शनिवार, 10 मार्च 2018

गोआ के सागर-तट से...

मित्र सागर !
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!
सागर के उन्मद ज्वार
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।
यह यायावर, मतवाला मन
फिर जाने कब
डाले पग-फेरे इसी राह पर
रजत-कणों पर चलते-चलते...

रे उद्दण्ड लहरों के रखवाले सागर !
तुम फिर मिटा देना उन्हें
मैं आ जाऊँगा फिर-फिर...
यही अनवरत, अविराम श्रम
हम दोनों करेंगे...
जीवन की शाश्वत कथा
इसी रेत पर हम लिखेंगे...!
जीवन के इस महाकाव्य में
नहीं होता कहीं पूर्ण विराम मित्र....
👣👣👣



(--आनन्द. 10.03.2018)