगे हाथ दूसरा-तीसरा हादसा भी हो गया। परसों की वापसी की यात्रा है मेरी। मैं, श्रीमतीजी और बेटी के साथ 'लुल्लू माॅल' चला गया। बचपन में महामूर्खतापूर्ण एक खेल खेला करता था--'लुल्लूपाला'। सिलाई के धागों में ढेला बाँधकर पेंच लड़ाना और प्रतिपक्षी के धागे को काटकर उसे परास्त कर सुख पाना। लगता है, उसी 'लुल्लू' नाम पर एशिया का बेस्ट माॅल उठ खड़ा हुआ है। क्या नहीं मिलता वहाँ! मैंने सोचा, कुछ मेवे-मसाले खरीद ले चलूँ, यहाँ बड़े अच्छे मिलते हैं। दोनों देवियाँ जानती हैं कि माॅल में बहुत हलकान होना मुझे प्रिय नहीं है और पान न मिलने से मेरे अस्तित्व का नेटवर्क भी 'वीक' हो जाता है, सो वांछित सामग्री खरीद लेने के बाद उन्होंने मुझे टरका दिया, कहा--'जाइये, कार में सामान सेट कीजिए और वहीं बैठकर पान खाइये, हम अभी आते हैं।'

मैंने उनकी बात मान ली, क्योंकि मेरा नेटवर्क भी कमजोर पड़ रहा था। पार्किंग में खड़ी कार में सामान रखकर मैं बैठ गया और पान बनाने लगा। तभी एक सम्भ्रांत व्यक्ति सामने से आते दिखे। पास आकर उन्होंने एक मीठी मुस्कान मेरी ओर फेंकी और जब तक जवाबी कार्रवाई में मैं अपनी चवनियाँ मुस्कुराहट उन्हें लौटा पाता, वह आगे बढ़ गये।

अभी पाँच मिनट ही बीते होंगे कि माॅल के गणवेश में चालीस के आसपास की एक महिला ट्राॅली समेटती दिखी। जिस ट्राॅली से मैंने सामान खाली किया था, उसे लेने वह कार के समीप आयी और पास पहुँचते ही उसने भी एक मीठी मुस्कान दी। एक बार तो भ्रम हुआ कि मुझमें कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं? लोग मुझे देख-देखकर मुस्कुरा क्यों रहे हैं आखिर? फिर मैंने तय पाया कि नहीं, गड़बड़ तो कहीं कुछ नहीं; अच्छा-खासा आधी बाहोंवाला श्वेत-स्वच्छ कुरता, वैसा ही धवल पायजामा, आँखों पर ऐनक और पाँवों में सैंडल--सब यथास्थान है, गड़बड़ क्या होगी भला? लेकिन इस दफ़ा मैंने देर नहीं की, लगे हाथ मैंने भी एक फीकी-सी मुस्कान लौटनियाँ उसे दे दी। विलंब करने में यह खतरा भी था कि कहीं वह भी मालीजी की तरह वहीं अँटक गयी और मुझे देखकर मुस्कुराती खड़ी रही, तो मेरा क्या होगा! लेकिन चिंतनीय कुछ नहीं हुआ और मेरी असहज मुस्कान लेकर वह चली गई। उसके चले जाने के बाद मन में खयाल आया कि काश, वह एक सम्भ्रांत विदुषी होती तो मैं भी, पान से पिटी और सड़ी हुई अपनी बत्तीसी बचाता हुआ, एक 'एक्सट्रा लार्ज' साइड की मुस्कान उसे दे ही देता।

मुझे फ़िक्र हुई, अपरिचित लोगों के इस तरह मुस्कान लुटाने के पीछे आखिर माजरा क्या है, यह मुझे बेटी से पूछना ही चाहिए। उसे यहाँ रहते हुए एक साल हो गया है, कुछ तो समझा ही होगा उसने, इस रहस्यमयी मुस्कान का राज़!

बेटी ड्राइव कर रही थी, मैं उसकी बगलवाली सीट पर था और उसकी माता पीछे। माॅल से लौटते हुए मैंने पूरी बात बेटी को बतायी। उसने कहा कि 'यह यहाँ का स्वाभाविक अभिवादन है। वैसे भी, मलियाली लोग वेशभूषा से भिन्न भाषा-भाषियों को चिह्नित कर लेते हैं, इसीसे वे एक स्माइल देकर ऐसे लोगों का स्वागत करते हैं।' बेटी की इस बात से मैं चकित हुआ।

दौड़ती कार मेें जब मैैं यही प्रसंग सुना रहा था और बात ट्राॅली समेटनेवाली महिला तक पहुँची थी, तभी श्रीमतीजी ने मेरी अतिभाषिणी जिह्वा थाम ली और कहा--'वह संभ्रांत विदुषी भी होती तो उससे आपको क्या फ़र्क पड़ता था?' पत्नी नामक प्रजाति में यही बड़ी ख़ामी होती है। वे मूलतः दोष-दर्शन और छिद्रान्वेषण की अधिकारिणी होती हैं। अगर मेरे मन में ऐसी कामना जगी भी थी, तो इसमें कोई दोष कहाँ था? बस, कामना-भर ही तो थी। मैैंने दबी जबान मेें कहा--'लेकिन, इसमें आपत्तिजनक क्या हैै?'

श्रीमतीजी ने जो कुुुछ कहा, वह रेेेखांकित करनेे योग्य हैै--'आपत्तिजनक तो कुुुुछ भी नहीं, बस आप यह नहीं समझ पा रहे कि यह आपका यूूूपी-बिहार नहीं, केेेेरल हैै, जहाँ शत-प्रतिशत साक्षरता है। सामान्य लोग भी अंंग्रेजी केे शब्द, वाक्य समझ लेेेेते हैैं, महिलाएँ स्कूटी चलाती हैं और पुरुष पिछली सीट पर बैठे होते हैं। यहाँ स्त्री-पुरुष का भेद ही मिट गया है। यदि पुरुष आपकी ओर देखकर मुस्कुरा सकता है और इसी रूप में आपका स्वागत-अभिनन्दन कर सकता है तो स्त्रियाँ भी ऐसा कर सकती हैं। आप अपना बिहारी चश्मा उतार कर देखेंगे, तभी यह फर्क भी समझ सकेंगे।'

श्रीमतीजी की बातों से मेरे ज्ञान-चक्षु हठात् खुल गये। मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा तो मुझे याद आया कि तीन दिन पहले ही जब मैं अथिरापल्ली प्रपात से लौटते हुए पहाड़ की चढ़ाई चढ़ रहा था, तो सामने से आती हुई हर उम्र की कई महिलाओं और पुरुषों ने मुझे अपनी मधुर मुस्कान से नवाजा था और मैं संकुचित हो उठा था। और, मार्ग में, हम सबों ने एकसाथ ही तो देखा था, एक ग्रामीण युवती को, जो अपने छोटे-से बालक और संभवतः पतिदेव को स्कूटर पर पीछे बिठाकर आराम से चली जा रही थी।...
बेटी और श्रीमतीजी की बातों से अब समझ में आया, वह मुस्कान अकारण तो नहीं ही थी, असहज भी नहीं थी। मैं ही अपने अनुभवों और संस्कारों के शिकंजे में था और उससे मुक्त नहीं हो पा रहा था।

मैं तो खैर पकी उम्र का व्यक्ति हूँ, श्रीमतीजी की अहैतुकी कृपा से सँभल भी गया हूँ; लेकिन अपने समस्त मित्रों को सावधान करना अपना दायित्व समझता हूँ कि यहाँ आपको कोई देखकर मुस्कुराये तो आप भी भद्रतापूर्वक मुस्कुराकर उसके अभिवादन-अभिनन्दन का प्रत्युत्तर दें। भारत की इस पावन भूमि में यथासंभव नजरें झुका के चलें, कहीं ऐसा न हो कि किसी से आपकी आँख लड़ जाए और आपको कोई मुगालता हो या मुस्कुराने की विवशता से आप किसी द्विविधा में पड़े हिचकोले खाने लगें... ठीक मेरी तरह।...
(14-06-2017)

रविवार, 25 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...(5)

(समापन किस्त)

सुधीजन जानते हैं, 'आवरा मसीहा' पुस्तक प्रभाकरजी के जीवन के चौदह वर्षों के अथक परिश्रम का प्रतिफल थी। मैं चाहता तो उसकी एक प्रति कहीं से भी खरीद सकता था, लेकिन उस प्रति पर प्रभाकरजी के हस्ताक्षर कहाँ से मिलते मुझे! उसकी एक प्रति मुझे उन्हीं के कर-कमलों से चाहिये थी, उनके आशीर्वाद के साथ। मैंने उसकी लंबी प्रतीक्षा भी की थी। अब वह अमूल्य प्रति मुझे हस्तगत हुई थी। मैं उपकृत हुआ उनके घर से पटना लौटा था।

लेकिन, यह मेरा दुर्भाग्य ही था कि कई वर्षों तक खूब जतन से रखी हुई वह प्रति मेरे चचेरे अनुज पढ़ने के लिए मुझसे माँगकर ले गये। तीन महीनों तक वह पुस्तक उन्होंने लौटायी नहीं तो मैंने उसकी माँग की। उन्होंने बहुत दुःखी होकर मुझे बताया कि 'भइया, मैं भी उसे पढ़ न सका। आपके यहाँ से लेकर जाते हुए ही वह साइकिल के कैरियर से राह में कहीं गिर गयी और मुझे पता भी न चला।' उनसे यह वृत्तांत सुनकर मैं बहुत आहत हुआ, ऐसा लगा जैसे कोई बहुमूल्य निधि मेरे हाथ से फिसल गयी है।... इतने महत्व की पुस्तक इतनी असावधानी से वह क्यों ले चले, यह समझना मेरे लिए कठिन था।... लोग पुस्तक-प्रेमियों की पीड़ा नहीं समझते शायद।

प्रभाकरजी से प्राप्त दूसरी पुस्तक 'अर्द्धनारीश्वर' की प्रति मेरे पास आज भी सुरक्षित है, उसके प्रथम पृष्ठ पर उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह द्रष्टव्य है--
"प्रिय बंधु आनन्दवर्धन ओझा को
बहुत-बहुत स्नेह के साथ,
पुराने दिनों की याद में--
--विष्णु प्रभाकर
25-1-1997."
प्रभाकरजी के इस छोटे-से उद्गार में मुझे उनकी सहज प्रीति की सुगंध मिलती है और मेरा मन उनकी प्रणति को मचल उठता है!...

लेकिन उसके बाद लंबे  समय तक मेरा दिल्ली जाना हो न सका। पिताजी के दिवंगत होने के बाद परिस्थितियाँ विषम हो गयी थीं। पत्नी पटना से बहुत दूर चक्रधरपुर में थीं, आगे की पढ़ाई के लिए बेटियाँ दिल्ली चली गयी थीं और सबसे बड़ी बात, छोटी बहन रुग्ण होकर शय्याशायी थी। मैं पटना में कीलबद्ध होकर रह गया था, युद्ध-भूमि में अभिमन्यु-सा अकेला! सन् 1999 में छोटी बहन भी साथ छोड़ गयी।...

फिर लंबा अरसा गुजर गया। प्रभाकरजी से पत्राचार पर अचानक विराम लग गया। उनके अस्वस्थ होने की खबरें समाचार पत्रों से मिलीं भी, तो मैं अवश-निरुपाय था।...श्रीमतीजी के स्थानांतरण की चेष्टाओं, बिखरी हुई गृहस्थी के जाल-जंजाल को समेटने, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रदत्त दायित्वों को निभाने और एक लघु पत्रिका के संपादन में मैं ऐसा मशगूल हुआ कि बाहरी दुनिया से असम्पृक्त-सा हो गया। प्रभु ने प्रभाकरजी को दीर्घायु प्रदान की थी। दीर्घ आयुष्य किसी के भी कष्ट का कारण होता है और प्रभाकरजी भी अपने हिस्से आयी वार्धक्य की कष्ट-पीड़ाएँ भोगते रहे... और जीवन के 97 वसंत देखकर जाने कब चलते-चलते दुनिया की गलियाँ छोड़ (11-4-2009) गये...! सच मानिये, इस कड़वे सच से मैं कई दिनों तक अनजान ही रहा और जब मुझे पता चला तो आत्मा में एक हाहाकारी तूफान उठा था...! आह! अब वह मोहिनी सूरत मुझे कभी देखने को नहीं मिलेगी, जिसमें दिखते थे मुझे बाबूजी!... वे मृदु स्वर भी अब सुनने को न मिलेंगे, जिनमें बाबूजी के स्वरों की अनुगूँज थी।...

मुझे लगता है, अपनी जीवन-यात्रा में प्रभाकरजी निरंतर चलते ही रहे, कहीं रुके नहीं, कभी थके नहीं। 'ज्योतिपुंज हिमालय' की तराइयों से उत्तुंग शिखरों तक चलते चले गये, चौदह वर्षों तक 'आवारा मसीहा' के धुँधले पदचिह्न ढूँढ़ते रहे, वह 'गंगा-यमुना के नैहर में' गये, 'हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी' को पद-दलित कर आये और इसी तरह अनिकेतन अथक यात्री बने रहे। और, अब तो वह अनन्त पथ के यात्री हो गये हैं...!


प्रभाकरजी की एकमात्र कविता-पुस्तक है--'चलता चला जाऊँगा'। नि:संदेह वह अपना सर्वस्व इस जगत् को सौंपकर चले गये...यहाँ तक कि अपनी कंचन-सी पार्थिव काया भी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के हवाले कर गये...! उनकी मधुर-मनोहर स्मृतियों को मेरा साश्रु नमन है!...
(समाप्त)

[चित्र : पुस्तक 'चलता चला जाऊँगा' का आवरण और 'अर्द्धनारीश्वर' के प्रथम पृष्ठ पर अंकित प्रभाकर जी के अक्षर, 25 जनवरी,1997.]

शनिवार, 24 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...(4)

पिताजी के प्रयाण के बाद भी प्रभाकरजी के पत्र आते रहे, लेकिन पत्राचार की गति शिथिल होती गयी। सन् 1997 के जनवरी महीने में कुछ ऐसी विवशता आ पड़ी कि मुझे दिल्ली जाना पड़ा। 'विवशता' इसलिए कह रहा हूँ कि घर पर बीमार छोटी बहन को छोड़कर जाना पड़ा था, श्रीमतीजी भी अपनी नौकरी के कारण पटना से बाहर थीं, छोटे भाई और बड़ी बेटी के भरोसे घर छोड़ आया था। दिल्ली पहुँचकर मैं काम की भीड़-भाड़ और भाग-दौड़ में लग गया था, फिर भी मन की यह ज़िद थी कि प्रभाकरजी के दर्शन अवश्य करने हैं।
मैं वक्त निकालकर सुबह-सुबह उनके घर, अजमेरी गेट के पास, कुण्डेवालान पहुँचा। प्रभाकरजी बैठके में अपनी शय्या पर अधलेटे मिले। क्लांत दिखे, थोड़े कृश भी। प्रणाम करके मैं उनके पास ही सोफ़े पर बैठ गया और बातें करने लगा। मुझे देखकर उनके मुख-मण्डल पर दो क्षण के लिए प्रसन्नता की चमक दिखी और फिर फीकी पड़ गयी। मैंने पूछा--'क्यों, तबीयत ठीक नहीं है क्या?'
उन्होंने बुझी हुई आवाज़ में कहा--'जैसा प्रभु ने रख छोड़ा है, वैसा ही हूँ। शरीर की शक्ति बहुत घट गयी है। अब तो ठीक से लिखना-पढ़ना भी नहीं हो पाता।'

सिद्ध लेखक कुछ लिख न सके, अध्यवसायी कुछ पढ़ न सके तो वह पीड़ित होता है; क्योंकि वही तो उसकी जीवनव्यापी साधना होती है और मनोरंजन भी। यह मैं अपने अपने अनुभव से जानता हूँ। तब पिताजी को गुजरे एक साल दो-ढाई महीने ही हुए थे, वह भी अपने अंतिम दिनों में कहने लगे थे--'अब लिखना-पढ़ना कुछ हो नहीं पाता तो जीने की इच्छा नहीं होती।'... लिहाजा, जीना है तो कार्यक्षम रहते हुए जीना है और उसकी अनिवार्य शर्त लिखना-पढ़ना है।

प्रभाकरजी के मुख से ठीक यही बात सुनकर मुझे उनमें पिताजी दिखे। मैंने उनसे कहा--'बाबूजी भी यही कहने लगे थे, जब उनके लिए लिखना-पढ़ना कठिन होने लगा था।'
प्रभाकरजी ने आर्त्त स्वरों में कहा था--'मैं भी उन्हीं की राह पर हूँ आनन्द!'
फिर तो हमारी बातें पिताजी की स्मृतियों में खो गयीं। प्रभाकरजी पिताजी को याद करते हुए उनके संस्मरण सुनाने लगे कि 'जब वह मेरे घर दो दिनों के लिए ठहरे थे तो ऊपरी माले पर अपने कमरे में जाते हुए भयभीत हो जाते थे; क्योंकि उन्हें आँगन के बीचो-बीच लगी लोहे की जाली को पार करना पड़ता था, जिससे नीचे का भू-भाग दिखायी पड़ता था।'

पिताजी से सम्बद्ध कई प्रसंग सुनाते हुए प्रभाकरजी की कंथा दूर हो गयी थी, वह मुखर हो उठे थे और बीच-बीच में हँस पड़ते थे। उन्हें प्रसन्न और प्रकृतिस्थ हुआ देखकर मुझे खुशी हुई थी।...

हमारी यह मुलाकात लंबी खिंच गई। इस बीच मैंने अंदर से आयी चाय पी ली थी और कुछ भोज्य पदार्थ भी ग्रहण कर लिया था। अब मुझे लौटकर कुछ काम निबटाने थे और पटना के लिए रात की गाड़ी पकड़नी थी। चलने के ठीक पहले मैंने प्रभाकरजी से कहा--"आवारा मसीहा' कई साल पहले ही मार्त्तण्ड बाबूजी की लाइबरी से लेकर मैंने पढ़ी थी, लेकिन मैं चाहता हूँ कि उसकी एक हस्ताक्षरित प्रति मैं अपने पास सुरक्षित रखूँ। बहुत पहले आपने उसकी एक प्रति मुझे देने का आश्वासन भी दिया था।"

प्रभाकरजी 'ठहरो' कहते हुए बमुश्किल उठ खड़े हुए और धीरे-धीरे चलते हुए घर के अंदर दाखिल हुए। पाँच मिनट बाद ही वह वापस आये। उनके हाथ में एक नहीं, दो पुस्तकें थीं। वह शय्या पर बैठे, कलम उठायी और पुस्तक की जिल्दें पलटकर उस पर कुछ लिखने लगे। मैं कुतुहल-जड़ित शिशु-सा उन्हें देखता रहा। लिख लेने के बाद दोनों प्रतियाँ मुझे देते हुए बोले--"आवारा मसीहा' ही नहीं, तुम 'अर्द्धनारीश्वर' नाम का यह उपन्यास भी ले जाओ, पढ़ना इसे, अकादमी से पुरस्कृत ग्रंथ है यह !"

मैंने पुस्तकों को सिर नवाया, प्रभाकरजी के चरण छुए और चलने को उठा खड़ा हुआ तो उन्होंने कहा--"फिर जब कभी दिल्ली आना तो जरूर मिलना।' मैंने स्वीकृति दी, करबद्ध हो पुनः प्रणाम किया और चल पड़ा।...
(क्रमशः)

[चित्र : 'आवारा मसीहा' की प्रति और उस काल-समय का मैं.]

शुक्रवार, 23 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...(3)


साहित्य की हर विधा में प्रभाकरजी ने प्रचुर लेखन-कार्य किया। उन्होंने नाटक लिखे, उपन्यास लिखे, कहानियाँ और कविताएँ लिखीं, तो जीवनी और भ्रमण-वृत्तांत भी लिखा। वह सर्वप्रिय साहित्यकार थे, हर दीर्घा, हर प्रकोष्ठ, हर गोलबंदी में उनकी पैठ थी और सर्वत्र उन्हें समादर प्राप्त था। अलंकरण-उपाधियों-सम्मानों की उन पर वर्षा हुई थी, लेकिन वह अनासक्त भाव से सब ग्रहण कर आगे बढ़ चले। राष्ट्रपति-भवन में हुए दुर्व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने 'पद्मभूषण' जैसी उपाधि लौटा दी थी और साहित्य जगत् में तहलका मच गया था। उनमें अभिमान लेश मात्र नहीं, किन्तु स्वाभिमान पर्याप्त मात्रा में था।

एक बार उन्हीं के पत्र से पता चला कि कोलकता के किसी आयोजन में सम्मिलित होकर वह अमुक ट्रेन से पटना होते हुए दिल्ली लौटेंगे, लेकिन पटना रुकेंगे नहीं। पटना के लिए एक दिन भी न निकाल पाने पर उन्होंने क्षोभ व्यक्त किया था। पत्र पिताजी को संबोधित था। मैंने पिताजी से कहा--'मैं स्टेशन जाकर ट्रेन में प्रभाकरजी से मिलना चाहूँगा।' पिताजी ने सचेत करते हुए कहा था--'ट्रेन तो थोड़ी देर ही रुकेगी और तुम्हें यह भी मालूम नहीं कि प्रभाकरजी किस कोच में सफ़र कर रहे होंगे। जब तक तुम उन्हें ढूँढ़ोगे, ट्रेन चल पड़ेगी।'

लेकिन, नियत तिथि को मैं सपत्नीक स्टेशन गया था और श्रीमतीजी के कहने पर प्रभाकरजी के लिए थोड़े फल और मिष्टान्न साथ लेता गया था। जैसा पिताजी ने कहा था, उस भीड़-भड़क्के में प्रभाकरजी को ढूँढ़ निकालने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगा, लेकिन वातानुकूलित डब्बों की संख्या तीन-चार ही थी, हमने उन्हें खोज निकाला। अचानक मुझे सम्मुख उपस्थित देख प्रभाकरजी खिल उठे। वह सपत्नीक यात्रा कर रहे थे। हमने उन दोनों के चरण छुए। श्रीमतीजी चाचीजी के पास बैठकर बातें करने लगीं। प्रभाकरजी ने मुझसे कहा--'इतनी जहमत उठाने की क्या आवश्यकता थी? बस, दो घड़ी की मुलाकात के लिए तुम घर से इतनी दूर क्यों चले आये?' मैंने मुस्कुराते हुए कहा--'बहुत दिन हो गये थे, आपसे मिले हुए...और आप पटना से होकर गुजर रहे थे, मैंने सोचा, इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।...और, मैं चला आया।'... मेरा उत्तर सुन प्रभाकरजी मुग्ध हुए और एक मीठी मुस्कान उनके अधरों पर खेल गयी।

हम दोनों की शक्लों पर मिल पाने का संतोष और स्वाभाविक प्रसन्नता मूर्त्त थी। श्रीमतीजी बातों में मशगूल, यह भूली बैठी थीं कि फल-मिठाई का पैकेट उन्हें देना भी है। मेरा ध्यान भी उस ओर नहीं गया। अचानक ट्रेन ने चलने के पहले सावधान करनेवाली सीटी बजायी। हम शीघ्रता से उतरने को तत्पर हुए और पुनः चरण स्पर्श को झुके, तब श्रीमतीजी को खाली हाथों की जरूरत पड़ी और उन्हें हाथ के पैकेटों का खयाल आया। उसे चाचीजी के सुपुर्द करते हुए उन्होंने कहा--'यह आपके लिए है!' तदनन्तर हड़बड़ी में प्रणाम कर वह आगे बढ़ीं और उनके पीछे मैं भी। पीठ पीछे से आती चाचीजी की आवाज हमें सुनाई पड़ी--'अरे साधना, तुम नाहक यह सब ले आयीं। कलकत्ता वालों ने इतना सारा खाने-पीने का सामान...!' और उनकी आवाज मद्धम होती हुई शोर-शराबे में विलीन हो गयी।...

स्नेहमयी चाचीजी से वही अंतिम मुलाकात थी हमारी। कालांतर में प्रभाकरजी की पुस्तक 'शुचि स्मिता' में उनकी मर्मस्पर्शी गाथा ही हमारे बीच रह गयी, जिसे पढ़कर मेरी आँखें सजल हो उठी थीं। वह ममतामयी माता भी संसार-सागर से विमुक्त हो गयी थीं।...

सन् 88 में अलीगढ़ में डाॅ. पाहवा से एक आँख की शल्य-चिकित्सा के उपरांत आँख पर हरी पट्टी बाँधे पिताजी दिल्ली गये थे और एक-दो दिनों के लिए प्रभाकरजी के अतिथि बने थे। सन् '95 में पिताजी के निधन के बाद प्रभाकरजी ने एक संस्मरणात्मक आलेख उन पर लिखा था, जो नवभारत टाइम्स की समस्त इकाइयों के संपूरक अंक में छपा था। वह अंक पटना में मुझे भी हस्तगत हुआ था, जिसे पढ़कर मैं भावुक हो गया था।...

पिताजी को लिखे उनके कई पत्रों की कतिपय पंक्तियाँ मर्मवेधी हैं। दरअसल, अपने उत्तर जीवन में उन्हें हृदयहीन व्यवसायियों से लोहा लेना पड़ा था जो उन्हीं के कुण्डेवालान स्थित घर के बाहरी परिक्षेत्र के पुश्तैनी किरायेदार थे। उनसे नाममात्र का किराया मिलता था और वे बहुत बड़े भू-भाग पर काबिज़ थे। कई निवेदनों-मनुहारों के बाद भी उसे खाली करने को वे तैयार नहीं थे। एक सहृदय साहित्यिक, एक संवेदनशील रचनाकार, एक भावुक कवि और एक कल्पनालोक में विचरण करनेवाले मसिजीवी के लिए यह जागतिक रस्साकशी प्राणांतक पीड़ा देने वाली थी। अपनी यह पीड़ा कई मुलाकातों में उन्होंने पिताजी के सम्मुख व्यक्त की थी और उनके पत्रों में भी इस पीड़ा के स्वर-संकेत उभर आते थे।...

पिताजी के निधन के बाद मेरे एक पत्र का उत्तर देते हुए उन्होंने 1 फरवरी 96 को लिखा था--"...काम तो मैं भी करता हूँ, पर अब थक गया हूँ। और कुछ समस्याएँ ऐसी, जिनका हल कब होगा, पता नहीं। भ्रष्टाचार के दावानल में इंसानियत तो समाप्त ही हो गयी। गुण्डा और पैसा दो ही साधन हैं। दोनों ही हमारी सीमा से बाहर हैं। अब जो होना होगा, हो जाएगा।
बस, एक ही बात है, मैं भी अब किनारे पर हूँ, पता नहीं कौन-सा क्षण अंतिम हो। बस यही चाहता हूँ, उस अंतिम क्षण तक जागृत रहूँ।..."

प्रभाकरजी के इस पत्र को पढ़कर मेरा मन व्यथित हुआ था। वह नितान्त सहृदय-निष्कलुष व्यक्ति थे, मैं नहीं जानता, प्रभु ने यह पीड़ा उन्हें क्यों दी थी। मैं यह भी नहीं जानता कि उनके जीवनकाल में उन्हें इस पीड़ा से मुक्ति मिली भी या नहीं।...
(क्रमशः)

[चित्र  : प्रभाकरजी का 1 फरवरी 1996 का वह मार्मिक  पोस्टकार्ड.]

गुरुवार, 22 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...(2)

बहरहाल, वे सपनों-से दो दिन बीत गए, लेकिन मुझे प्रभाकरजी की सहज प्रीति और अविरल स्नेह की डोर से हमेशा के लिए बाँध गए। सन् '76 के उत्तरार्द्ध में अचानक स्थानांतरित होकर मैं पुनः दिल्ली पहुँच गया और '79 के अंत तक दिल्ली में ही रहा। इन तीन वर्षों में ऐसे अनेक अवसर मिले, जब प्रभाकरजी के दर्शन हुए, मिलना हुआ और सभा-समितियों में उनकी वाग्मिता से परिचित होने का मौका भी मिला। गाँधीवादी युग का पूरा प्रभाव उनके विचारों, उनके व्यक्तित्व और परिधान में दृष्टिगोचर होता था। खादी का मोटा कुरता-पायज़ामा, जिस पर शोभायमान खादी की बंडी, सिर पर दुपल्ली गाँधी टोपी, कंधे से लटकता खादी का झोला, आँखों पर ऐनक और गले से लिपटा मफ़लर--यही उनका परिधान आजीवन रहा। वह बहुत संतुलित, मधुर और सारगर्भित वचन बोलते थे।

मुझे याद है उस सभा की, जो दरियागंज (दिल्ली) से आनेवाली सड़क के चौराहे पर हुई थी--आसिफ़ अली गेट पर। उस सभा मेें प्रभाकरजी के साथ जैनेन्द्रजी भी पधारे थे। तब मैैैं राजकमल प्रकाशन के संपादकीय विभाग से संबद्ध था। भोजनावकाश में भागकर उस सभा में मैं सम्मिलित हो गया था। जब पहुँचा तो प्रभाकरजी बोल रहे थे। मैं ध्यान से सुनने लगा। एक दुरूह विषय पर वह बोल रहेे थे और इतनी सहजता से विषय का प्रवर्तन कर रहे थे कि मैैैं उसके सम्मोहन में बँधा रहा--मंत्रमुग्ध-सा! उनके बाद जैनेेेन्द्रजी माइक पर आये। वह तो ख्यात वाग्मी थे ही। उनकी वाग्मिता भी ऐसी थी कि मैं वहीं ठगा-सा खड़ा रह गया और मुझे दफ्तर लौटने की सुध न रही। शाम चार बजेे सभा समाप्त हुई तो मैैं भागा-भागा दफ़्तर पहुँचा और मुझे प्रबंध निदेशिका श्रीमती शीला संधुजी का कोपभाजन बनना पड़ा।...

मेरे स्मृति-कोश में ऐसे अनेक अवसरों की यादें सुरक्षित हैं, जिनमें प्रभाकरजी प्रमुखता से उपस्थित हैं; चाहे वे साहित्यिक गतिविधियों के कार्यक्रम रहे हों या पारिवारिक आयोजनों के; क्योंकि पिताजी के साथ मैं भी अनिवार्य रूप से हमेशा उनके साथ होता था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी के अवसान पर गाँधी शांति प्रतिष्ठान के प्रांगण में जुटे साहित्यिकों में प्रभाकरजी भी उपस्थित थे और सन् '79 में जब मार्त्तण्ड उपाध्यायजी का निधन हुआ था, तब भी अपने अग्रज मित्र को विदा करने के लिए प्रभाकरजी घर से श्मशान-भूमि तक हमारे साथ चले थे। उनकी मार्त्तण्डजी से पुरानी और पारिवारिक घनिष्ठता थी। सबके मुख-मण्डल पर अपने-अपने अंतर्संबंधों से उपजी शोक की छाया थी तब...!

जब दिल्ली छूटी और मैं हरद्वार में तीन वर्ष व्यतीत कर पटना लौटा, तब भी प्रभाकरजी से पत्राचार होता रहा। उनके ज्यादातर खत तो पिताजी के पास आते, लेकिन उन पत्रों में भी वह मेरी खोज-खबर लेते रहते थे। बड़े स्नेही थे प्रभाकरजी! मुझे ठीक याद नहीं कि वह किस सन् की बात है, लेकिन जब उन्हें बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा सम्मान दिया गया था और वह उसे ग्रहण करने पटना आये थे, तब सम्मान प्राप्त करने के पहले मेरे घर पधारे थे। उन्होंने पिताजी को विनम्रतापूर्वक प्रणाम करते हुए कहा था--'मैंने सोचा, सम्मान ग्रहण करने से पहले आपका आशीर्वाद ले लूँ।' पिताजी और प्रभाकरजी की उस मुलाकात का दृश्य अपूर्व था। पिताजी कहते ही रह गये कि 'भाई, हम तो हमउम्र हैं' और प्रभाकरजी ने झुककर बाकायदा उनसे आशीर्वाद की याचना की थी। पिताजी प्रफुल्लित और हर्ष-गद्गद थे और प्रभाकरजी उपकृत! प्रभाकरजी सदल-बल पधारे थे--जिसमें उनकी अगवानी कर रहे सरकार के प्रतिनिधि तो थे ही, पत्रकारों की एक टोली भी थी। कई लोग तो घर के बाहर ही रुक गये थे। वह अधिक समय तक रुके नहीं, लेकिन जितनी देर ठहरे, हमारे छोटे-से घर में गहमा-गहमी बनी रही।...
(क्रमशः)

बुधवार, 21 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...

[मित्रों, प्रख्यात साहित्यकार स्व. विष्णु प्रभाकरजी की आज जयन्ती है। सौभाग्य से मैं उनका स्नेहभाजन रहा हूँ। उन पर कुछ लिखने की इच्छा बहुत दिनों से मन में थी। जानता था, लिखने की बातें मेरे पास हैं, लेकिन यह स्मृति-लेख पूरा लिख न सका था। आज उस अकर्मण्यता से मुक्त होकर यह लंबा संस्मरण आप सबों के सामने रख रहा हूँ और इसी रूप में उनकी पावन स्मृतियों को स्मरण-नमन कर रहा हूँ।
--आनन्दवर्धन.]

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रद्धेय विष्णु प्रभाकरजी के दर्शन का सौभाग्य पहली बार मुझे कब मिला था, यह स्पष्टतः स्मृति में अंकित नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि सन् 1971 में जब मैं पहली बार दिल्ली-दर्शन के लिए पिताजी के साथ वहाँ गया था और पिताजी अपने एक पुराने मित्र (जो दो वर्ष बाद ही उनके समधी भी बने) मार्तण्ड उपाध्यायजी से मिलने उनके दफ़्तर 'सस्ता साहित्य मण्डल, कनाॅट प्लेस जाने लगे तो मैं भी उनके साथ गया था; सम्भवतः विष्णु प्रभाकरजी के प्रथम दर्शन मुझे वहीं मिले थे। उनके एक-दो नितांत औपचारिक प्रश्नों के उत्तर देने के अतिरिक्त मेरी और कोई बात उनसे नहीं हुई थी। तब उन्हें देखना, उनकी बातें सुनना और मेरा प्रणाम निवेेेेदित करना ही हुआ था। मार्त्तण्ड उपाध्यायजी, यशपाल जैनजी, विष्णु प्रभाकरजी और सम्मान्य वियोगी हरिजी के दत्तक सुपुत्र भगवद्दत्त 'शिशु'जी की प्रियवार्ता होती रही और मैं मूक श्रोता ही बना रहा।...

संयोग कुछ ऐसा बना कि सन् '74 में पिताजी को लोकनायक जयप्रकाशजी के आग्रह पर पटना छोड़ दिल्ली जाना पड़ा। कुछ महीने बाद, स्नातक की परीक्षा से निवृत्त होकर, मैं भी उन्हीं के पास पहुँच गया। दिल्ली की कई साहित्यिक सभाओं में विष्णु प्रभाकरजी के दर्शन और उनके व्याख्यान सुनने का अवसर प्राप्त होता रहा, लेकिन वह दूर का दर्शन ही था। कभी-कदाचित् उन्हें प्रणाम निवेदित करने का अवसर भी मिल जाता था, लेकिन उनकी आँखों में मुझे अपने लिए अपरिचय का भाव ही अधिक दिखता। सन् '75 के अगस्त महीने में मैं अपनी पहली नौकरी पर कानपुर चला गया और उनकी निकटता पाने से वंचित रह गया।...

21 जून 1912 को मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के मीरापुर ग्राम में जन्मे विष्णु प्रभाकरजी से पिताजी की पुरानी मित्रता थी--आकाशवाणी सेवा-काल की, 1955-56 की, जब वह बतौर नाट्य-निर्देशक दिल्ली में सेवारत थे। वह पिताजी से दो-ढाई वर्ष छोटे थे और पिताजी को वयोज्येष्ठता का पूरा सम्मान देते थे। उनका आरम्भिक जीवन संघर्षपूर्ण था। उन्होंने बहुत परिश्रम और स्वप्रयत्न से अध्ययन किया था, उपाधियाँ अर्जित की थीं, भाषाएँ सीखी थीं और अंततः सन् '57 में सेवा-मुक्त होकर स्वतंत्र लेखन को ही अपनी आजीविका के रूप में चुना था। यह जोखिम-भरा निर्णय था, लेकिन वह अपने निश्चय पर अडिग रहे और आजीवन लेखकीय दायित्वों का निर्वहन करते रहे। उन्होंने उत्कृष्ट गद्य-लेखन किया। वह गाँधीवादी युग के अप्रतिम रचनाकार थे। उनकी कृतियों में देश-प्रेम, राष्ट्रवाद और सामाजिक उत्थान की प्रबल भावना मुखरित हुई है।

कानपुर की नौकरी के दौरान ही मुझे विष्णु प्रभाकरजी के निकट आने तथा उनका स्नेहभाजन बनने का सुयोग प्राप्त हुआ था। स्वदेशी की सेवा के दौरान ही वहाँ मुझे मिले थे प्रभाकरजी के सुपुत्र--अमित भैया! लेकिन इसकी जानकारी मुझे बहुत बाद में हुई थी। वह मेरे खेल-मित्र थे और स्वदेशी के वरिष्ठ अधिकारी। हमारे बैचलर क्वार्टर के पीछे बने ऑफिसर्स क्वार्टर में सपत्नीक रहते थे। सुदर्शन युवा थे। उनसे सिर्फ क्लब में मिलना होता। मैं उनके साथ टेबल टेनिस खेलता। हमारी जोड़ी खूब जमती थी।

उन दिनों ही मैं अपने एक कृत्य के लिए बहुत प्रसिद्धि पा रहा था। वह कृत्य पराविलास था, जिसके लिए पिताजी की वर्जना मुझे मिलती रहती थी। एक दिन खेलकर हम दोनों पसीने-पसीने हुए कुर्सियों पर बैठ गए थे। थोड़े विश्राम के बाद घर जाते-जाते अमित भइया ने कहा--'मैं चार-पांच दिन क्लब नहीं आ सकूँगा। दिल्ली से मेरे माता-पिताजी आनेवाले हैं।' मैंने औपचारिकतावश उनसे पिताजी का नाम पूछ लिया। अमित भइया बोले--'वह जाने-माने साहित्यकार हैं। तुम तो हिंदी में रुचि रखते हो, तुमने उनका नाम अवश्य सुना होगा। उनका नाम है--श्रीविष्णु प्रभाकर।'
उनसे यह जानकार मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि वह स्वनामधन्य विष्णु प्रभाकरजी के सुपुत्र हैं। मैंने हुलसकर कहा--'वह तो मेरे पिताजी निकट मित्र हैं। १९७१ में उनसे मेरी एक मुलाकात भी हुई है--सस्ता साहित्य मण्डल कार्यालय में--कनॉट प्लेस में। संभव है, उन्हें इसका स्मरण न हो, लेकिन आप मेरे पिताजी का नाम लेंगे तो वह निश्चय ही पहचान लेंगे।'
अमित भाई ने मेरे पिताजी का नाम पूछा। मैंने पिताजी का पूरा नाम बताकर उनसे कहा--"आप उनसे सिर्फ 'मुक्तजी' कहेंगे तो भी वह पहचान लेंगे।"

इसके बाद दो दिन बीत गए। अमित भइया के क्लब में दर्शन न हुए। मैं समझ गया कि वह अपने माता-पिताजी के साथ व्यस्त होंगे। मेरे मन में यह इच्छा अवश्य थी कि एक बार फिर विष्णु प्रभाकरजी के दर्शन होते। दूसरे दिन शाम के वक़्त अमित भाई ने अपने सेवक को मेरे पास भेजा और सूचित किया कि पिताजी चाहते हैं, कल सुबह की चाय मैं उनके साथ पियूँ। मैं प्रफुल्लित हो उठा और सेवक से मैंने कल आने की स्वीकृति भेज दी।

सुबह तैयार होकर मैं पहली बार अमित भइया के घर पहुँचा। उस दिन विष्णु प्रभाकरजी से मिलकर परमानन्द हुआ। वह सौम्य-मूर्ति, संयत-सम्भाषी और अति स्नेही व्यक्ति थे। वह पिताजी का बड़े भाई की तरह बड़ा आदर-सम्मान करते थे। उस पीढ़ी के लोगों में आचार-व्यवहार की यह मानक परम्परा थी और लोग इसका पालन बहुत सावधानी से किया करते थे। यह पिताजी की घनिष्ठ मित्रता का ही प्रभाव था कि उस दिन वह बहुत प्रेम से मिले, पिताजी और मेरे काम-धंधे के बारे में पूछते रहे। इसी बीच अमित भाई बोल पड़े--'आनंद तो यहाँ बड़े साहस का काम कर रहे हैं। आत्माओं को बुलाते हैं और उनसे बातें करते हैं।'
विष्णु प्रभाकरजी ने ठीक पिताजी की तरह ही मुझसे कहा था--"मनुष्य को प्रकाश की तरफ बढ़ाना चाहिए, अंधकार की ओर नहीं। परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है और एक अँधेरी दुनिया में भटकने का कोई लाभ नहीं है। संभव है, इससे किसी का हित हो जाए, किसी को मनःशांति मिले, लेकिन किसी की हानि भी तो हो सकती है। इस दुविधापूर्ण दिशा में बढ़ने का क्या लाभ?'

मैं संकोच से गड़ा जा रहा था, शांत था; लेकिन चाहता था कि किसी तरह बात की दिशा बदल जाए। तभी बड़ा अच्छा हुआ कि श्रीमती प्रभाकर (पूजनीया चाचीजी) अपनी बहूजी के साथ चाय-नाश्ता लेकर आयीं। मैंने उनके चरण छुए और उनका आशीष पाकर धन्य हुआ। अब बात की दिशा स्वतः बदल गई थी। चाचीजी बहुत मृदुभाषिणी महिला थीं। उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे बहुत कुछ खिलाया और चाय पिलाई। जब चलने को हुआ तो बोलीं--'तुम मेस का भोजन करते हो न, कैसा खाना बनता है वहाँ?' मैंने कहा--'ठीक-ठाक, उदर-पूर्ति हो जाती है।'
मेरे उत्तर से उन्होंने जाने क्या अभिप्राय ग्रहण किया कि तत्काल मुझसे कहा--'तो ठीक है, आज रात का खाना तुम हमारे साथ ही कर रहे हो--घर का भोजन ! तुम्हें खाने में क्या पसंद है, मैं वही बनाऊँगी, बोलो !' उनकी सहज और अनन्य प्रीति से मैं अभिभूत हो उठा था। मैंने कहा--'आप जो भी बनाएंगी, मैं प्रसन्नता से खाऊँगा।'

उनकी ममतामयी मूर्ति देखकर और उनकी बातें सुनकर मुझे अपनी माँ की याद आ रही थी।
अमित भइया के यहाँ रात के भोजन के वक़्त भी अमित आनंद हुआ। उन दिनों प्रभाकरजी की पुस्तक 'आवारा मसीहा' बहुत चर्चा में थी। वहाँ से परम तृप्त और आप्यायित हुआ जब लौटने लगा तो मैंने उनसे अपने लिए 'आवारा मसीहा' की एक प्रति मांगी तो बोले--'यहां तो प्रतियाँ हैं नहीं, तुम जब दिल्ली आओगे, तो उसकी प्रति तुम्हें अवश्य दूँगा। '

दो दिनों में श्रद्धेय विष्णु प्रभाकरजी के दो बार दर्शन पाकर और उनके सान्निध्य से मन बहुत प्रसन्न हुआ था, लेकिन उनकी वर्जना के शब्द कानों में निरंतर गूँज रहे थे--'मनुष्य को अन्धकार की ओर नहीं, प्रकाश की दिशा में बढ़ना चाहिए और…परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...!'
(क्रमशः)

मंगलवार, 13 जून 2017

'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था...' (4) पं. हंसकुमार तिवारी

रेल की देशव्यापी हड़ताल खत्म क्या हुई, सेवा-दान का वह अनुबंध भी समाप्त हो गया। हमें अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर गया से पटना लौट आना पड़ा। इतना भी वक्त नहीं मिला कि एक बार हंसकुमारजी से मिलकर बता आता कि पटना लौट रहा हूँ।

उसके बाद स्थितियों ने तेजी से करवट बदली। समय को पंख लगे। पिताजी दिल्ली जा बसे और कालांतर में मैं भी दिल्लीवासी बना। लेकिन, पटना छोड़ने से पहले, सन् 1975 के आरम्भिक महीने में, मैं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पिताजी के किसी काम से गया तो परिसर में ही एक अधिकारी महोदय से ज्ञात हुआ कि निदेशक के कक्ष में पं. हंसकुमार तिवारीजी विराजमान हैं। मैंने समझा, हंसकुमारजी निदेशक से मिलने आये होंगे। मैं हुलसकर निदेशक के कक्ष में प्रविष्ट हुआ तो देखा कि वह तो निदेशक के आसन पर बैठे हैं। बिहार सरकार राजभाषा विभाग में उन्होंने 'राजभाषा पदाधिकारी' के रूप में सन् 1951 में पद-भार सँभाला था और उसी विभाग से सेवा-मुक्त हुए थे। यह जानकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई थी कि शासन ने उन्हें राष्ट्रभाषा परिषद् का निदेशक (8-1-1975 से 31-12-1977) मनोनीत किया था। सुदर्शन व्यक्ति तो वह थे ही, श्वेत वस्त्र-परिधान में और भी आकर्षक व्यक्तित्व लग रहा था उनका। उनके आसपास एक प्रभा-मण्डल होता था। उस वक्त भी मैं इतना छोटा था कि उन्हें बधाई देने की मेरी योग्यता नहीं थी, मैंने चरण-स्पर्श कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। मुझे देखकर वह खुश हुए, पिताजी और घर-परिवार की कुशलता पूछते रहे।...



हंसकुमार तिवारीजी राष्ट्रीय चेतना के अनूठे कवि थे, बांग्ला और हिन्दी दोनों भाषाओं पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने बांग्ला के श्रेष्ठ साहित्य को हिन्दी में यथावत् भाषान्तरित किया था। मुझे लगता है, उन्होंने बांग्ला के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों की शताधिक कृतियों का अनुवाद तो अवश्य किया होगा। और, इस कार्य में उन्होंने अथक परिश्रम के साथ अपने जीवन का लंबा श्रमसाध्य वक्त व्यतीत किया था। उन्होंने कहानियाँ लिखीं, नाटक लिखे और आलोचनाओं-निबंधों की लंबी श्रृंखलाएँ रचीं। यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई थी कि 'साप्ताहिक बिजली' के संपादन में भी उन्होंने सन् 1938-39 में सहयोग किया था। कालांतर में 'किशोर' (पटना) और 'उषा' (गया) नामक पत्रिका का संपादन करते रहे। साहित्य की हर विधा में उनके हस्तक्षेप और परिश्रम की स्पष्ट छाप मिलती है।... नौवीं या दसवीं कक्षा में उनकी एक कविता पढ़ी थी। अब वह पूरी कविता तो स्मरण में नहीं रही, लेकिन उसकी कतिपय पंक्तियाँ याद आती हैं। छायावाद-रहस्यवाद के संधिकाल में लिखी गयी हंसकुमारजी की इस कविता ने रहस्यवाद को कैसा विस्मयकारी विराट् रूप दिया है, आप स्वयं देख लें--
"घर आये, मेहमान बने,
अब निष्ठुर प्राण बने जाते हो!...
अब तुम फूलों में हँसते हो,
रजत चाँदनी में मुस्काते,
अब तक तो तुम ही तुम थे,
अब भगवान बने जाते हो!!"

बलहरहाल, परिषद् में हुई उस मुलाकात के बाद मैं भी दिल्ली चला गया। देश में जब आपातकाल  की घोषणा हुई, उसी के कुछ महीने बाद पिताजी इण्डियन एक्सप्रेस से सेवा-मुक्त हुए और सन् 1977-78 में पटना आये। पटना-प्रवास में उनकी मुलाकात भी हंसकुमारजी से परिषद्-कार्यालय में हुई थी। फिर पिताजी दिल्ली चले आये। कुछ वर्षों बाद जीवन में व्यतिक्रम उपस्थित हुआ। मैं नयी नौकरी पर 1979 में दिल्ली छोड़ ज्वालापुर (हरद्वार) चला आया। कुछ महीने बाद पिताजी भी वहीं आ गये। दिन बीतते रहे।...

सन् 1981-82 में जब हम सपरिवार पटना लौटे, उसके डेढ़-दो वर्ष पहले ही मात्र 62 वर्ष की आयु में हंसकुमार तिवारीजी लोकांतरित (27-9-1980) हो गये थे।...

गया में हंसकुमारजी के घर का नाम 'मानसरोवर' था। पिताजी को संबोधित उनके जितने भी पत्र/पोस्टकार्ड आते, सबके शीर्ष पर तिथि के साथ लिखा होता--'मानसरोवर'। बहुत छुटपन में उनकी चिट्ठियाँ पिताजी को देते हुए मैं कहा करता--'बाबूजी! मानसरोवर से चिठ्ठी आयी है।' तब अक्षरों को टटोल-जोड़कर पढ़ लेने-भर की बुद्धि थी। अर्थ-अभिप्राय समझ पाने की योग्यता नहीं थी। मैं समझता था कि हिमालय की चोटियों पर तरंगित जिस किसी प्रशांत झील का नाम 'मानसरोवर' है, पत्र वहीं से आया है। यह तो कुछ वर्षों बाद समझ में आया कि 'मानसरोवर' से आये पत्र गया से हंसकुमारजी के भेजे हुए पत्र होते हैं। लेकिन, उनके निधन की सूचना प्राप्त होने के बाद गहरी वेदना के साथ कुछ ऐसी अनुभूति हुई थी कि गया के मानसरोवर का हंस अनन्त आकाश को लाँघता न जाने कहाँ चला गया है अब...!

मानसरोवर के प्रांगण में वो जो सुफैद-सा गुलाब खिला रहता था, वह काँटों की टहनी पर अंततः ईसा-सा झूल ही गया अपनी मधुर-मनोहार स्मृतियाँ और मुग्धकारी सुगंधि छोड़कर, ...जो साहित्य में सदा सुवासित रहेगी!...
(समाप्त)

(चित्र : 1. पं. हंसकुमार तिवारी 2. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का प्रांगण 3. परिषद्-निदेशक की सूची का काष्ठपट्ट।)
क्षेपक : संयोग से कल शाम (6 मई, 2017) पटना आ पहुँचा और आज बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् गया था। वहीं से प्रकाशित एक पुस्तक से मिल गयी है मुझे हंसकुमार तिवारीजी की एकमात्र छवि, जिसे आप मित्रों के सम्मुख रखकर मै संतोष का अनुभव कर रहा हूँ।--आनन्द.

शनिवार, 10 जून 2017

'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था...' (3) पं. हंसकुमार तिवारी

सत्ताइस दिनों के उस गया-प्रवास में बस एक बार और हंसकुमारजी के घर जाने का मौका मिला। जब उनके दरवाजे पहुँचा तो देखा कि हंसकुमारजी अहाते में ही पुष्प-पौधों के बीच, एक सेंटर टेबल पर अपने कागजात फैलाये, कुर्सी पर बैठे हैं और कुछ लिख रहे हैं। लौहद्वार खुलने की आहट से उनका ध्यान भंग हुआ। मुझे देखते ही उन्होंने हाँक लगायी--'आओ-आओ, इधर आ जाओ।' चरण-स्पर्श कर मैं उनके पास जा बैठा और बातें होने लगीं। बीच में ऊँची आवाज लगाकर उन्होंने मेरे आगमन की इत्तला के साथ चाय भेजने की हिदायत दी। थोड़ी ही देर में चाय आ गयी, बिस्कुट-नमकीन के साथ। हमने बातें करते हुए चाय पी।

चाय अभी खत्म ही हुई थी कि मैंने उनके कागजों की ओर देखा--फुलस्केप पृष्ठों पर अनूदित सामग्री के अक्षर मोती के दानों-से चमक रहे थे। हंसकुमारजी शिरोरेखाविहीन, थोड़े तिरछे-तिरछे, सुडौल अक्षर लिखते थे--कहीं काट-छाँट नहीं, शब्द-परिवर्तन नहीं, सर्वत्र एक समान, सधा हुआ सुंदर लेखन! तैयार प्रेसकाॅपी! उनके लिखे को देखकर मुझे पिताजी के अक्षरों और उनका लेखन याद आया, अनवरत एकाग्र परिश्रम याद आया। मैंने कहा--'आपके अक्षर बाबूजी के अक्षरों से बहुत मिलते-जुलते हैं, वह भी शब्दों पर शिरोरेखा नहीं डालते और उनका लिखा हुआ भी बहुत साफ-सुथरा होता है। वह भी आपकी तरह ही अनुवाद-कार्य में व्यस्त रहते हैं। बस, बाबूजी के अक्षर सीधे होते हैं और आपके थोड़े तिरछे।'

मेरी बात सुनकर वह मुस्कुराये और बोले--'कलम जितना घिसेगी, अक्षर उतने ही पुष्ट-सुडौल होंगे। मुक्तजी और मैंने भी जीवन-भर कलम घिसने के सिवा और किया भी क्या है?'
फिर, मेरे मुँह से बस इतनी-सी बात निकल गयी--'लेकिन यह परिश्रम, यह अध्यवसाय और ऐसी संलग्नता तो बड़ी कठिन साधना है। यह कष्ट-साधन कैसे कर लेते हैं आपलोग?'
मेरी बात सुनकर वह दो क्षण मौन रहे, फिर गम्भीरता से बोले--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था और उसे मैंने पाँवों से चलकर नहीं, छाती के बल रेंगकर पार किया है। हमें राजकृपा का सुवर्ण रथ कभी प्राप्त नहीं हुआ। भीषण और निरंतर श्रम ही हमारे भाग्य का सुख है...और उसे ही हम सुखपूर्वक भोगते हैं!'...

मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया। खुले बगीचे की आबोहवा में भी गम्भीरता तैरने लगी... तभी चाचीजी ने आकर हस्तक्षेप किया, बोलीं--'खाना तैयार है। आपलोग अंदर आ जाइये।' मैंने घड़ी देखी, डेढ़ बज रहे थे। बातों-बातों में खासा वक्त बीत गया था। सेंटर टेबल पर रखी पुस्तकें और कागजों को समेटने में मैंने हंसकुमारजी की मदद की और हम घर में दाखिल हुए। भोजन सुस्वादु था। हमने भोजनोपरांत मिष्टान्न की प्यालियाँ उठायीं और ड्राइंग रूम में आ बैठे और सामान्य बातें होने लगीं। पिछली बातों का अवसाद तो धुलने लगा, लेकिन हंसकुमारजी का वह वाक्य मेरे अंतर्मन में कहीं गहरे अंकित हो गया था हमेशा के लिए--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था...'

मेरे लौट चलने का वक्त हो रहा था, लेकिन उन दिनों एक फितूर मेरे सिर पर सवार था, मैं जिन बड़े साहित्यिकों से मिलता, उनसे अपनी पाॅकेट डायरी में 'ज़िदगी क्या है', इस विषय पर उनके विचार लिख देने का आग्रह करता। यही आग्रह मैंने हंसकुमारजी से भी किया और अपनी जेब से डायरी निकाली। मेरा निवेदन सुनते ही हंसकुमारजी उठ खड़े हुए और अलमारी से एक छोटी-सी डायरी निकाल लाये। उसे मुझे देते हुए बोले--'इसमें ज़िंदगी पर लिखी हुई मेरी शत-सूक्तियाँ हैं, देख लो। जो तुम्हें पसंद होगी, वही लिख दूँगा।'

उस डायरी की सूक्तियाँ देखकर मुझे हैरत हुई। उसमें सूक्तियाँ नहीं, एक-से-बढ़कर एक नगीने जड़े थे--ज़िंदगी विषयक। उसमें से किसी एक का चयन करना आसान तो हर्गिज नहीं था। इसमें वक्त लगा, लेकिन मैंने अंततः जिस सूक्ति का चयन किया, वह मेरी स्मृति में ही अंकित रह गया; वह बहुमूल्य डायरी तो कानपुर शहर में मेरी साइकिल के कैरियर से राह चलते कहीं टपक गयी, जिसका अफसोस मुझे लंबे समय तक रहा। बहरहाल, जिस सूक्ति को मैंने पसंद किया था, उसे हंसकुमारजी ने मेरी डायरी में लिखकर हस्ताक्षर किये, तिथि डाली। मैं उपकृत होकर उनके घर से लौटा। वह सूक्ति थी--

'जो हुआ, सो हुआ समझो,
सुख-दुःख सब दया-दुआ समझो,
दाँव हारा कि जीत ली बाजी,
ज़िंदगी? ऐ मियाँ! जुआ समझो!!'
(क्रमशः)

रविवार, 4 जून 2017

'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था...' (2) : पं. हंसकुमार तिवारी

यह सन् '74 की बात है, जब देशव्यापी रेल-हड़ताल हुई थी। मैंने सिविल डिफेंस सेवा का प्रमाण-पत्र अर्जित कर रखा था। उन दिनों सिविल डिफेंस के प्रमाण-पत्रधारी नवयुवकों को बलात् सेवा-दान के लिए भेजा जा रहा था। मुझे भी गया जंक्शन के टेलीफोन एक्सचेंज पर तैनात कर दिया गया। मैं यह सोचकर सोत्साह इसके लिए राजी हो गया था कि बहुत दिनों के बाद चाँद से मिलूँगा और हंसकुमारजी के पुनर्दशन कर कृतार्थ होऊँगा। गया मैं चला तो गया, लेकिन वहाँ ऐसी अव्यवस्था फैली हुई थी कि पाँच-छह दिनों तक बिलकुल फुर्सत नहीं मिली। मैं प्रशिक्षण और सेवा-दान में लगा रहा। सातवें दिन फुर्सत मिली। मैं भागकर हंसकुमारजी के घर पहुँचा। वह बंगला के किसी विशाल ग्रंथ के अनुवाद-कार्य में व्यस्त थे, लेकिन मुझे देखकर प्रसन्न हो उठे। 'बैठो-बैठो' कहते हुए सामने पड़े कागज-किताब और कोश समेट कर वह एक किनारे रखने लगे तो मैंने कहा--'आप तो व्यस्त हैं, अपना काम न रोकिये। मैं तब तक चाँद से मिल लेता हूँ, कहाँ है वह?'

लेकिन उन दिनों चाँद गया में नहीं थे, किसी काॅलेज के छात्रावास में थे शायद। उनसे न मिल पाने की मुझे निराशा हुई। हंसकुमारजी ने अनूदित पृष्ठों को सहेजते हुए कहा--'यह तो महासमुद्र है, मेरे आसपास तरंगित होता रहेगा। तुम तो मुक्तजी का कुशल-क्षेम सुनाओ। कैसे हैं वह।' मैंने विस्तार से उन्हें घर-परिवार की कुशलता के समाचार दिये और गया में अपनी उपस्थिति का कारण-प्रयोजन बताया। वह सुनकर प्रसन्न हुए, बोले--'फिर तो तुम यहीं आ जाओ, यहीं से ड्यूटी पर चले जाना। स्टेशन पर जाने कैसा खाना मिलता हो। यहाँ कम-से-कम घर का भोजन तो मिलेगा।'

हंसकुमारजी से हमारे पारिवारिक संबंध थे--अत्यंत निकट के, आत्मीय! मेरे प्रति उनकी ऐसी प्रीति सहज स्वाभाविक थी, लेकिन मैंने स्थिति स्पष्ट करते हुए उन्हें बताया कि 'आकस्मिक सेवाओं के लिए स्टेशन पर ही बने रहने की अनिवार्यता है, अन्यथा मैं आपके पास ही आ जाता। हाँ, साप्ताहिक अवकाश पर अवश्य आ जाया करूँगा।'

फिर, बात को घुमाकर मैं उनकी कविता पर ले आया और उनकी उसी कविता की मैंने उन्हें याद दिलायी, जिसे मैंने उनके श्रीमुख से कवि-सम्मेलन में सुना था। मैं उस कविता की पंक्तियाँ उद्धृत करने लगा तो वह बड़े खुश हुए। कहने लगे--'अरे वाह! तुम्हें तो कई पंक्तियाँ याद हैं उस कविता की। तुममें आया यह परिवर्तन मुझे अच्छा लगा। आखिर जिस महावृक्ष की छाया में कई पीढ़ियों को साहित्यिक संस्कार मिले, उसी की छाया में पलते-बढ़ते उन्हीं के सुपुत्र को क्यों न मिलते?'...
उनकी इस बात से मैं प्रसन्न हुआ, यद्यपि उनका परोक्ष इशारा बचपन की मेरी दुष्टता-उद्दण्डता की ओर भी था। मैंने उनसे कविताएँ सुनाने का अनुरोध किया तो उन्होंने एक नहीं, कई कविताएँ सुनायीं। मैं मंत्रमुग्ध सुनता रहा।
वह गौर वर्ण के सुदर्शन व्यक्ति थे। उनकी खनकदार आवाज में एक प्रकार का भारीपन था, जो अलग प्रभाव छोड़ता था। कविता पूरी लयात्मकता के साथ प्रवाह में सुनाते थे--स्पष्ट शब्दोच्चारण के साथ। उनके काव्य-पाठ का श्रवण करते हुए श्रोता विभोर हो जाता था। उस दिन मेरी दशा भी कुछ ऐसी ही थी। उनकी कई कविताओं में एक कविता देश के विस्मृत बलिदानियों के प्रति थी--बहुत प्रेरक कविता; जिसकी आरंभिक तीन पंक्तियाँ मेरी स्मृति में स्थिर थीं, उसका एक और छंद मैं नेट से आपके लिए ढूँढ़ लाया हूँ--
'मिट्टी वतन की पूछती
वह कौन है, वह कौन है?
इतिहास जिस पर मौन है! वह कौन है?
जिसके लहू की बूँद का टीका हमारे भाल पर
जिसके लहू की लालिमा स्वातंत्र-शिशु के गाल पर
जो बुझ गया गिरकर गगन से, निमिष में तारा-सदृश
बच ओस जितना भी न पाया, अश्रु जिसका काल पर
जिसके लिए दो बूँद भी स्याही नहीं इतिहास को
वह कौन है?...'

सुबह के नौ-दस बजे मैं उनके आवास पर पहुँच गया था, लेकिन बातों-बातों में दिन के दो बज गये। भोजन का वक्त हो गया था। सुदर्शना और स्नेहमयी चाचीजी ने भोजन कराने के बाद ही मुझे लौटने की इजाजत दी और हंसकुमारजी बार-बार ताकीद करते रहे कि छुट्टी मिलते ही मैं उनके पास आ जाऊँ। उस पीढ़ी के लोगों के अंतर्मन में कितनी प्रीति, कितना स्नेह भरा पड़ा था, यह सोचकर मैं आज भी हैरान होता हूँ।...
(क्रमशः)


(चित्र : सन् 1968 में मेरी माता के निधन पर हंसकुमार तिवारीजी का शोक-संवेदना का पिताजी को संबोधित पत्र, दिनांक : 13-12-1968)